देखते ही देखते दीपा की दुनिया बदल गई थी. रजत तो रजत, बच्चे भी मानो अजनबी, अनजान हो चले थे. सुना, पढ़ा था कि इंसान बुढ़ापे में अकेला हो जाता है, स्नेहसिक्त दो बोलों को तरस जाता है, पर यहां तो 40 बसंत, पतझड़ देखते न देखते वृद्धावस्था सी उदासी और एकांतता घिर आई. रजत कार्यालय के कार्यों में व्यस्त, तो बच्चे अपनेआप में मस्त. अकेली पड़ गई दीपा मन को बहलानेफुसलाने का यत्नप्रयत्न करती, ‘पदप्रतिष्ठा के दायित्वों  तले दबे रजत को घोर समयाभाव सही, पर अब भी वह उस से पहले जैसा ही स्नेह रखता है.

‘बच्चे नटखट सही, पर उद्दंड तो नहीं. सभ्य, सुसंस्कृत एवं बुद्धिमान. लेकिन वे अब मुझ से इतना कतराते क्यों हैं? हरदम मुझ से दूर क्यों भागते हैं?’

अकस्मात ही आया यह परिवर्तन दीपा के लिए विस्मयकारी था. उसे सहसा विश्वास ही न होता कि ये वही बच्चे हैं जो ‘मांमां’ करते हर पल उस के आगेपीछे डोलते रहते थे. स्कूल से लौटते ही अपनी नन्हीनन्ही बांहें पसार उस की ओर लपकते थे, कैसा अजब, सुहाना खेल खेलते थे वे, ‘जो पहले मां को छुएगा मां उस की.’ ‘मां मेरी है, मैं ने उसे पहले छुआ.’ ‘नहीं, मां मेरी है मैं ने उसे पहले छुआ.’ होड़ से हुलसते नेह के घेरों में बंधीबंधी दीपा अनुराग से ओतप्रोत हो जाती.

‘अरेअरे, लड़ते क्यों हो, मां तो मैं तुम दोनों की ही हूं न.’

‘नहीं, तुम पहले मेरी हो. मैं ने तुम्हें पहले छुआ था,’ सौरभ ठुनकता.

‘पहले छूने से क्या होता है पागल, मैं बड़ी हूं, मां पहले मेरी ही है,’ रुचि दादी मां की तरह विद्वत्ता जताती.

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