उस दिन डाक में एक सुनहरे, रुपहले,  खूबसूरत कार्ड को देख कर उत्सुकता हुई. झट खोला, सरसरी निगाहों से देखा. यज्ञोपवीत का कार्ड था. भेजने वाले का नाम पढ़ते ही एक झनझनाहट सी हुई पूरे शरीर में.

ऐसी बात नहीं थी कि पुनदेव का नाम पढ़ कर मुझे कोई दुख हुआ, बल्कि सच तो यह था कि मुझे उस व्यवस्था पर, उस सामाजिक परिवेश पर रोना आया.

पुनदेव का तकिया कलाम था ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा’ तब मुझे उस की यह स्वरचित पंक्तियां बेवकूफी भरी लगती थीं पर अब उस कार्ड को देख कर लग रहा था, शायद वही सही सोचता था और हमारी इस व्यवस्था को बेहतर जानता था.

कार्ड को फिर पढ़ा. लिखा था, ‘‘डाक्टर पुनदेव (एम.ए. पीएच.डी.) प्राचार्य, रामयश महाविद्यालय, हीरापुर, आप को सपरिवार निमंत्रित करते हैं, अपने तृतीय पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर…’’

मेरी आंखें कार्ड पर थीं, पर मन बरसों पीछे दौड़ रहा था.

पुनदेव 5वीं बार 10वीं कक्षा में फेल हो गया था. उस के परिवार में अब तक किसी ने 7वीं पास नहीं की थी, पुनदेव क्या खा कर 10वीं करता. सारे गांव में जंगल की आग की तरह यही चर्चा फैली हुई थी. जिस केजो जी में आता, कहता और आगे बढ़ जाता.

एक वाचाल किस्मके अधेड़ व्यक्ति ने व्यंग्य कसते हुए कहा, ‘लक्ष्मी उल्लू की सवारी करेगी. पुनदेव के खानदान में सभी लोग उल्लू हैं.’

पर रामयश (पुनदेव के पिता) उन लोगों में से थे जो यह मान कर चलते थे कि इस दुनिया में लक्ष्मी की कृपा से सब काला सफेद हो सकता है. वह काले को सफेद करने की उधेड़बुन में लगे थे.

तब तक उन के दरबारी आ गए और लगे राग दरबारी अलापने. कोई स्कूल के शिक्षकों को लानत भेजता तो कोई गांव के उन परिवारों को गालियां देने लगता, जो पढ़ेलिखे थे और बकौल दरबारियों के पुनदेव के फेल हो जाने से बेहद प्रसन्न थे. रामयश चतुर सेनापति थे. वह अपने उन चमचों को बखूबी पहचानते थे, पर उस समय उन की बातों का उत्तर देना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा.

थोड़ी देर हाजिरी लगा कर वे पालतू मानव अपनीअपनी मांदों में चले गए तो रामयश ने अपने एक खास आदमी को बुलावा भेजा.

विक्रमजी शहर का रहने वाला था. रामयश को बड़ेबड़े सत्ताधारियों तक पहुंचाने वाली सीढ़ी का काम वही करता था. उसे आया देख कर उन्होंने गहन गंभीर आवाज में कहा, ‘विक्रमजी, आप ने तो सुना ही होगा कि पुनदेव इस बार भी फेल हो गया, स्कूल बदलतेबदलते मेरी फजीहत भी हुई और हाथ लगे ढाक के वही तीन पात. पर मैं हार मानने वाले खिलाडि़यों में से नहीं हूं. धरतीआकाश एक कर दीजिए. कर्मकुकर्म कुछ भी कीजिए, पर मेरे कुल पर काला अक्षर भैंस बराबर का जो ठप्पा लगा है, उसे पुनदेव के जरिए दूर कीजिए. इस बार मैं उसे पास देखना चाहता हूं. मैं इन दो टके के मास्टरों के पास गिड़गिड़ाने नहीं जाऊंगा. पता नहीं, ये लोग अपनेआप को जाने क्या समझते हैं.’

विक्रम ने कुछ दिन बाद लौट कर कहा, ‘रामयशजी, सारा बंदोबस्त हो गया. गंगा के उस पार के हाईस्कूल में प्रधानाध्यापक से बात हो गई है. 10 हजार रुपए ले कर वह पुनदेव को पास कराने की गारंटी ले लेगा. पुनदेव को अपने कमरे में बैठा कर परचे हल करा देगा. बस, समझ लीजिए पुनदेव पास हो गया?’

रामयश गद्गद हो गए और कहा,

‘मुझे भी इतनी देर से अक्ल आई, विक्रमजी. पहले आप से कहा होता तो अब तक मेरा बेटा कालिज में होता.’

सचमुच ही पुनदेव पास हो गया. अब यह अलग बात थी कि वह इतने बड़े अश्वमेध के पश्चात दूसरी श्रेणी में ही पास हुआ था. पर जहां लोग एकएक बूंद को तरस रहे हों वहां लोटा भर पानी मिल गया देख रामयश का परिवार फूला न समा रहा था. उस सफलता की खुशी में गांव वालों को कच्चापक्का भोज मिला. रात्रि में नाचगाने की व्यवस्था थी. नाच देखने वालों के लिए बीड़ी, तंबाकू, गांजा, भांग, ताड़ी और देसी दारू तक की मुफ्त व्यवस्था थी. लग रहा था कि रामयश खुशी के मारे बौरा गए हों.

उन की पत्नी भी खुशी के इजहार में अपने पति महोदय से पीछे नहीं थीं. रिश्तेनाते की औरतों को बुला कर तेलसिंदूर दिया. सामूहिक गायन कराया. पंडित को धोतीकुरता, टोपीगंजी और गमछा दे कर 5 रु पए बिवाई फटे पैरों पर चढ़ा कर मस्तक नवाया. बेचारे पंडितजी सोच रहे थे कि यजमानिन का एक बेटा हर साल पास होता रहता तो कपडे़लत्ते की चिंता छूट जाती. नौकरों में अन्नवस्त्र वितरित किए गए.

शहर के सब से अच्छे कालिज में पुनदेव का दाखिला हुआ. छात्रावास में रहना पुनदेव ने जाने किन कारणों से गैरमुनासिब समझा. शुरू में किराए का एक अच्छा सा मकान उस के लिए लिया गया. कालिज जाने के लिए एक नई चमचमाती मोटरसाइकिल पिता की ओर से उपहारस्वरूप मिली. खाना बनाने के लिए एक बूढ़ा रसोइया तथा सफाई और तेल मालिश के लिए एक अलग नौकर रखा गया. कुल मिला कर नजारा ऐसा लगता था जैसे 20 वर्षीय पुनदेव शहर में डाक्टरी या वकालत की प्रैक्टिस करने आया हो.

10वीं कक्षा 6 बार में पास करने वाले पुनदेव के लिए उस की उम्र कुछ मानों में वरदान साबित हुई. कक्षा में पढ़ने वाले कम उम्र के छात्र स्वत: ही उसे अपना बौस मानने लगे. जी खोल कर खर्च करने के लिए उस के पास पैसों की कमी नहीं थी. लिहाजा, कालिज में उस के चमचों की संख्या भी तेजी से बढ़ी. अपने उन साथियों को वह मोटरसाइकिल पर बैठा कर सिनेमा ले जाता, रेस्तरां में उम्दा किस्म का खाना खिलाता. प्रथम वर्ष के पुनदेव के कालिज पहुंचने पर जैसी गहमागहमी होती, वैसी प्राचार्य के आने पर भी नहीं होती.

तिमाही परीक्षा के कुछ रोज पहले पुनदेव ने मुझे बुलाया और बडे़ प्यार से गले लगाता हुआ बोला, ‘यार, तुम तो अपने ही हो, पर परायों की तरह अलगअलग रहते हो. इतना बड़ा मकान है साथ ही रहा करो न. कुछ मेरी भी मदद हो जाएगी पढ़ाईलिखाई में.’

मैं ने कहा, ‘नहीं भाई, मेरे लिए छात्रावास ही ठीक है. तुम नाहक ही इस झमेले में पड़े हो. कालिज की पढ़ाई हंसीठट्ठा नहीं है, कैसे पार लगाओगे?’

पुनदेव ने हंस कर एक धौल मेरी पीठ पर जमाया और कहा, ‘‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा.’’

मैं ने कहा, ‘नहीं भाई, पैसा सब कुछ नहीं है.’

पुनदेव ने एक अर्थपूर्ण मुसकराहट बिखेरी. कुछ देर और इधरउधर की बातें कर के मैं वापस आ गया.

छात्रावास के संरक्षक प्रो. श्याम ने जब मुझे यह सूचना दी कि दर्शन शास्त्र विभागाध्यक्ष प्रो. मनोहर अपनी खूबसूरत, कोमल, सुशील कन्या की शादी पुनदेव से करने जा रहे हैं तो वाकई मुझे दुख हुआ. केवल दुख ही नहीं, क्रोध, घृणा और लज्जा की मिलीजुली अनुभूतियां हुईं. सारा कालिज जानता था कि पुनदेव ‘गजेटियर मैट्रिक’ है. संधि और समास भी कोई उस से पूछ ले तो क्या मजाल वह एक वाक्य बता दे. उस के पास जितने सूट थे, उतने वाक्यों का वह अंगरेजी में अनुवाद भी नहीं जानता था. वैसे उस से अपनी बेटी की शादी कर के प्रो. मनोहर दर्शनशास्त्र के किस सूत्र की व्याख्या कर रहे थे? क्या गुण देखा था उन्होंने? जी चाहा घृणा से थूक दूं उन के नाम पर, जो अपने को ज्ञानी कहते थे, पर उल्लू से हंसिनी की शादी रचाने जा रहे थे.

‘तुम क्या सोचने लगे?’ जब प्रोफेसर श्याम का यह वाक्य कानों में पड़ा तो मेरी तंद्रा भंग हुई.

मैं ने कहा, ‘कुछ नहीं, सर.’

वह हंस कर बोले, ‘‘मैं सब समझता हूं, तुम क्या सोच रहे हो? मैं ने ही नहीं, बहुत प्रोफेसरों ने मना किया, पर मनोहरजी का कहना है, ‘लड़के के पास सबकुछ है, विद्या के सिवा और विद्या केसिवा मेरे पास कुछ नहीं है. सबकुछ का ‘कुछ’ के साथ संयोग सस्ता, सुंदर और टिकाऊ होगा.’ अब तुम बताओ, हम लोग इस में क्या कर सकते हैं…उन की बेटी उन की मरजी.’’

शादी बड़ी धूमधाम से हुई. रामयश हाथ जोड़े, सिर झुकाए प्रो. मनोहर के सामने खड़े थे. विदाई के समय आमतौर पर जैसे कन्या पक्ष विनम्रता और सज्जनता में लिपटा अश्रुपूरित नेत्रों से देखता है, वैसे उस विवाह में वर पक्ष खड़ा था. खड़ा भी क्यों नहीं रहता, जिस घर में किसी ने इस से पूर्व हाईस्कूल नहीं देखा था, यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर उस घर का समधी हो गया था. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता में ‘हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झांसी में…’ पढ़ा था. पर विद्या की मूर्खता के साथ शादी पहली बार देख रहा था. प्रो. मनोहर की पत्नी ससुराल से आए बेटी के गहने, कपड़े देखदेख कर मारे हर्ष के पागल सी हो गई थीं.

विवाहोपरांत रामयश ने एक बंगलानुमा मकान खरीद लिया था. पुनदेव अब नए मकान में सपत्नीक रहता था, एकदो और नौकरचाकरों को ले कर. छात्र जीवन का गृहस्थाश्रम के साथ इतना सुंदर समन्वय अन्यत्र कहां देखने को मिलता.

एक रोज प्रो. श्याम की पत्नी को ले कर प्रो. मनोहर की धर्मपत्नी अपने जामाता के घर गईं. बेटी का वैभव देख कर इतनी प्रसन्न हुईं कि बोल पड़ीं, ‘सारी जिंदगी प्रोफेसरी की, पर ऐसा गहनाकपड़ा, इतने नौकरचाकर हम ने सपने में भी नहीं देखे, बड़ा अच्छा रिश्ता खोजा है, नीलम के बाबूजी ने नीलम के लिए.’

छात्रावास में प्रो. श्याम की पत्नी के माध्यम से यह बात सभी लड़कों के लिए एक चुटकुला बन गई थी.

परीक्षा के दिन निकट आते गए. सभी लड़के अपनेअपने कमरों में सिमटते गए, किताबों और प्रश्नोत्तरों की दुनिया में दीनदुनिया से बेखबर, पर पुनदेव की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया. वह  वैसे ही मस्त था, पान की गिलौरियों और  ठंडाई के गिलासों में. हां, प्रोफेसर का जामाता बनने के बाद उस में एक तबदीली हुई थी.

अब वह उपन्यासों का रसिया हो गया था. मोटरसाइकिल की डिकी हो या तकिया, दोचार उपन्यास जरूर रखे होते. इस शौक के बारे में वह कहता, ‘मेरे ससुरजी कहते हैं कि इस से लिखने की क्षमता बढ़ती है, भाषा सुधरती है और परीक्षा में कम से कम, लिखना तो मुझे ही होगा.’

परीक्षा कक्ष में पुनदेव को देख कर लगा कि शायद वह बीमार हो, इसलिए अनुपस्थित है. पर उस के एक खास चमचे ने परचा खत्म होने पर कहा, ‘यार, पहुंच हो तो पुनदेव की तरह. विभागाध्यक्ष का दामाद है, पलंग पर बैठ कर परीक्षा दे रहा है. नए व्याख्याता उस के लिए प्रश्नोत्तर ले कर बैठते हैं. वह उन्हें अपनी कापी पर केवल उतार देता है. बेशक लोगों की नजरों में बीमार है पर असल में मजे लूट रहा है.’

मैं भौचक्का था इस जानकारी से.

परीक्षा खत्म होने पर सभी इधरउधर चले गए, पर पुनदेव अपने ससुर के साथ पर्यटन करता रहा. यह तो बाद में अन्य प्रोफेसरों से पता चला कि उस की कापियां जिन लोगों के पास गई थीं, वह उन सब की चरण रज लेने और बच्चों के लिए मिठाई देने निक ला था.

परीक्षाफल निकला. मुझे अपने प्रथम श्रेणी में आने की खुशी नहीं हुई, जब मैं ने देखा कि प्रथम श्रेणी में द्वितीय स्थान पुनदेव का था.

उस समय स्नातक और आनर्स की पढ़ाई साथसाथ ही होती थी. हम ने भी स्नातक आनर्स में दाखिला ले लिया और जिंदगी की गाड़ी पहले की तरह ही अपनी रफ्तार से चलती रही. पुनदेव बी.ए में 2 जुड़वां बेटों का बाप बन कर और भी अकड़ गया था. उस ने दर्शनशास्त्र में दाखिला लिया था. अत: विभागाध्यक्ष के दामाद होने का एक लाभ यह भी मिल रहा था कि बाकी छात्रों को उपस्थिति सशरीर बनवानी पड़ती, जबकि उस का काम कक्षा में आए बिना ही चल जाता.

इसी प्रकार पुनदेव को बी.ए. आनर्स में भी जैसतैसे बड़ेबड़े पापड़ बेल कर बस, प्रथम श्रेणी मिल सकी. इस बार उसे कोई स्थान नहीं मिला था. उस की निर्लज्जता मुझे अब भी याद है, जब उस ने प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पाने वाले हम तीनों विद्यार्थियों से मुबारकबाद देते हुए कहा था, ‘तुम तीनों को मेरा शुक्रगुजार होना चाहिए कि मैं ने परीक्षकों से कहा, ‘सर, मुझे केवल प्रथम श्रेणी चाहिए, कोई विशिष्टता नहीं क्योंकि जो पढ़ाकू दोस्त हैं, उन की छात्रवृत्ति बंद हो गई तो वे मुझ से नाराज हो जाएंगे.’ और तुम लोगों की नाराजगी मुझे कतई गवारा नहीं.’

गुस्सा तो बहुत आया, पर उस से बात कौन बढ़ाता. गुस्सा पी कर हम चुप रह गए.

पुनदेव ने इधर एम.ए. में दाखिला लिया, उधर रामयश को प्रो. मनोहर की कृपा एवं रामयश के पैसों के कारण विधायक का टिकट मिल गया. चुनाव अभियान में पुनदेव और उस केखास किस्म के साथी दिनरात लगे रहते, पोस्टर छपते, परचे लिखे जाते, दूसरी पार्टी वालों के बैनर रातोंरात नोच दिए जाते, दीवारों पर लिखे चुनाव प्रचार पर कालिख पोत दी जाती. सक्रिय विरोधियों को पिटवा दिया जाता. उन की चुनाव सभाओं में पुनदेव के फेल होने वाले दोस्त हंगामा कर देते. काले झंडे लहराने लगते. ईंटरोड़े बरसाने लगते, भीड़ तितरबितर हो जाती.

मेरा खून खौल जाता. जी चाहता अकेले ही मैदान में कूद पडं़ ू और उस की सारी कलई खोल कर रख दूं, पर मेरे मांबाप ऐसे कामों के विरोधी थे. उन्होंने जबरदस्ती मुझे वापस शहर भेज दिया और कहा, ‘तुम क्या कर लोगे अकेले? वह किसी से वोट मांगता नहीं है. साफ कहता है, ‘आप लोग बूथ पर आने का कष्ट न करें, सारे वोट शांतिपूर्वक खुद ब खुद गिर जाएंगे. आप लोगों के वहां जाने से, जाने क्या हुड़दंग हो जाए. फिर आप लोग यह न कहना कि तुम ने हमें सचेत नहीं किया.’ बेटे, इस जंगलराज में राजनीति को दूर से सलाम करो और अपना काम करो.’

एम.ए. तक आतेआते मुझ में परिपक्वता आ गई थी. मैं सोचता, ‘पुनदेव क्या करेगा ऐसी नकली डिगरी हासिल कर के. वह न बोल सकता है, न तर्क कर सकता है. बात की तह तक जाने की उस की सामर्थ्य ही नहीं है. केवल हल्ला कर सकता है, मारपीट कर सकता है.’

मुझे कभीकभी उस पर दया भी आती, ‘बेचारा पुनदेव, चोरी कर के, चापलूसी कर के पास तो हो गया, पर साक्षात्कार में क्या होगा. खेतीबाड़ी या व्यवसाय ही करना था तो इतने वर्ष स्कूलकालिज में व्यर्थ ही गंवा दिए.’ फिर मन में बैठा चोर फुसफुसाता, ‘उस का बाप विधायक है. उस के लिए हजारों रास्ते हैं, तुम अपनी फिक्र करो.’

अंतिम परचा देने के बाद मैं मोती झील पर अपने दोस्तों के साथ टहल रहा था. प्रो. श्याम थोड़ी देर पूर्व मिले थे और मेरी तथा मेरे अन्य 2 मित्रों की तारीफों के पुल बांध कर अभीअभी विदा हुए थे.

जाने किधर से कार लिए हुए पुनदेव आ गया और बड़ी गर्मजोशी से मिला. इधरउधर की बातें होती रहीं. पुनदेव की परेशानी यह थी कि इस बार कुलपति आई.ए.एस. पदाधिकारी आ गए थे और उन्होंने परीक्षा में ‘जंगलराज’ नहीं चलने दिया था. पुनदेव ने उन पर हर तरह का दबाव डलवा कर देख लिया था. भय दिखा कर, लोभ दे कर भी आजमा लिया था, पर वह टस से मस नहीं हुए थे. प्रो. मनोहर क्या करते, जब कुलपति खुद ही 2-3 बार परीक्षा हाल का चक्कर लगा जाते थे.

जब अपनी सारी परेशानी पुनदेव बयान कर चुका तो जाने क्यों मेरे मन को तसल्ली सी हुई.

‘चलो, कहीं तो तुम्हारा ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा’ वाला फार्मूला गलत हुआ.’ मैं ने भड़ास निकालते हुए कहा, ‘आगे क्या इरादा है, क्योंकि जैसा तुम बतला रहे हो, उस हिसाब से तुम पास नहीं हो सकोगे. पास हो भी गए तो प्राध्यापक तो बन नहीं पाओगे.’

पुनदेव ने अपनी आंखों में लाखों वाट के बल्ब की रोशनी भर कर एक हथेली से दूसरी को जकड़ते हुए पुन: वही राग अलापा, ‘दरबे से सरबा जे चहबे से करबा.’ तुम देखते रहे हो, मैं एक बार फिर साबित कर दूंगा कि बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपय्या.’

जाने कैसे पुनदेव की खींचखांच कर दूसरी श्रेणी आ गई. मुझे अपनी नौकरी के सिलसिले में इस शहर में आना पड़ा. बरसों बाद एक सहपाठी मोहन मिला तो उस ने बतलाया, ‘मनोहरजी की सलाह पर रामयश ने शहर में एक कालिज खोल दिया है. 20-20 हजार

रुपए दान दे कर पुनदेव किस्म के व्याख्याताओं की नियुक्तियां हुई हैं. उसी में पुनदेव भी लग गया है.’

मैं ने मुंह बना कर कहा, ‘ऐसे कालिज का क्या भविष्य है, मोहन?’

पर अब उस कार्ड को देख कर पता चल रहा था कि पुनदेव के पिता के नाम पर खोला गया वह कालिज विश्व- विद्यालय का अंगीभूत कालिज है और पुनदेव की तरह विद्या का दुश्मन विद्यार्थी उस का प्राचार्य है. पता नहीं, कैसे यह सब संभव हुआ, मैं नहीं जानता. पर उस का रटारटाया वाक्य रहरह कर मेरे कमरे की दीवारों में गूंजने लगा.

मैं दांत पीसता हुआ चीख उठा, ‘नहीं, पुनदेव, नहीं. तुम्हारा दरबे यानी द्रव्य सब कुछ नहीं है, तुम भूल जाते हो कि भौतिक सुखों के अलावा भी मन का एक जगत है, जहां व्यक्ति खुद को, खुद की कसौैटी पर ही खरा या खोटा साबित करता है. तुम्हारा मन तुम्हें धिक्कारता होगा. तुम ज्ञानपिपासु छात्रों से मुंह चुराते होगे. तुम्हें खुद पता होगा कि जिस जिम्मेदारी की कुरसी पर तुम बैठे हो, उस के काबिल तुम न थे, न हो, न होगे. यह सब संयोग था या…याद रखना अवसर या संयोग प्रकृति केशाश्वत नियम नहीं होते, बल्कि अपवाद होते हैं.’

सहसा मेरे कंधे पर स्पर्श सा हुआ और मैं चेतनावस्था में आ गया.

पत्नी ने चाय की प्याली मेरे सामने मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘क्या अपवाद होता है?’’

मैं ने कार्ड उस के हाथों में देते हुए कहा, ‘‘14 वर्ष बाद गांव के किसी व्यक्ति ने साग्रह बुलाया है. तुम भी चलना. हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी है, तैयारी शुरू कर दो.’’

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