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कुछ देर तो मैं वहां जड़वत खड़ी टैक्सी को जाते हुए देखती रही, फिर घर की ओर मुड़ गई. यह कैसा फेयरवेल था? सहेली से बिछुड़ने का दुख भी हुआ और गुस्सा भी बहुत आया. मैं वहां खड़ी न होती, तो वह शायद मुझे बता कर भी न जाती. इसी को दोस्ती कहते हैं क्या?

मैं ने उस के फोन का हफ्तों तक इंतजार किया. न कोई फोन आया और न ही कोई मैसेज. मुझे तो ये भी नहीं पता था कि वह गई किस शहर में है. सेलफोन पर फोन किया, तो एक ही जवाब, ‘‘आप जिस फोन से संपर्क करना चाह रहे हैं, वह या तो स्विच्ड औफ है या कवरेज क्षेत्र से बाहर है.‘‘

और कुछ दिन बाद, ‘‘यह नंबर मौजूद नहीं है.‘‘

उस ने अपना फोन नंबर ही बदल लिया था और मुझे फोन करने की जरूरत भी नहीं समझी थी. सेलफोन तो बदला ही, उस ने अपना फेसबुक अकाउंट भी डीएक्टिवेट कर दिया था. उस को भेजी हुई ईमेल भी वापस आ रही थी. मन उस की परेशानी को ले कर पहले ही उदास था, अब मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था कि उस ने मेरी दोस्ती का कैसा भद्दा मजाक उड़ाया था.

इस घटना को कई वर्ष बीत गए. जिंदगी अपनी डगर पर चलती गई. नए रिश्ते बनते गए. नौकरी की बढ़ती हुई जिम्मेदारियां और घर पर बढ़ती उम्र के 2 बच्चों की देखरेख, कुछ सोचने के लिए दो क्षण भी नहीं मिलते थे.

दीप्ति द्वारा दिया गया घाव भी अब संभवतः भर चला था, हालांकि कभीकभी अचानक उस की बहुत याद आती. कहां होगी, कैसी होगी? कौन जाने…?

फिर ऐसे ही एक दिन अचानक दफ्तर में निर्देश मिले. मुझे अहमदाबाद के एक प्रतिष्ठित संस्थान में 3 दिन के ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए जाना था. जाने का मन तो नहीं था, पर प्रोग्राम अच्छा था, सो मना नहीं किया और मैं अहमदाबाद पहुंच गई. वहां अलगअलग संस्थानों और बैंकों से अधिकारी आए हुए थे.

पहले दिन ही जब सब प्रशिक्षणार्थी अपनाअपना परिचय दे रहे थे, मैं एक व्यक्ति का परिचय सुन कर सतर्क हो गई. वह उसी बैंक का था, जिस में दीप्ति काम करती थी. मैं ने तभी सोच लिया कि मौका लगते ही उस से दीप्ति के बारे में पूछूंगी. मौका हाथ तो लगा, परंतु आखिरी दिन.

हम लोग लंच के समय एक ही मेज पर थे और मैं पूछे बगैर न रह सकी, ‘‘क्या आप दीप्ति जोशी को जानते हैं? कई वर्ष पूर्व वह दिल्ली हेड औफिस में थी. पता नहीं, अभी कहां है?‘‘

‘‘हां, हां, उसे तो मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं. दीप्ति मेरी बैचमेट ही तो है. आजकल वह मुंबई की मुख्य शाखा में है. क्या आप जानती हैं उसे?‘‘

‘‘जी हां, कुछ वर्ष पहले वह मिली थी. हमारी कालोनी में रहती थी,‘‘ कहते हुए मैं कुछ हिचकिचा गई.

कैसे कहती कि वह तो मेरी इतनी अच्छी दोस्त थी.

‘‘क्या वह अभी तक कुंआरी है या शादी कर ली?‘‘ मैं ने कुछ झिझकते हुए पूछा.

‘‘ हां, हां, उस की शादी तो लगभग 6-7 साल पहले, मुंबई आते ही हो गई थी. उस का पति एक जानामाना फाइनैंशियल ऐनालिस्ट है. क्या बंदा है… बड़ीबड़ी कंपनियां उस को अपने यहां रखने के लिए जाल डालती रहती हैं. सुना है, उस ने अमेरिका से पढ़ाई की है. वहां भी सब उसे रखना चाहते थे, पर वह इंडिया वापस लौट आया.‘‘

‘‘वाह, क्या बात है,‘‘ मैं ने आश्चर्य जताया.

“हां, तो और क्या… अच्छा, आप को शायद पता नहीं होगा. उन की प्रेमकथा तो बहुत मजेदार है. उस बेचारी को ब्रेन ट्यूमर हो गया था और डाक्टरों ने आपरेशन में कुछ तो लापरवाही दिखाई और उस के चेहरे पर लकवा मार गया. उस वक्त दीपक मतलब उस का होने वाला पति अमेरिका गया हुआ था. वह उसे वादा कर के गया था कि लौट कर उस से शादी करेगा, पर दीप्ति को लगा कि वह उस से इस हालत में शादी कदापि नहीं करेगा. उस ने बस अपनी ट्रांसफर मुंबई कराई और चली आई और साथ ही, हम सब से वादा लिया कि अगर वह उसे ढूंढ़ता हुआ औफिस आता है, तो हम उसे कुछ नहीं बताएंगे,‘‘ वह मजे लेले कर बोलता जा रहा था.

‘‘अच्छा… फिर क्या हुआ?‘‘ मैं कैसे बताती कि कहानी के यहां तक का भाग तो मैं भी जानती हूं.

‘‘वही हुआ, जो दीप्ति ने सोचा था. यूएसए से लौट कर दीपक उसे ढूंढ़ता हुआ हमारे औफिस आ पहुंचा, पर हम ने अपने वादे के अनुसार उसे कुछ नहीं बताया. पर इतने बड़े बैंक में, आप ही बताइए, किसी अफसर की पोस्टिंग भला छिप सकती है क्या? वह बैंक के मानव संसाधन विकास विभाग में गया, फिर कार्मिक विभाग में गया और उस ने उस का पता मालूम कर ही लिया.‘‘

वह कहानी सुनाए जा रहा था और मेज पर बैठे सभी लोग बड़े ध्यान से दीप्ति की प्रेमकथा सुन रहे थे.

‘‘फिर क्या हुआ…? दीपक मुंबई गया क्या?‘‘ मैं बेसब्री से कहानी के खत्म होने का इंतजार कर रही थी.

‘‘हां, गया न… उस ने पहली फ्लाइट पकड़ी और मुंबई चल पड़ा,‘‘ कहानी अब क्लाइमैक्स की ओर तेजी से बढ़ रही थी, परंतु उसी समय प्रशिक्षण संस्थान के डायरैक्टर साहब हमारी मेज पर आ गए और सभी लोग उन से बात करने के लिए उठ खड़े हुए. दीप्ति की प्रेमकथा अधूरी ही छूट गई. लंच के बाद मेरा मन क्लास में बिलकुल न लगा. बारबार दीप्ति का हंसतामुसकराता चेहरा सामने आ जाता. उस से मिलने की इच्छा प्रबल हो रही थी. सोचा कि शाम को उस के बैचमेट से उस का सैलफोन नंबर तो ले ही लूंगी, पर क्लास खत्म होने से पहले ही वह निकल गया. शायद उस की फ्लाइट जल्दी जाने वाली थी.

दिल्ली के लिए मेरी फ्लाइट अगले दिन सुबह थी. मैं रातभर दीप्ति के बारे में सोचती रही. क्या हुआ होगा, कैसे हुआ होगा? काश, मैं उस से कभी मिल पाती.

सुबहसुबह एयरपोर्ट जाते हुए भी मुझे बारबार दीप्ति का खयाल सता रहा था, कैसी होगी, पता नहीं. ये टैलीपैथी थी अथवा महज इत्तिफाक, पर दीप्ति को अचानक सिक्योरिटी लौन में देख कर मैं दंग रह गई. वही पतलाछरहरा बदन, वही कंधों तक झूलते सीधे लंबे बाल, वही कैजुअल सी फेडेड जींस और उस का फेवरिट लालकाले चेक की शर्ट, जिस की बांहें उस ने हमेशा की तरह कोहनी तक मोड़ रखी थीं. और तो और पैरों में भी वही कोल्हापुरी चप्पल. कुछ भी तो नहीं बदला था उस में.

दीप्ति एक नटखट बच्चे के पीछे दौड़ रही थी और वह बच्चा मेरी ओर ही आ रहा था. मैं ने आगे बढ़ कर बच्चे को पकड़ लिया, तो दीप्ति ने भी मेरी ओर नजर उठाई. एक हाथ से बच्चे को पकड़, दूसरा हाथ उस ने मेरे गले में डाल दिया, “रंजना, ओ रंजना, कितने साल बाद मिल रहे हैं यार. कहां चली गई थी तू…?”

‘‘मैं चली गई थी या तू कहीं जा के छिप गई थी? कितने साल बीत गए और तेरा कुछ अतापता ही नहीं है. कहां गायब हो गई थी तू? कैसी है?‘‘

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