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7 वर्ष पहले की वह रात, जब मैं उस से पहली बार मिली थी, मुझे आज भी याद है. शनिवार का दिन था, रात के 8 बज चुके थे. सोने से पहले मैं कपड़े बदलने जा रही थी, तभी रात के सन्नाटे को चीरती हुई, बाहर की घंटी बजी. पतिदेव बिस्तर में लेट चुके थे. मेरी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देख कर बोले, ‘‘इस समय कौन हो सकता है?‘‘

‘‘क्या पता,‘‘ कहते हुए मेरे चेहरे पर भी प्रश्नचिन्ह उभर आया.

कुछ दुखी, कुछ अनमने से हो कर, वह बिस्तर से उठ कर अपना गाउन लपेट ही रहे थे कि घंटी दोबारा बज उठी. इस बार तो घंटी 3 बार बजी – डिंगडांग, डिंगडांग, डिंगडांग… आगंतुक कुछ ज्यादा ही जल्दी में लगता था.

‘‘अरे, इस समय कौन आ गया? यह भी भला किसी के घर जाने का समय है?‘‘ बड़बड़ाते हुए पति ने दरवाजे की ओर तेजी से कदम बढ़ाए.

दरवाजा खुलने की आवाज के साथ ही मुझे किसी महिला की आवाज सुनाई पड़ी. वह बहुत जल्दीजल्दी कुछ कह रही थी, और ऐसा लग रहा था कि मेरे पति उस से कदाचित सहमत नहीं हो रहे थे. यह आवाज तो हमारे किसी परिचित की नहीं लगती, सोचते हुए मैं ने कमरे के बाहर झांका.

‘‘हैलो, आप रंजना हैं ना? मैं दीप्ति, दीप्ति जोशी,‘‘ कहते हुए वह मेरी ओर आ गई और अपना दाहिना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया. हाथ पकडे़पकड़े ही वह लगातार बोलती चली गई, ‘‘मैं आप की कालोनी में ही रहती हूं, उधर 251 नंबर में. बहुत दिन से आप लोगों से मिलने की इच्छा थी, मौका ही नहीं मिल रहा था. आज मैं ने सोचा, बस अब और नहीं, आज तो मिलना ही है.‘‘

‘‘आइए ना,‘‘ कुछ बुझे मन से मैं ने बोला. मैं थकी हुई थी और उस समय अतिथि सत्कार के मूड में तो बिलकुल नहीं थी.

‘‘नहींनहीं, यहां नहीं. चलिए, हम लोग कौफी पीने ताज में चल रहे हैं. ‘‘

‘‘ताज में…? इस वक्त…? कल चलें तो…?‘‘

‘‘अरे नहीं, कल किस ने देखा है? हम आज ही चलेंगे. बहुत मजा आएगा. कौफी शौप तो खुली ही होगी.‘‘

इस से पहले कि मैं कुछ और कह पाती, दीप्ति जल्दी से दरवाजे की ओर मुड़ गई और जातेजाते एक सांस में बोल गई, ‘‘जल्दी से आप दोनों बाहर आ जाओ. कपड़े बदलने की जरूरत नहीं है. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप ने क्या पहना हुआ है. मेरी कार बाहर सड़क के बीचोंबीच खड़ी है. इस से पहले कि लोग हौर्न मारना शुरू कर दें, मैं चली. कार में आप का इंतजार कर रही हूं.‘‘

मैं और मेरे पति एकदूसरे को देखते रह गए और दीप्ति सटाक से घर के बाहर थी. अब हमारे पास और कोई चारा तो था नहीं, हम दोनों ने जल्दी से जींस और शर्ट पहने और दीप्ति की कार में पहुंच गए.

तो यह थी दीप्ति, जीवन से भरपूर, कोई दिखावेबाजी नहीं, जो दिल में वही जबान पर. हालांकि मैं ने उसे कालोनी में आतेजाते कई बार देखा था, परंतु आमनेसामने आज मैं उस से पहली बार मिल रही थी. पर मुझे लग रहा था कि जैसे मैं उसे सदियों से जानती हूं. लंबी कदकाठी, छरहरा बदन, दोनों गालों में डिंपल, जो मुसकराते समय और भी गहरे हो जाते थे. कंधे के नीचे तक झूलते उस के बाल, जो उस के लंबे चेहरे को मानो फ्रेम की भांति सजा देते थे. इन सब के ऊपर उस की बड़ीबड़ी काली आंखें जो बिन बोले ही कितना कुछ बोल जाती थीं. पर आंखों को बोलने का मौका तो तब मिलता, जब दीप्ति कभी बोलना बंद करती. कुलमिला कर कहें तो एक बेहद खुशमिजाज और जिंदादिल लड़की.

मुझे और दीप्ति को दोस्ती करने में बिलकुल समय न लगा. हम दोनों ही देहरादून के रहने वाले थे और दोनों ही पब्लिक सैक्टर की बैंकों में नौकरी करते थे. पहले साधारण कैपुचिनो के बाद आयरिश कौफी और फिर कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम, गप्पें मारतेमारते कब रात के 3 बज गए, पता ही नहीं चला. बातों ही बातों में उस ने बताया कि उस का एक बौयफ्रैंड भी है दीपक, जो इस समय एमबीए करने अमेरिका गया हुआ है, एक साल बाद लौटेगा. हालांकि उस के मातापिता इस विवाह के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि दीप्ति का रंग सांवला है, पर दीपक ने अपना मन पक्का कर लिया है कि वह शादी करेगा तो उसी से, नहीं तो किसी से नहीं.

उस रात जो हमारे बीच मित्रता का एक अटूट बंधन बन गया, दिनोंदिन प्रगाढ़ होता चला गया. लगता था, जैसे पिछले जन्म का कोई नाता था. हम रोज शाम को इकट्ठा घूमते, शौपिंग करते और फिल्में देखने भी साथ जाते. कुछ ही महीनों में दीप्ति एक प्रकार से परिवार की तीसरी सदस्य बन गई थी.

दीप्ति के व्यक्तित्व में दिखावेबाजी का नामोनिशान भी न था. दोटूक बातें और कोई लगावछिपाव नहीं. एक रविवार के दिन सुबहसुबह बाहर की घंटी बजी… वही जल्दीबाजी, जो अब तक दीप्ति की पहचान बन चुकी थी. दरवाजा खोला तो निश्चय ही दीप्ति थी. ना हाय, ना हैलो. ना दुआ, ना सलाम. बस सीधे वह मेरे किचन में थी. इस से पहले कि मैं कुछ समझ सकूं, उस ने ड्रौअर खोला और सारे चम्मच और कांटे उठा लिए.

‘‘मेरे घर में कुछ लोग लंच पर आ रहे हैं और मेरे पास चम्मच कम हैं. तुम लोग आज हाथ से खा लेना. चलो, अच्छा 2 चम्मच रख लो. बाकी सब शाम को लौटा दूंगी.‘‘

भागतेभागते उस ने पीछे मुड़ कर देखा, ‘‘अच्छा, फिर शाम को मिलते हैं. मैं बचा हुआ खाना ले आऊंगी, इकट्ठा खाएंगे.‘‘

मैं मुसकरा दी. दीप्ति मुझ से कुछ साल छोटी थी और मुझे उस पर छोटी बहन जैसा ही प्यार आता था.

शाम हुई और फिर रात हो गई, मैं ने डिनर में कुछ नहीं बनाया. दीप्ति का इंतजार कर रही थी. अपने वादे के अनुसार वह मेरे चम्मच और कांटे ले कर वापस आ गई और आते ही बोली, ‘‘कुछ खाना नहीं बचा. मेरे मेहमान सब खा गए. तेरे फ्रिज में कुछ पड़ा है क्या? निकाल ले. मैं तब तक खिचड़ी बनाती हूं.‘‘

ऐसे ही महीने निकल गए. उस की सुहबत में पता नहीं समय कहां उड़ जाता था. फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ, जिस की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मैं गेट के बाहर खड़ी थी और दीप्ति दफ्तर से वापस आ रही थी. दूर से देखा तो मन में एक खटका सा हुआ. उस की चाल कुछ ठीक नहीं लग रही थी. वह पास आई, तो मैं ने पूछा, ‘‘कैसे चल रही है टेढ़ीमेढ़ी? क्या हुआ? सब ठीक तो है न?‘‘

यह सुन कर वह हंस पड़ी और उस के गालों के डिंपल और गहरे हो गए, ‘‘अरे, कुछ नहीं, कुछ दिनों से मैं सीधे नहीं चल पा रही हूं. मेरा डाक्टर कह रहा था कि कमजोरी होगी, कुछ विटामिन खा लो, पर मुझे लगता है कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. कल किसी स्पैशलिस्ट को दिखाने की सोच रही हूं. अभी तो देर हो रही है, चलती हूं,‘‘ कह कर वह कुछ झूमती हुई, कुछ लड़खड़ाती हुई अपने फ्लैट की ओर चल पड़ी.

3 दिन बाद उस का फोन आया, ‘‘रंजना, अरे यार, मैं अस्पताल में पहुंच गई हूं. सबकुछ इतनी जल्दी में हुआ कि मैं तुझे बता भी नहीं पाई.‘‘

‘‘क्या…? अस्पताल में…? कौन से अस्पताल में? क्या हुआ…?‘‘

‘‘कुछ ज्यादा नहीं. मेरे दिमाग में कोई कीड़ा है, यह तो मुझे हमेशा से ही पता था, पर अब न्यूरोलौजिस्ट को एक ट्यूमर भी मिल गया है. शायद कीड़े का घर होगा,‘‘ कह कर वह जोर से हंस पड़ी.

‘‘साफसाफ बता. पहेलियां मत बुझा,‘‘ मैं ने फटकार लगाई.

“डाक्टर ने कहा है, तुरंत आपरेशन करना चाहिए. मैं ने कहा ठीक है, जैसी आप की मरजी. मम्मी को देहरादून से बुला लिया है. कल आपरेशन है. तू आएगी न मुझे अस्पताल में मिलने?‘‘ मैं सकते में आ गई और कुछ बोल भी न सकी.

इतने बड़े और सीरियस आपरेशन की पूर्व संध्या को कोई इतना चिंतामुक्त कैसे हो सकता है?

मैं उस की मम्मी से मिलने और दीप्ति का हाल जानने रोज अस्पताल जाती रही.

5 दिन बाद उसे आईसीयू से कमरे में लाया गया. उस के सिर के सारे बाल घुटा दिए गए थे और पूरे सिर पर सफेद पट्टी बंधी हुई थी. शक्ल से कुछ कमजोर लग रही थी, पर उस की मुसकराहट ज्यों की त्यों थी. कितनी बहादुर लड़की है, मेरे दिल में उस के लिए इज्जत और बढ़ गई. पर मुझे लगा कि उस का चेहरा कुछ बदलाबदला सा लग रहा है. ऐसा लगा कि कहीं उस के चेहरे पर लकवा तो नहीं मार गया, पर पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी.

उस ने मेरा दिमाग तुरंत पढ़ लिया, ‘‘क्या देख रही है? मेरा मुंह टेढ़ा लग रहा है ना? वो बदतमीज ट्यूमर मेरे दिमाग की नर्व के चारों ओर लिपटा हुआ था. बेचारे सर्जन ने बहुत कोशिश की, पर हार कर उसे वह नर्व काटनी ही पड़ गई,‘‘ कह कर वह हंस दी, पर उस हंसी के पीछे छिपी मायूसी साफ दिख रही थी.

‘‘डाक्टर का कहना था, गनीमत समझो कि तुम्हारी जान बच गई. शक्ल का क्या है? जो मुझे जानते हैं, मुझ से प्यार करते हैं, वे सब तो खुश ही होंगे कि मैं जिंदा हूं. जो मुझे जानते नहीं, वह कुछ भी सोचें, मुझे क्या फर्क पड़ता है? क्यों ठीक है ना…?‘‘ फिर वही हजार वाट बल्ब वाली मुसकराहट…

जीवन की इतनी बड़ी मार उस ने कैसे हंसतेहंसते झेल ली, देख कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ.

अस्पताल की घंटी बजने लगी, आगंतुकों के घर जाने का समय हो गया था. मैं भी घर लौट आई, पर रास्ते भर सोचती रही कि बेचारी दीप्ति के साथ ऊपर वाले ने कितना अन्याय किया है.

2 दिन बाद जब मैं अस्पताल पहुंची तो देखा, दीप्ति काला चश्मा लगा कर बिस्तर पर लेटी हुई है.

‘‘अरे वाह, क्या स्टाइल है? अंदर कमरे में भी काला चश्मा…?‘‘ मैं ने बिना सोचेसमझे ही बोल दिया, पर उस का उतरा हुआ चेहरा देख कर तुरंत ही मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया. उस ने मुझे गंभीरता से बताया कि लकवे की वजह से उस की पलक झपक नहीं रही है और उस में इनफैक्शन का खतरा है, इसीलिए डाक्टर ने उस की आंख पर टांके लगा दिए हैं. उसी को छिपाने के लिए उसे चश्मा लगाना पड़ रहा है. उस के आपरेशन के बाद उस दिन पहली बार लगा कि वह परेशान है.

मैं ने उसे सांत्वना देने का प्रयास तो किया, ‘‘कोई बात नहीं, कुछ दिन की बात है. जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा,‘‘ पर मेरा अपना दिल उस की यह दशा देख कर डूब रहा था.

अस्पताल से डिस्चार्ज होने के उपरांत वह स्वास्थ्य लाभ के लिए अपने मातापिता के साथ देहरादून चली गई. तकरीबन 2 महीने बाद वह वापस दिल्ली अपने घर आ गई. वही पतलीदुबली और लंबी आत्मविश्वासी लड़की. उस के बाल भी कुछ बढ़ गए थे, हालांकि थे छोटे ही. बस अब एक ही फर्क आ गया था. वह हर समय बड़ा सा काला चश्मा लगा कर रखती थी, जिस से उस की बंद बाईं आंख और विकृत चेहरा किसी को पूरी तरह दिखाई न दे.

एक शाम जब हम दोनों कालोनी में टहल रहे थे, उस ने अपने दिल का दर्द मुझे बता ही दिया, ‘‘रंजना, क्या तुम्हें लगता है कि मेरी ऐसी सूरत देख कर भी दीपक मुझ से वैसे ही प्यार करेगा, जैसे वह पहले करता था? क्या तुम्हें लगता है कि वह अभी भी मुझ से शादी करना चाहेगा?‘‘

मुझे समझ नहीं आया कि मुझे क्या कहना चाहिए? मैं तो दीपक से कभी मिली भी नहीं थी, पर हिम्मत कर के मैं ने कहा, ‘‘अगर वह तुम से सच्चा प्यार करता है तो जरूर शादी करेगा,‘‘ मेरा दिल जानता था कि मैं उसे खुश करने के लिए ही ऐसा कह रही थी.

‘‘पता है रंजना, वह मुझे हजारों टैक्स्ट मैसेज भेज चुका है. और पता नहीं सैकड़ों बार उस के फोन आ चुके हैं, पर मैं उस को कोई जवाब नहीं दे रही हूं.‘‘

मैं ने देखा, वह अपना दुपट्टा उंगली में लपेटे जा रही थी. स्पष्ट था कि वह काफी परेशान थी और किसी उलझन में पड़ी हुई थी.

‘‘हैं…? ऐसा क्यों पागल? तू ने उसे अपनी सर्जरी के बारे में बताया नहीं क्या? उस को तेरी कितनी फिक्र हो रही होगी? बेचारा क्या सोचता होगा?‘‘ मैं ने उसे प्यारभरी फटकार लगाई.

‘‘जानती हूं, जानती हूं. सर्जरी के समय उस के सेमेस्टर एग्जाम होने वाले थे, उसे टैंशन हो जाती तो पढ़ता कैसे? बाद में मैं ने सोचा कि क्या बताऊं. जिन आंखों में डूब जाने की बात वह हमेशा करता था, उन में से एक तो हमेशा के लिए बंद हो गई है. मैं नहीं सोचती कि उसे अब मुझ से शादी करनी चाहिए.‘‘

‘‘पर, उस ने तुम से शादी का वादा किया है. तुम्हें उसे बताना तो चाहिए था. उस का इतना हक तो बनता है न?‘‘

‘‘मुझे पता है रंजना, पर मुझे रिजैक्शन से डर लगता है. अगर उस ने मना कर दिया तो…?‘‘

‘‘पर, जानने का अधिकार तो उसे है न?‘‘ मैं ने फिर वही बात दोहराई.

‘‘लेकिन, मैं यह समझती हूं कि वह एक बिना आंख की लड़की से क्यों शादी करेगा? उसे करनी भी नहीं चाहिए. सारी जिंदगी क्यों खराब करेगा बेचारा? मुझे कोई हक नहीं कि मैं उस की जिंदगी खराब करूं. अभी तो हमारी शादी हुई नहीं है. उसे कोई और मिल जाएगी और मैं उस की जिंदगी से कहीं दूर चली जाऊंगी,‘‘ कहते समय उस का गला रुंध गया था और उस का घर भी आ गया था. बिना कुछ बोले वह घर की ओर मुड़ गई. शाम के अंधेरे में भी उस की आंखों से बहते आंसू मुझ से छिप न सके.

अगले 2-3 सप्ताह तक मैं भी काम में कुछ ज्यादा ही मशगूल रही. बैंक में इंस्पैक्शन चल रहा था. फिर एक दिन अचानक वह मुझे दिखी, टैक्सी में कहीं जा रही थी. उस ने टैक्सी रुकवाई और बैठेबैठे ही बोली, ‘‘रंजना, मेरा ट्रांसफर हो गया है. मैं दिल्ली से बाहर जा रही हूं.‘‘

‘‘क्या…? अचानक…? कहां जा रही है?‘‘

‘‘सब बताऊंगी, पर अभी नहीं. फ्लाइट छूट जाएगी. मैं वहां पहुंच कर तुम्हें फोन करती हूं. बाय…,‘‘ कहते हुए उस ने ड्राइवर को चलने का इशारा किया और टैक्सी चल पड़ी.

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