महिलाओं के घेरे में थोड़ा दूर उपेक्षित सी बैठी आंसू बहाती शैली को देख कर आज दामिनी के मन में नफरत के नहीं, बल्कि दया और सहानुभूति के भाव उभर कर आए. हालांकि, यह वही चेहरा है जिस ने पहलेपहल उस का परिचय नफरत की अनुभूति से करवाया था. शैली से परिचय होने से पहले तक वह मन के इस भाव से अनजान थी. कोरे मन को तो सिर्फ प्रेम के निश्च्छल भाव का ही एहसास था.
अरे हां. वह यह कैसे भूल सकती है कि शैली ने ही तो जानेअनजाने उसे यह भी महसूस करवाया था कि प्रेम किया नहीं जाता बल्कि हो जाता है. मानव को तो उस की जिंदगी में आना ही था. उसे तो शैली का शुक्रगुजार होना चाहिए. विवाह से पहले तो उसे यही बात गांठ बांध कर सिखाई गई थी कि अपने पति से प्यार करना ही स्त्री का धर्म और कर्म है. फिर चाहे पति के कर्म कुछ भी हों. इसी सीख को साथ बांध कर उस ने ससुराल की दहलीज के भीतर कदम रखा था.
महिलाओं की भीड़ में से जगह बनाती दामिनी शैली के निकट जा पहुंची. उस ने शैली को सांत्वना देने के लिए उस के कंधे पर हाथ रखा. देखते ही एक बार तो शैली की आंखों में आश्चर्य के भाव आए, दूसरे ही पल उस की रुकी रुलाई फूट पड़ी. दामिनी की सास सुमित्रा आंखें फाड़े इस मिलन को देख रही थी. शोक संतिप्त औरतों और सहयोगियों में कानाफूसी शुरू हो गई.
‘भई कलेजा हो तो दामिनी जैसा. सौत को कितने प्यार से गले लगाया है,’ एक स्वर फुसफुसाया.
‘घायल की गति घायल जाने. यह भी तो उसी मंजिल की मुसाफिर है,’ दबीदबी सी सरसराती हुई यह बात दामिनी तक पहुंची. उस ने अपने, शैली के और मानव के सहयोगियों व रिश्ते के झुंड की तरफ देखा, वह कोई तीखा सा जवाब देना चाहती थी लेकिन मौके की नजाकत को देखते हुए चुप्पी साध गई.
घर के आंगन में पति विनय का पार्थिव शरीर पड़ा है. कल एक अनियंत्रित कार ने विनय को कुचल दिया था. अभी कुछ देर पहले ही उस की डैडबौडी को हौस्पिटल से लाया गया है. दामिनी के बेटे सिद्ध का इंतजार हो रहा है. उसे आने में अभी एक घंटा और लगने की संभावना है. कोई आंसू भी बहाए तो आखिर कितनी देर. पुरुष बाहर गलियारे में और महिलाएं घर के बरामदे में बैठी बातचीत में मशगूल हो गईं.
‘विनय के पीएफ और ग्रेच्युएटी का पैसा किसे मिलेगा. दामिनी को या शैली को,’ पुरुषों के बीच चर्चा का विषय था.
‘नियम और हिसाब से तो दामिनी ही इस की हकदार है. वही असल ब्याहता है. यह अलग बात है कि इस रिश्ते को न तो दामिनी मानती है और न ही कभी विनय ने माना,’ बात आगे बढ़ी. कमोबेश यही चर्चा महिलाओं के ग्रुप में भी थी जो दामिनी और शैली के कानों तक भी पहुंच रही थी.
‘हां है, दामिनी विनय की ब्याहता और यह भी सच है कि दामिनी ने अपनी इच्छा से गठबंधन की गांठ खोल दी थी. न, न खोली नहीं थी. बस, उसे ढीला भर किया था. इतना ही कि वे दोनों अपनीअपनी परिधि में स्वेच्छा से विचरण कर सकें. तभी तो सामाजिक व कानूनी दृष्टि से दोनों आज भी पतिपत्नी हैं,’ एक और स्वर गूंजा.
वैसे भी देखा जाए तो गठबंधन एक रस्सी ही तो है जिस के दोनों सिरों से 2 अनजान जनों को बांध दिया जाता है. अब यदि दोनों के चलने की दिशा एक ही हो तो ठीक है वरना वह रस्सी दोनों के ही गले का फंदा बन जाती है. अलगअलग दिशा में चलने पर यह बंधन गरदन पर घाव देने के अलावा कुछ नहीं करता. इस रस्सी की ऐसी ही रगड़न दामिनी ने अपने गले पर ससुराल में अपने पहले ही दिन महसूस की थी.
सालों पहले ससुराल की चौखट पर द्वार रुकाई. रिश्ते की ननदों का नेग मांगना. चुहल और शरारत से भरी अल्हड़ हंसी के बीच दामिनी को उस के कमरे में पहुंचाना. सबकुछ दामिनी की आंखों के सामने से गुजरने लगा. तभी अचानक इस तसवीर में शैली का आना मानो खाने में किरकिरी. सबकुछ बेस्वाद सा हो गया था.
दामिनी आज भी उस रात को कहां भूल सकी है जब उस के अरमानों के फूल खिलने से पहले ही मसल दिए गए थे. शादी की वह पहली रात जब वह आंखों की गुस्ताखियों को पलकों के पीछे, चेहरे की लाज को चुनरी की झीनी परत से और खुद से बेवफाई कर विनय के जाते हुए दिल की बेकाबू धकधक को छिपाने की नाकाम कोशिश करती हुई विनय की राह देख रही थी.
कमरे में फुल एसी चलने के बावजूद पसीनेपसीने हो रही दामिनी खिड़की के रास्ते कमरे में झांकते सितारों से गुफ्तगू करने लगी. तभी उसे छत के दूसरे कोने पर 2 मानव आकृतियां दिखाई दीं. एक पुरुष और एक स्त्री को आपस में उल झते देख कर उसे जिज्ञासा तो हुई लेकिन अनजान घर में पहले दिन की ि झ झक ने उसे ताका झांकी करने से रोक दिया. उस ने सितारों की तरफ से अपनी आंखें हटा लीं और अपने कान उस जोड़े की बातचीत पर लगाने की कोशिश की.
‘सम झने की कोशिश करो शैली. मैं ऐसा नहीं कर सकता. समाज की निगाहों में वह मेरी पत्नी है. किस आधार पर उसे छोड़ने का दावा करूं. फिर मैं तो तुम्हारा ही हूं न. भरोसा करो मु झ पर,’ पुरुष स्वर फुसफुसाया.
‘अरे, यह तो विनय की आवाज लग रही है. लेकिन साथ में यह शैली क्या बला है. क्या यह बातचीत मेरे संदर्भ में हो रही है? क्या विनय ने यह शादी केवल दिखावे के लिए की है?’ दामिनी के मन में विचारों का झं झावात उठा. भारीभरकम शादी का जोड़ा. ऊपर से इतने जेवर. इन सब से भी अधिक कष्टदायी वह वार्त्तालाप. दामिनी चक्कर खा कर गिर पड़ी. सुबह होश में आई तो विनय को सोफे पर सोता पाया.
‘क्या था जो रात में घटित हुआ था. कोई सपना या फिर हकीकत.’ दामिनी हड़बड़ा कर अपने कपड़े ठीक करती हुई उठ बैठी. तभी दरवाजे पर खटखट हुई. दामिनी ने दरवाजा खोला. सामने चचेरी ननद विभा चाय के 2 कप लिए खड़ी थी.
‘कैसी हो भाभी. रात ठीक से नींद आई न?’ विभा ने पूछा. दामिनी केवल मुसकरा दी. उन की बातचीत सुन कर विनय भी उठ गया. उस ने एक कप उठाया और कमरे से बाहर निकल गया. अब विभा और दामिनी ही थीं.
‘दीदी, यह शैली का क्या किस्सा है. कल रात विनय से झगड़ रही थी,’ दामिनी ने अपने मन में फंसे कांटे को निकालने की कोशिश की.
‘कुछ नहीं, भाभी. शैली जरा नकचढ़ी टाइप की लड़की है. सुमित्रा चाची की सहेली की बेटी शैली के मांपापा एक ऐक्सिडैंट में खत्म हो गए थे. उन दोनों ने अपने घरवालों की मरजी के खिलाफ यह शादी की थी जिस में चाची ने उन की बहुत मदद की थी. उन की मृत्यु के बाद चाची शैली को अपने साथ ले आई. विनय और शैली बचपन के साथसाथ खेलेबढ़े हैं न, इसलिए वह विनय पर अपना पूरा अधिकार सम झती है. नासम झ लड़की है, सम झ जाएगी. तुम फिक्र मत करो.’ विभा ने उसे सम झाने की कोशिश की लेकिन दामिनी की छठी इंद्रिय उसे अनिष्ट का संकेत दे रही थी.
2 दिनों बाद दामिनी अनछुई ही मायके वाले घर आ गई क्योंकि अगले ही महीने उस के मास्टर्स के एग्जाम थे. अब उसे 2 महीने यहीं रहना था. लेकिन 2 महीने के बाद? तब क्या होगा. तब क्या होगा, ससुराल तो जाना ही पड़ेगा. बिना किसी ठोस आधार के वह विनय और शैली को दोषी भी तो नहीं ठहरा सकती न.
‘चलो, जो होगा देखा जाएगा, अभी से बवाल मचाना ठीक नहीं,’ सोचती हुई दामिनी अपनी पढ़ाई में जुट गई.
इन 2 महीनों के दौरान विनय ने उस से कोई खास संपर्क नहीं रखा था. नईनवेली शादी जैसा कोई उत्साह उस की बातचीत में नहीं होता था. बस, एक औपचारिकता थी जिसे वह किसी तरह निभा रहा था.
‘लगता है खुल कर बात करनी पड़ेगी,’ निर्णय ले कर दामिनी फिर से पति के घर आ गई. बात करने पर हालांकि विनय ने शैली से अपना कोई रिश्ता स्वीकार नहीं किया लेकिन दामिनी से उस की दूरी अब भी बरकरार थी. दामिनी ने गौर किया कि शैली का पूरे घर पर नियंत्रण है. सभी बड़े फैसलों में उस की सहमति आवश्यक होती थी. सुमित्रा उसे अपनी बेटी सा ही मानती थी लेकिन दामिनी सम झ गई थी कि वह बेटी नहीं बल्कि बहू बनने का सपना पाल रही थी जो दामिनी के आने से चूरचूर हो गया.
अचानक बाहर गलियारे में हलचल हुई. दामिनी यथार्थ में आ गई. शायद सिद्ध आ गया है. श्मशानगृह जाने की तैयारी होने लगी. एक बार फिर से घर का माहौल गमगीन हो गया. परिजनों के क्रंदन के बीच विनय अपने आखिरी सफर पर निकल गया. दामिनी बिलकुल निर्विकार भाव से बैठी थी. घर की महिलाओं के लाख जोर देने के बावजूद उस ने अपनी चूड़ीबिंदी नहीं उतारी. मंगलसूत्र तो उस ने कभी का उतार कर विनय को थमा दिया था.
हां, उसी दिन जब उस ने विनय का घर छोड़ा था. जब उसे बैंक में पोस्ंिटग मिली थी. बैंक में नौकरी भी उसे कहां इतनी आसानी से मिली थी. उसे याद है वे सब कड़वे दिन. वे कसैली रातें. उसे कहां पता था कि जीवन ने उस के लिए क्याक्या सोच रखा है. वह तो शैली की शादी करवा कर अपनेआप को विजेता महसूस कर रही थी. शैली की शादी करवाना भी कहां आसान रहा था उस के लिए.