‘‘मौ सी, ममा को सीवियर अटैक आया है, अर्धचेतनावस्था में भी वे आप को ही याद कर रही हैं. प्लीज मौसी, आप शीघ्र से शीघ्र आ जाइए.’’
फोन पर विपुल का चिंतित स्वर सुन कर अनुजा स्तब्ध रह गई. बस, इतना ही कह पाई, ‘‘बेटा, दीदी का खयाल रखना, उन्हें कुछ भी नहीं होना चाहिए, मैं अतिशीघ्र पहुंचती हूं.’’
समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे क्या से क्या हो गया. कुछ दिनों से उसे लग रहा था कि सविता दीदी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है. फोन पर बातें करते हुए वे थकीथकी लगती थीं. उस ने उन से कई बार कहा भी कि आप अपना चैकअप करवा लीजिए पर वे उस की बात को नजरअंदाज कर हमेशा यही कहतीं, ‘मुझे क्या होगा, अनु. बस, ऐसे ही थकान के कारण तबीयत ढीली हो गई है. वह भी यह सोच कर चुप हो जाती कि आज से पहले तो सर्दीजुकाम के अतिरिक्त उन को स्वास्थ्य संबंधी कोई समस्या रही नहीं है तो सबकुछ सामान्य ही होगा पर अब यह अचानक सीवियर अटैक!
सविता दीदी उस की ही दीदी नहीं, अपने कर्म और स्वभाव के कारण जगत दीदी बन गई थीं. उस की तो वे बड़ी बहन जैसी थीं. सच तो यह है कि उस ने उन्हीं के सान्निध्य में जीवन का ककहरा सीखा था. दीदी ने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना किया, कभी हार नहीं मानी. अपनों के व्यवहार से घायल हुए दिल ने अपनी एक अलग मंजिल तलाश ली थी और उस पर अडिगता से चलीं ही नहीं, दूसरों को भी अपने प्रति सोच को बदलने के लिए मजबूर किया. वे न स्वयं रोईं और न ही किसी को रोने दिया. उन की जिंदादिली में उन के अतीत के अनेक क्रूर पल समाहित हो गए थे.
उसे याद आया वह पल, जब विपुल का विवाह तय हुआ तो वे खुशी से फूली नहीं समाई थीं. सूचना देते हुए बोली थीं, ‘अनु, तुझे हफ्तेभर पहले आना होगा. तेरे बिना यह शुभकाम कैसे होगा? वैसे जोजो बातें मेरे दिमाग में आती जा रही हैं, मैं एक डायरी में नोट करती जा रही हूं जिस से ऐन मौके पर कोई कमी न रह जाए. कुछ शौपिंग भी कर ली है. अगर कोई कमी रह भी गई तो तू है न, मेरी बहन, मेरी दोस्त. हम दोनों मिल कर सब मैनेज कर लेंगे. आखिर बहू के रूप में बेटी ले कर आ रही हूं.’
‘जी दीदी, मैं आ जाऊंगी.’
‘अनु, कहीं मैं तुझ से ज्यादा तो एक्सपैक्ट नहीं करने लगी हूं. अगर तेरे पास समय नहीं है या कोई परेशानी हो तो प्लीज मना कर देना. मैं नहीं चाहती कि हम हमारे रिश्ते को बोझ समझा कर निभाएं,’ सविता दीदी ने अचानक कहा था.
‘दीदी, आप ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं, विपुल मेरा भतीजा है, उसे मैं ने अपनी गोद में खिलाया है,’ उन के शब्दों पर आश्चर्यचकित अनुजा ने स्वयं को संभालते स्नेहभरे स्वर में उन के दिल पर रखे बोझ को हलका करते हुए कहा था.
‘पता नहीं क्यों घबराहट होने लगती है आजकल, बस विपुल का विवाह ठीक से निबट जाए तो चैन की सांस लूं,’ कहते हुए उन का स्वर अवरुद्ध हो गया था.
‘आप चिंता मत कीजिए, दीदी, सब ठीक से हो जाएगा.’
अगले महीने ही विपुल का विवाह है. कुछ दिनों बाद वह जाने वाली थी कि अचानक यह खबर आ गई.
फ्लाइट से जाने के बावजूद उसे और दीपेश को बेंगलुरु से इलाहबाद पहुंचने में 8 घंटे लग ही गए. दीपेश डाक्टर से बात करने चले गए थे. विजिटिंग आवर होने के कारण उसे आईसीयू में जाने की अनुमति मिल गई तथा वह दीदी के पास जा कर बैठ गई. दीदी को नर्सिंगहोम में नलियों में जकड़ा देख मन कराह उठा पर बाहर पड़ोसियों की उपस्थिति सुकून पहुंचा रही थी. सभी अड़ोसीपड़ोसी उन के लिए चिंतित थे.
‘‘दीदी को दिल्ली के एस्कौर्ट अस्पताल में शिफ्ट करना बेहतर रहेगा. वहां उन का ट्रीटमैंट उचित रूप से हो पाएगा,’’ दीदी की हालत देख कर अनुजा ने उन के पास बेहाल हालत में खड़े विपुल से कहा.
‘‘मौसी, चाहता तो मैं भी यही हूं पर डाक्टरों का कहना है कि इस अवस्था में मां को शिफ्ट करना खतरे से खाली नहीं है. थोड़़ी स्टेबल हो जाएं, फिर सोचा जा सकता है,’’ आंखों में छलक आए आंसुओं को किसी तरह उस ने आंखों में सहेजते हुए कहा.
‘‘न, न बेटा. घबरा मत. दीदी को कुछ नहीं होगा. हम सब हैं न उन के साथ,’’ कहते हुए उस ने विपुल को दिलासा दी.
उस की आवाज सुन कर दीदी ने आंखें खोलीं, उसे देख कर उन की आंखों में संतोष झलक आया.
‘‘तू आ गई, अनु. मेरा जाने का समय आ गया है. बस, तु?ो ही देखने के लिए रुकी हुई थी,’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने कहा.
‘‘नहीं दीदी, ऐसा नहीं कहते, अभी तो आप को विपुल का विवाह करना है. उस के बच्चों को अपने हाथों से पालनापोसना है.’’
‘‘अपने शब्दजाल से मुझे न बहला, अनु. एक बोझ और तुझ पर डालना चाहती हूं, मेरे बाद मेरे विपुल का खयाल रखना. उसे तेरे भरोसे ही छोड़ कर जा रही हूं. वह अभी मन से बच्चा ही है. शायद मेरा जाना वह सह न पाए. और हां, विवाह टालना मत, धूमधाम से नियत तिथि पर ही करना. सुजाता मेरे विपुल की पसंद है, मुझे उम्मीद है वह उस के साथ खुश रहेगा,’’ अटकतेअटकते उन्होंने बमुश्किल कहा. इस दौरान वे हांफने लगी थीं. आखिरकार दर्द सहन न कर पाने के कारण उन्होंने आंखें बंद कर लीं.
‘‘दीदी, विपुल बोझ नहीं है मेरे लिए. संभालिए स्वयं को. आप को कुछ नहीं होगा. हम हैं न. इलाज में कोई कमी नहीं होने देंगे. आप को ही विपुल को घोड़ी पर चढ़ाना है, सुजाता को आशीर्वाद देना है,’’ कहते हुए अनुजा की आंखों से न चाहते हुए भी आंसू टपक पड़े.
उस की बात का उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया. चेहरे पर दर्द की लकीरों के साथ उस के हाथ पर उन की पकड़ और मजबूत हो गई. वह उन के मस्तक पर हाथ फेर कर उन्हें सांत्वना देने की कोशिश करने लगी. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आत्मसम्मानी और आत्मविश्वासी दीदी बारबार बोझ शब्द का इस्तेमाल क्यों कर रही हैं? क्या वे कमजोर पड़ने लगी हैं? अपने प्रश्न का उस के पास कोई उत्तर नहीं था. उस का मन अतीत के उन गलियारों में भटकने लगा जब वह सविता दीदी से मिली थी.
लगभग 25 वर्ष पहले उस के पड़ोस में एक परिवार रहने आया था. उस परिवार में सिर्फ 2 ही प्राणी थे, 2 वर्षीय बेटा और वह स्वयं. घर के दरवाजे के सामने लगाई नेमप्लेट से पता चला कि उन का नाम सविता है. वे कालेज में पढ़ाती हैं. वे घर से बाहर बहुत कम निकलती थीं. बस, घर से कालेज तथा कालेज से घर ही उन की दिनचर्या थी. बेहद संजीदा और अंतर्मुखी व्यक्तित्व था उन का, जिस के कारण आसपास के लोग भी उन से मिलने से कतराते थे. बेटे की देखभाल के लिए उन्होंने आया को रखा हुआ था.
एक दिन अनुजा स्कूल से लौटी तो पाया कि आया बाहर गप मार रही है तथा अंदर बच्चा रो रहा है. उस ने उस को डांटा तो वह अनापशनाप बोलने लगी. इस बीच वह उस के रोकने के बावजूद अंदर चली गई. बच्चा नींद से जाग कर किसी को अपने पास न पा कर स्वयं पलंग से उतरने की कोशिश में नीचे गिर गया था तथा चोट लगने के कारण रोने लगा था. उसे देख कर उस ने उस की ओर आशाभरी निगाहों से देखते हुए हाथ बढ़ाया तो वह भी उसे गोद में लेने से स्वयं को न रोक पाई. उस की गोद में आ कर वह चुप हो गया था. बच्चे को जमीन पर गिरा देख कर नौकरानी को अपनी गलती का एहसास हुआ या नौकरी छूट जाने के डर के कारण वह उस से क्षमा मांगते हुए इस घटना का जिक्र मालकिन से न करने का आग्रह करने लगी.
अब तो अनुजा का नित्य का क्रम बन गया था. जब तक वह स्कूल से आ कर उस बच्चे के साथ घंटाआधघंटा बिता न लेती, उस का खाना ही हजम न होता था. एक दिन वह उस के साथ खेल रही थी कि अचानक सविता मैम आ गईं. वह उन्हें देख कर डर गई. अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि वे संजीदा स्वर में बोलीं, ‘अच्छा, तो वह तुम ही हो जिस के साथ खेल कर मेरा बेटा विपुल इतना खुश रहता है. यहां तक कि छोटेछोटे वाक्य भी बोलने लगा है.’
कहां तो अनुजा सोच रही थी कि उन की आज्ञा के बिना उन के घर घुसने तथा उन के बच्चे के साथ खेलने के लिए उसे खरीखोटी सुननी पड़ेगी पर उन्होंने न केवल उस से प्यार से बातें कीं बल्कि उसे सराहा भी. उन का सराहनाभर स्वर सुन कर वह भी उत्साह के स्वर में बोली, ‘‘मैम, मुझे बच्चों के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है, घर में कोई छोटा बच्चा नहीं है, सो इस के साथ खेलने आ जाती हूं.’
‘बहुत ही प्यारी बच्ची हो तुम. बस, आगे यह ध्यान रखना कि जो काम अच्छा लगता है उसे छिप कर करने के बजाय सब के सामने करो, जिस से ग्लानि का एहसास नहीं होगा,’ कहते हुए उन्होंने उस की पढ़ाई के बारे में जानकारी ली.
मां को जब अपने इस वार्त्तालाप के विषय में बताया तो वह बोली, ‘क्यों व्यर्थ अपना समय बरबाद कर रही है. आज उसे तेरी आवश्यकता है तो मीठामीठा बोल रही है, कल जब आवश्यकता नहीं रहेगी तो वह तुझे दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंकेगी. आखिर ऐसे लोगों की यही फितरत होती है. वैसे भी, जो अपनों का न हो सका वह भला दूसरों का क्या होगा?’
मां की बात उस समय उसे अटपटी लगी. दरअसल मां की एक मित्र उसी कालेज में अध्यापिका थीं, जिस में सविता मैम पढ़ाती हैं. उन से उन्हें पता चल चुका था कि उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया है. उस समय ऐसा फैसला लेना, वह भी स्त्री द्वारा, उसे अहंकारी, घमंडी तथा बददिमाग की पदवी से विभूषित करने के लिए काफी था. उस का दिल कहता कि किसी का किसी के साथ रहना न रहना उन का निजी फैसला है, इस पर किसी को आपत्ति क्यों?
अगर सविता मैम ने यह कदम उठाया है तो अवश्य ही कोई बड़ा कारण होगा. एक औरत अकारण घर की चारदीवारी नहीं लांघती, वह भी एक छोटे बच्चे को गोद में लिए. उन का व्यवहार देख कर उसे कभी नहीं लगा कि वे झगड़ालू या दंभी किस्म की औरत हैं. उस समय उसे यह प्रश्न बारबार झकझोरता था कि हमारा समाज सारी बुराइयां औरत में ही क्यों ढूंढ़ता है, क्यों उसे शांति से जीने नहीं देता? मां से मन की बात कही तो वे उस पर ही बरस पड़ीं- ‘दो बित्ते की छोकरी है और बातें बड़ीबड़ी करती है. अरे, घर की सुखशांति बरकरार रखने के लिए औरत को ही त्याग करना पड़ता है, नहीं तो चल चुकी घर की गाड़ी. और हां, उस घर में ज्यादा मत जाया कर, कहीं उस के कुलक्षण तुझ में भी न आ जाएं.’
मां आम घरेलू औरत की तरह थीं, जिन का दायरा अपने पति और बच्चों तक ही सीमित था. ‘औरत घर की चारदीवारी में शोभित ही अच्छी लगती है.’ ऐसा दादी का मानना था. दादी के विचारों, कठोर अनुशासन ने सामाजिक समारोह के अतिरिक्त उन्हें घर से बाहर निकलने ही नहीं दिया. दादी के न रहने के पश्चात भी उन के द्वारा थोपे विचार, अंधविश्वास मां के मन में ऐसे रचबस गए कि वे उन से मुक्ति न पा सकीं. आज उसे लगता है कि व्यक्ति की सोच का दायरा तभी बढ़ता है जब वह दुनियाजहान घूमता है, विभिन्न समुदायों तथा संप्रदायों के लोगों से मिलता है, तभी उस के स्वभाव और व्यक्तित्व में लचीलापन आ पाता है. तभी वह समझ पाता है कि व्यक्ति के आचारविचार में परिवर्तन समय की देन है. जो समय के साथ नहीं चल पाता या समय को अपने अनुकूल बनाने की सामर्थ्य नहीं रखता वह एक दिन तिनकातिनका टूट कर बिखरता जाता है. वह इंसान ही क्या जो अपने आत्मसम्मान की रक्षा न कर पाए तथा परिस्थितियों के आगे घुटने टेक दे.
सविता मैम उसे सदा परिष्कृत रुचि की लगीं. सो, मां के मना करने के बावजूद कभी छिप कर तो कभी उन की जानकारी में वह उन के घर जाती रही. धीरेधीरे लगाव इतना बढ़ा कि विपुल के साथ खेलने के लिए उन की अनुपस्थिति में तो वह जाती ही थी, अब वह उन के सामने भी, जब भी मन हो, बेहिचक जाने लगी थी. कभी उन के साथ चाय बनाती तो कभी सब्जी और कुछ नहीं तो उन के साथ अपनी पढ़ाई से संबंधित मैटर ही डिस्कस कर लेती थी.
वे कैमिस्ट्री की टीचर थीं. हायर सैकंडरी में फिजिक्स, कैमिस्ट्री उन के विषय थे. सविता मैम कैमिस्ट्री के अतिरिक्त फिजिक्स से संबंधित समस्याएं भी हल करवा दिया करती थीं. उन का समझने का तरीका इतना रुचिकर था कि गंभीर से गंभीर विषय भी सहज हो जाता था. उसे उन के साथ बैठ कर बातें करना अच्छा लगता था. उन की सोच उन्हें अन्य महिलाओं से अलग करती थी. वे साड़ी, जेवरों की बातें नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों पर बातें किया करती थीं. यहां तक कि उन्होंने उसे कालेज में हो रही वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए न केवल प्रेरित किया बल्कि विषयवस्तु भी तैयार करवाई. उन के प्रयत्नों का ही नतीजा था कि वह अपने स्कूल में ही प्रथम नहीं बल्कि इंटर-स्कूल वादविवाद प्रतियोगिता में भी प्रथम आई.
उस के पढ़ाई और अन्य प्रतियोगिताओं में अच्छे प्रदर्शन के कारण मां अब उसे उन के घर जाने से रोकती तो नहीं थी पर अभी भी मां की धारणा उन के प्रति बदल नहीं पाई थी जबकि वह अपने सुलझे विचारों तथा आत्मविश्वास के कारण उस की आदर्श ही नहीं, प्रेरणा भी बन चुकी थीं.
कम से कम वे उन औरतों से तो अच्छी थीं जो हर काम में मीनमेख निकालते हुए एकदूसरे की टांगें खींचने में लगी रहती हैं. कम से कम उन के जीवन का कोई मकसद तो है. वे जीवन में आई हर कठिनाई को चुनौती के रूप में लेती हुई जिंदादिली से लगातार आगे बढ़ रही हैं तो लोगों को आपत्ति क्यों?
उस समय वह ग्रेजुएशन कर रही थी. जिंदगी के अच्छेबुरे पहलुओं को थोड़ाथोड़ा समझने लगी थी. एक दिन उस ने उन की जिंदगी में झांकने का प्रयास किया तो वे उखड़ गईं तथा तीखे स्वर में कहा, ‘पता नहीं लोगों को किसी की निजी जिंदगी में झांकने में क्यों मजा आता है? मेरी जिंदगी है चाहे जैसे भी जीऊं.’
‘सौरी मैम, मेरा इरादा आप को दुख पहुंचाने का नहीं था लेकिन जब आसपड़ोस के लोग आप के बारे में अनापशनाप कहते हैं तो मुझ से सहा नहीं जाता, इसीलिए सचाई जानने के लिए आज मैं ने आप से पूछा पर मुझे नहीं पूछना चाहिए था. आप को दुख हुआ, प्लीज, मुझे क्षमा कर दीजिए.’
‘इस में तुम्हारी कोई गलती नहीं हैं, अनु. गलती हमारी, समाज की सोच और धारणा की है. सचाई यह है कि हमारा समाज आज भी अकेली औरत को सहन नहीं कर पाता. वह उस के लिए एक पहेली बन कर रहती है. उस पहेली को सब अपनीअपनी तरह से सुलझना चाहते हैं. बस, यहीं से बेसिरपैर की बातें प्रारंभ होती हैं पर मैं ने अपने आंख, कान और मुंह बंद कर रखे हैं. अगर खोल कर रखे होते तो शायद जीवित न रह पाती,’ कहते हुए उन की आंखें छलछला आई थीं.
आखिरकार, सविता दीदी उस के सामने खुली किताब की तरह खुलती चली गईं. जमाने के तीरों से लहूलुहान पर यत्न कर सहेज कर रखा दिल का दर्द उन की जबां पर आ ही गया. उस समय उन्होंने जो कहा उस का सारांश यह था कि उन का पति प्रतिष्ठित बिजनैसमैन परिवार का होने के बावजूद शराबी, जुआरी तथा दुराचारी था. उस के मातापिता को उस के ये अवगुण, अवगुण नहीं गुण नजर आते थे. उस ने अपने पति को सम?ाने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं माना. एक दिन शराब के नशे में उस ने उस के साथ संबंध बनाना चाहा तो मुंह से आती दुर्गंध ने उसे विरोध करने पर विवश कर दिया. फिर क्या था, उस ने उस पर हाथ उठा दिया.
बहुत रोई थी वह उस दिन. अपने मातापिता से जब इस संबंध में बात की तो उन्होंने कहा, ‘सब्र कर बेटी, धीरेधीरे उस के सारे ऐब तेरे प्यार से समाप्त होते जाएंगे.’
पर ऐसा नहीं हो पाया. उस ने हर तरह से उस के साथ निभाने की कोशिश की. न चाहते हुए भी वह प्रैग्नैंट हो गई पर उस के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आ रहा था. गर्भावस्था के अंतिम दिनों में जब पत्नी को पति के सहारे की अत्यंत आवश्यकता होती है तब भी वह रातरातभर बाहर रहता था. यहां तक कि विपुल के जन्म के समय भी वह उस के पास नहीं था. किसी काम के कारण अगर वह न आ पाता तो कोई बात नहीं थी पर वह तो सुरासुंदरी में खोया रहता था. न जाने कैसी नफरत उस के दिल में समा गई थी कि उस ने उसी वक्त उसे छोड़ने का निर्णय ले लिया. आखिर कब तक वह जलालतभरी जिंदगी जीती. वह उसे छोड़ कर मायके चली आई.
उस के मातापिता ने उस के इस निर्णय का विरोध किया. ससुराल जा कर पैचअप कराने की कोशिश भी की पर उस के ससुराल वाले भी बेटे की तरह ही अक्खड़ निकले तथा बोले, ‘थोड़ा शराब पी कर मस्ती कर लेता है तो क्या बुराई है? यह तो अमीरजादों का लक्षण है. हमें क्या पता था कि आप लोग सोलहवीं सदी की मानसिकता वाले होंगे वरना हम अपने बेटे का विवाह आप के घर कभी न करते. वैसे भी दोष तो आप की लड़की का ही है जो उसे घर में बांध कर नहीं रख पाई.’
मम्मीपापा अपना सा मुंह ले कर लौट आए तथा फिर से उस से अपने घर लौट कर स्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करने के लिए कहने लगे पर इतना सब होने पर लौटना उसे अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगा. उस ने सीधेसीधे कह दिया कि अगर आप भी नहीं रखना चाहते तो कोई बात नहीं, मैं कोई और ठिकाना ढूंढ़ लूंगी. उस समय उस के छोटे भाई सरल ने मम्मीपापा के विरुद्ध जा कर उस का साथ दिया था. उस ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए कहा था, ‘दीदी, तुम कहीं नहीं जाओगी. वैसे भी जिसे मेरी बहन की परवा नहीं है, उस के साथ मेरी बहन नहीं रहेगी.’ यह कह कर सरल ने अपना फैसला सुना दिया.
‘अभी यह सब कह ले पर जब बीवी आ जाएगी तब मुंह पर ताले लग जाएंगे. बेकार उसे शह दे कर उस की जिंदगी बरबाद कर रहा है. थोड़ाबहुत तो सब जगह चलता है पर हमारे खानदान में आज तक ऐसा कहीं नहीं हुआ कि बेटी ससुराल छोड़ घर बैठ जाए,’ मां ने उसे फटकारते हुए कहा था.
‘अगर ऐसा कभी नहीं हुआ तो यह कोई आवश्यक तो नहीं कि कभी हो ही न. हर काल में परिस्थतियां भिन्नभिन्न होती हैं, उसी के अनुसार इंसान को निर्णय लेना पड़ता है. मेरी बहन अनाथ नहीं है जो ऐसी जलालतभरी जिंदगी जिए. तुम परेशान मत हो, मां. दीदी की जिम्मेदारी उठाने का अगर मैं ने वादा किया है तो पूरी जिंदगी उठाऊंगा पर मैं उसे उस शराबी, जुआरी के साथ रहने को मजबूर नहीं करूंगा,’ सरल ने दृढ़ स्वर में कहा.
‘इस की गलत बात को समर्थन दे कर तू ठीक नहीं कर रहा है. भुगतेगा एक दिन और फिर हमारा समाज क्या वह इसे चैन से जीने देगा,’ मां ने उसे धमकी दी थी.
‘कैसी मां हैं आप, जो अपनी ही बेटी के दर्द को महसूस नहीं कर पा रही हैं. समाजसमाज, कहां था समाज जब जीजा ने आप की बेटी को थप्पड़ मारा. आदमी का हर ऐब समाज के लिए ठीक है लेकिन जब एक स्त्री अपना सम्मान से जीने का अधिकार मांगती है तो वह गलत है,’ सरल ने आक्रोशित स्वर में कहा.
मां सरल की बात सुन कर उस समय चुप हो गईं. सरल के सहयोग से उन्होंने तलाक की अर्जी दे दी. ससुराल वालों को भला क्या आपत्ति थी. आखिर दोष तो लड़कियों में होता है, लड़कों में नहीं. उन्हें फिर से अपने बेटे का दूसरा विवाह कर अपनी तिजोरी भरने का एक और मौका मिल गया था.
मां के तथा सगेसंबंधियों के व्यवहार ने सविता मैम को मायके में भी चैन से रहने नहीं दिया. सो, विपुल के थोड़ा बड़ा होते ही उन्होंने नौकरी के लिए अप्लाई करना प्रारंभ कर दिया. नौकरी मिलते ही वे विपुल को ले कर यहां आ गईं. अगर वहां रहतीं तो शायद शांति से जी न पातीं. वही लोग, वही बातें. उन की चिंता से अधिक उन की लाचारी, बेबसी लोगों को परेशान करती. वे उस माहौल में उन लोगों के साथ रह कर बेबस और लाचार नहीं कहलाना चाहती थीं. औरों की तो छोडि़ए, उन की अपनी मां उन की स्थिति के लिए जबतब आंसू बहा कर कभी उन्हें दोषी ठहरातीं तो कभी जमाने को कोसतीं. कभी तो यहां तक भी कह देतीं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है.
पति से तलाक लेने के बाद सविता मैम के भाई ने फिर से विवाह करने के लिए उन्हें सम?ाने की बेहद कोशिश की. यह भी कहा कि कोई आवश्यक नहीं कि एक जगह नहीं बन पाई तो दूसरी जगह भी न बने. यहां तक कि उन के भविष्य के लिए उस ने विपुल को अपने पास रखने की भी पेशकश कर डाली पर वे इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती थीं कि अपने सुख के लिए अपने ही कोखजाए से मुंह मोड़ लेतीं या भाई पर सदा के लिए अपने बेटे का बो?ा डाल देतीं. माना भाई को वह बो?ा नहीं लगता लेकिन दूसरे घर से आई लड़की को वे कैसे मुंह दिखातीं. क्या वह उस के विपुल को स्वीकार कर पाती? वैसे भी, एक विवाह कर के तो वे देख ही चुकी थीं. पतिरूपी पुरुष जाति से न जाने क्यों उसे नफरत हो गई थी. सो, मना कर दिया.
पिछले कुछ दिनों की घटनाओं ने उन की इस धारणा को पुख्ता कर दिया था कि आज की नारी में इतना दमखम है कि अगर वह चाहे तो अपना संसार स्वयं सजासंवार सकती है. आखिर वह क्यों एक ऐसे आदमी की दूसरी पत्नी बने जिस की आंखों में उस के लिए दया के अतिरिक्त कुछ न हो. जो उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं, अपने बच्चों की मां बना कर लाए. उस से सदा कर्तव्यों की बात करता रहे पर अधिकार न दे. यहां तक कि अगर दूसरी पत्नी के बच्चा हो तो उसे भी पितृत्व के साए से दूर रखने का प्रयत्न करे. हां, कुछ अपवाद अवश्य हो सकते हैं पर वे शायद उंगलियों में गिनने लायक ही होंगे.
सविता मैम की बातों ने अनुजा को बहुत प्रभावित किया था. सचमुच अपने आत्मसम्मान और आत्मगौरव की रक्षा करना आदमी का ही नहीं, औरत का भी हक है. उस ने उन से ही सीखा. बीचबीच में उन के मांपिताजी उन से मिलने आते, उन्हें तरहतरह की नसीहतें देते पर वे टस से मस न होतीं. वे मायूस हो कर चले जाते. केवल उन का भाई ही उन की हौसलाअफजाई करता रहता तथा जबतब आ कर उन की हर संभव मदद करने की कोशिश करता.
उन के जाने के बाद वे कुछ दिन उदास रहतीं, फिर सहज हो जातीं. पता नहीं कब वे सविता मैम से उस के लिए दीदी बन गईं.
अड़ोसपड़ोस के लोगों में उन के प्रति धारणा बदलने के साथ, समय के साथ धीरेधीरे सविता दीदी के स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगा. सदा धीरगंभीर रहने वाली दीदी अब हंसने भी लगी थीं. कोई घर बुलाता तो चली भी जातीं.
अनुजा के भाई अभिनव के आईआईटी में सलैक्शन के उपलक्ष्य में मां ने छोटी सी पार्टी दी. उस पार्टी को जानदार और खुशनुमा बनाने के लिए उस ने ‘पासिंग द पार्सल गेम’ रखा था. गेम सब को खेलना था. अपनी चिट के अनुसार सब को गाना सुनाना था. सविता दीदी की गाने की चिट निकली. उन का गाना लोगों को इतना पसंद आया कि गेम के बाद उन से गाने की फरमाइश की जाने लगी. उन्होंने भी फरमाइश करने वालों का दिल रखा. इस के बाद कोई भी पार्टी उन के गाने के बिना पूरी ही नहीं होती थी. अंधकार के बाद सुबह होती है, वे इस का ज्वलंत उदाहरण थीं.
धीरेधीरे ममा के विचार भी उन के प्रति बदलने लगे. अब तीजत्योहारों पर उन्हें अपने घर यह कह कर बुलाने लगीं कि अकेले रह कर क्या त्योहार मनाओगी, यहीं आ जाया करो, हम सब को अच्छा लगेगा. परिवर्तन की इस बयार ने उन में एक अनोखी ऊर्जा का संचार कर दिया था. अब वे सब के साथ सहज हो चली थीं. पहले उन से कतराने वाले सभी लोग अब उन की बुराई नहीं, प्रसंशा करते थे. यहां तक कि अब वे अपने बच्चों से संबंधित समस्याओं पर भी उन की राय लेने लगे और वे उन की उम्मीदों पर खरी उतर रही थीं. अड़ोसपड़ोस के बच्चे भी उन का मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनीअपनी मंजिलों की ओर बढ़ रहे थे. अब वे केवल उस की ही नहीं, सब की दीदी बन गई थीं- जगत दीदी.
एक दिन वह भी आया जब उस का विवाह हो गया पर उस के उन के साथ संबंध सदा बने रहे. मायके आती तो अधिक से अधिक समय उन के साथ व्यतीत करने की कोशिश करती. विपुल उसे मौसी कह कर बुलाता था. उस को देख कर वह इतना खुश होता कि जब तक वह रहती, उस से ही चिपका रहता. अपने स्कूल की एकएक बात उसे बताता. वह उस के लिए ढेर सारे खिलौने ले कर आती तथा उसे भी दीदी की तरफ से उपहार मिलते. सब से ज्यादा खुशी तो इस बात की थी कि दीपेश ने भी उस के इस रिश्ते का मान रखा.
कभीकभी उसे लगता कि वे उस की बड़ी बहन जैसी ही नहीं, उस की सब से अच्छी मित्र है जिन के पास उस की हर समस्या का हल रहता है तथा वह भी अपने दिल की हर बात उन के साथ शेयर कर मन में चलते द्वंद्व या कशमकश से मुक्ति प्राप्त कर लेती है.
एक दिन पता चला कि दीदी के मातापिता तथा भाई सरल अपने किसी रिश्तेदार की बेटी के विवाह में अपनी कार से जा रहे थे कि अचानक गाड़ी का संतुलन बिगड़ गया तथा तीनों ही पंचतत्त्व में विलीन हो गए. समाचार सुन कर अनुजा उन के पास गई. उसे आया देख कर दीदी बिलख कर रोते हुए बोलीं, ‘अनु, सब समाप्त हो गया. इस भरी दुनिया में मैं अकेली रह गई.’
उस समय उन के साथ आई उन की मां ने उन को गले लगा कर दिलासा देते हुए कहा, ‘बेटा तू अकेली कहां है, हम हैं न तेरे साथ. आज से तू भी मेरी बेटी है. हमारे रहते कभी स्वयं को अकेला मत समझना.’ और सच जब तक मांपापा रहे, कभी उन्हें अकेलेपन का एहसास नहीं होने दिया यहां तक कि भाई अभिनव और भाभी पूजा ने भी उन्हें बहन जैसा सम्मान दिया. वह जब भी अमेरिका से इंडिया आता तो जैसे उपहार उस के लिए लाता वैसे ही उन के लिए भी लाता. विपुल के विवाह में भी वह आने वाला है भात की रस्म निभाने.
अचानक अनुजा को अपना हाथ हलका लगा, देखा तो पाया कि उस के हाथ को पकड़ा उन का हाथ नीचे लटक गया है. उस ने घबरा कर नब्ज टटोली. कुछ न पा कर डाक्टर को आवाज लगाती बाहर दौड़ी. उस की बदहवास दशा देख कर विपुल घबरा गया. दीपेश जो डाक्टर से कन्सल्ट कर के लौटे ही थे, उस की चीख सुन कर हतप्रभ रह गए. डाक्टर ने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया.
उस के जीवन का सूत्रधार, जिस के साए में उस ने रहना, चलना, सोचना और सम?ाना सीखा, अपना नश्वर कलेवर छोड़ कर इस दुनिया से विदा ले चुका था. वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे उन के बिना चल पाएगी, कैसे विपुल को संभालेगी?
तभी कहीं पढ़े शब्द उस के दिलदिमाग में गूंज उठे- जीवन तो उस नाव की तरह है जिस में प्राणी अपनी सुविधानुसार चढ़ता और उतरता रहता है. फिर चढ़ने पर खुशी और उतरने पर गम क्यों? जीवन की नाव हिचकोले खाएगी, डराएगी. फिर भी नाव को डूबने से बचाना हर इंसान का कर्तव्य है जब तक कि वह स्वयं जर्जर हो कर टूट न जाए.
दीदी के जीवन की नाव शायद जर्जर हो गई थी. तभी वे सब चाह कर भी उन्हें बचा नहीं सके. अंतिमक्रिया के समय पूरे महल्ले के लोगों के अलावा कालेज के सभी अध्यापक और छात्रछात्राएं उपस्थित थे. सब उन की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे. यह देख कर, सुन कर गर्व से मन भर उठा. आज दीदी उसे शायर के उस कथन की पर्याय लग रही थीं- मैं तो अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग मिलते गए कारवां बनता गया…
लड़की वाले भी इस घटना से बेहद मायूस तथा डरे हुए थे. वे हमारी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रहे थे. जब उन्हें दीदी की अंतिम इच्छा के बारे में बताया तो वे नतमस्तक हो गए. आखिर एक बहुत बड़ा बो?ा उन के सिर से उतर गया था. उन्हें डर था कि कहीं यह घटना उन की बेटी के लिए अपशगुन बन कर न रह जाए. सच तो यह है कि हमारा समाज आधुनिक बनने को ढोंग तो करता है पर जब स्वयं पर आती है तो नाना प्रकार के अंधविश्वासों में उलझ कर रह जाता है.
कर्मकांडों से निबटने के बाद थोड़ा स्थिर होने पर उन की वार्डरोब में रखी डायरी निकाल कर पढ़ने लगी. डायरी में हर रस्म पर दी जाने वाली वस्तुएं सिलसिलेवार लिखी हुई थीं. कुछ शौपिंग जो उन्होंने कर ली थी उस पर उन्होंने टिक लगा दिया था तथा जो नहीं कर पाई थीं उस के आगे कोई निशान नहीं था. हर रस्म में देने वाली वस्तुएं एक बड़े पैकेट में डाल कर अलमारी में टैग लगा कर रख दी थीं. अपने जीवन की तरह ही पूरी तरह सुव्यवस्थित, योजनाबद्ध विवाह की तैयारी कर रही थीं. जीवन से थोड़ी मोहलत उन्होंने चाही थी पर पूरी नहीं हो पाई. सच कुदरत भी कभीकभी इतनी निर्दयी कैसे हो जाती है कि इंसान को उस के न्याय पर ही शक होने लगता है.
पढ़तेपढ़ते एक जगह नजर ठहर गई- ‘अनुजा, बस एक ही बात मुझे बारबार कचोटे जा रही है कि मैं विपुल को परिपूर्ण जीवन नहीं दे पाई. कोई कितनी भी कोशिश कर ले पर मातापिता दोनों का प्यार कोई एक अकेला अपने बच्चे को नहीं दे सकता. मैं ने अकसर विपुल की आंखों में पिता के लिए चाहत देखी है. शायद मन ही मन मुझे कुसूरवार भी ठहराता रहा हो पर तू ही बता, मैं क्या करती? क्या पूरी उम्र उस नरक में सड़ती रहती तथा विपुल को भी उस सड़न का भागीदार बनाती?
‘अगर तुम चाहो तो इस अवसर पर उन्हें बुला सकती हो, मुझे कोई एतराज नहीं होगा. आखिर विपुल उन का भी तो अंश है. वैसे, मैं नहीं जानती वे कहां और कैसे हैं पर दुनिया इतनी बड़ी भी नहीं कि किसी को ढूंढ़ा न जा सके. पुराना पता इसी डायरी में है. अच्छा, अब रुकती हूं, पता नहीं क्यों बहुत घबराहट हो रही है.’
तारीख देखी तो वही दिन था जिस दिन उन्हें अटैक आया था. अंतिम लाइनों ने उसे झकझोर कर रख दिया तो क्या ऊपर से जिंदादिल दिखने वाली सविता दी कहीं न कहीं अपराधबोध से ग्रस्त थीं? अपने लिए नहीं, शायद अपने बच्चे के प्रति पूर्ण न्याय न कर पाने के कारण. पर उन्होंने यह क्यों लिखा कि अगर तुम चाहो तो उन्हें बुला सकती हो, क्या उन्हें अपने अंतिम समय का आभास हो गया था?
दीदी का अंतिम पत्र पढ़ कर आज लग रहा था कि कहीं वे दोहरी जिंदगी तो नहीं जीती रहीं. चेहरे पर हंसी और अंदर ही अंदर एक अनकहा तूफान. पर जातेजाते वे उस तूफान को छिपा नहीं पाईं. शायद इस दुनिया से जाते समय वे अपने दिल पर कोई बोझ ले कर नहीं जाना चाहती थीं और न ही जीतेजी सब के सामने स्वीकार कर कमजोर पड़ना चाहती थीं. सच, अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो साधारणतया हर हंसी के पीछे कोई भीषण दुख छिपा रहता है.
सच कुछ पल भुलाए नहीं भूलता. कहीं मन में वर्षों से डंक मारता दुख आज उन के इस अटैक का कारण तो नहीं बन गया? कारण जो भी रहा हो पर हकीकत का सामना तो करना ही था. वैसे भी, अंतिम सांसें लेता व्यक्ति कभी ?ाठ नहीं बोलता. दीदी की अंतिम इच्छा का सम्मान करना उस का कर्तव्य है पर कैसे, समझ नहीं पा रही थी.
दीपेश को दीदी की डायरी का वह अंश दिखाया तो वे भी सोच में पड़ गए. जब समझ में नहीं आया तो विपुल से बात करने की सोची. आखिर वही तो था जिस ने मातापिता के अलगाव का दुख झेला था. विपुल को डायरी दिखाई तो उस की आंखों से आंसू बहने लगे, बोला, ‘‘मौसी, यह सच है कि मैं ने पापा को मिस करने का दर्द सहा है पर जो दर्द ममा ने सहा है वह मेरे दर्द से बहुत ज्यादा है. उस आदमी ने ममा का तो तिरस्कार किया ही, मेरी भी परवा नहीं की तो फिर मैं उस की परवा क्यों करूं? उसे बुला कर मैं ममा के प्यार का अपमान नहीं करूंगा. मेरे ममापापा दोनों मां ही थीं. आज मैं अनाथ हो गया, मौसी. मैं अनाथ हो गया.’’
‘‘दीदी के जाने के बाद तू अकेला ही नहीं, हम सब ही अनाथ हो गए हैं, बेटा. वे हमारे लिए वटवृक्ष के समान थीं. हालात पर किसी का वश नहीं है, बेटा पर उन की खुशी के लिए स्थिति के साथ समझोता करना ही पड़ेगा. न तू रोएगा, न हम रोएंगे,’’ अनुजा ने उसे अपने अंक में समेटते हुए कहा. दीदी तो उस समय का इंतजार नहीं कर सकीं पर विवाह टलेगा नहीं और न ही इस स्थिति के लिए कोई नई बहू को दोषी ठहराएगा. वह विपुल के साथ दीदी की भी पसंद है. वह उसी धूमधड़ाके के साथ इस घर में प्रवेश करेगी जैसा कि दीदी चाहती थीं. इस निर्णय ने अनुजा के डगमगाते इरादों को मजबूती दी. वह विवाह की तैयारी में जुट गई. आखिर उसे अपनी सविता दीदी के विश्वास की कसौटी पर खरा जो उतरना था.