लॉकडाउन के कारण सभी की जानकारी में आई भोपाल की इस सच्ची कहानी में असली दोषी कौन है यह मैं आपको वाकिए के आखिर में बता पाऊँगा तो उसकी अपनी वजहें भी हैं . मिसेज वर्मा कोई 17 साल की अल्हड़ हाई स्कूल की स्टूडेंट नहीं हैं जिसे नादान , दीवानी या बाबली करार देते हुये बात हवा में उड़ा दी जाये . यहाँ सवाल दो गृहस्थियों और तीन ज़िंदगियों का है इसलिए फैसला करना मुझे तो क्या आपको और मामला अगर अदालत में गया तो किसी जज को लेना भी कोई आसान काम नहीं होगा .
जब कोई पेशेवर लिखने बाला किसी घटना को कहानी की शक्ल देता है तो उसके सामने कई चुनौतियाँ होती हैं जिनमें से पहली और अहम यह होती है कि वह इतने संभल कर लिखे कि किसी भी पात्र के साथ ज्यादती न हो इसलिए कभी कभी क्या अक्सर उस पात्र की जगह खुद को रखकर सोचना जरूरी हो जाता है . चूंकि इस कहानी का मुख्य पात्र 45 वर्षीय रोहित है इसलिए बात उसी से शुरू करना बेहतर होगा हालांकि इस प्लेटोनिक और मेच्योर लव स्टोरी की केंद्रीय पात्र 57 वर्षीय श्रीमति वर्मा हैं जिनका जिक्र ऊपर आया है .
श्रीमति वर्मा भोपाल के एक सरकारी विभाग में अफसर हैं लेकिन चूंकि विधवा हैं. इसलिए सभी के लिए उत्सुकता , आकर्षण और दिखावटी सहानुभूति की पात्र रहती हैं . दिखने वे ठीकठाक और फिट हैं लेकिन ठीक वैसे ही रहना उनकी मजबूरी है जैसे कि समाज चाहता है . हालांकि कामकाजी होने के चलते कई वर्जनाओं और बन्दिशों से उन्हें छूट मिली हुई है पर याद रहे इसे आजादी समझने की भूल न की जाए . कार्यस्थल पर और रिश्तेदारी में हर किसी की नजर उन पर रहती है कि कहीं वे विधवा जीवन के उसूल तो नहीं तोड़ रहीं . ऐसे लोगों को मैं सीसीटीवी केमरे के खिताब से नबाजता रहता हूँ जिन्हें दूसरों की ज़िंदगी में तांकझांक अपनी ज़िम्मेदारी लगती है .
उनके पति की मृत्यु कोई दस साल पहले हुई थी लिहाजा वे टूट तो तभी गईं थीं लेकिन जीने का एक खूबसूरत बहाना और मकसद इकलौता बेटा था जिसकी शादी कुछ साल पहले ही उन्होने बड़ी धूमधाम से की थी . उम्मीद थी कि बहू आएगी तो घर में चहल पहल और रौनक लेकर आएगी , कुछ साल बाद किलकारियाँ घर में गूँजेंगी और उन्हें जीने एक नया बहाना और मकसद मिल जाएगा . उम्मीद तो यह भी उन्हें थी कि बहू के आने के बाद उनका अकेलापन भी दूर हो जाएगा जो उन्हें काट खाने को दौड़ता था . कहने को तो बल्कि यूं कहना ज्यादा बेहतर होगा कि कहने को ही उनके पास सब कुछ था , ख़ासी पगार बाली सरकारी नौकरी रचना नगर जैसे पोश इलाके में खुद का घर और जवान होता बेटा , लेकिन जो नहीं था उसकी भरपाई इन चीजों से होना असंभव सी बात थी .
बहरहाल वक्त गुजरता गया और वे एक आस लिए जीती रहीं . यह आस भी जल्द टूट गई , बहू वैसी नहीं निकली जैसी वे उम्मीद कर रहीं थीं . बेटे ने भी शादी के तुरंत बाद रंग दिखाना शुरू कर दिए . यहाँ मेरी नजर में इस बात यानि खटपट के कोई खास माने नहीं क्योंकि ऐसा हर घर में होता है कि बहू आई नहीं कि मनमुटाव शुरू हुआ और जल्द ही चूल्हे भी दो हो जाते हैं . लेकिन जाने क्यों श्रीमति वर्मा से मुझे सहानुभूति इस मामले में हो रही है लेकिन पूरा दोष मैं उनके बेटे और बहू को नहीं दे सकता .
ऊपर से देखने में सब सामान्य दिख रहा था पर श्रीमति वर्मा की मनोदशा हर कोई नहीं समझ सकता जो जो दस साल की अपनी सूनी और बेरंग ज़िंदगी का सिला बेटे बहू से चाह रहीं थीं . कहानी में जो आगे आ रहा है उसका इस मनोदशा से गहरा ताल्लुक है जिसने खासा फसाद 30 अप्रेल को खड़ा कर दिया . इस दिन भी लोग असमंजस में थे कि 3 मई को लॉकडाउन हटेगा या फिर और आगे बढ़ा दिया जाएगा . बात सच भी है कि कोरोना के खतरे को गंभीरता से समझने बाले भी लॉकडाउन से आजिज़ तो आ गए थे . खासतौर से वे लोग जो अकेले हैं लेकिन उनसे भी ज्यादा वे लोग परेशानी और तनाव महसूस रहे थे जो घर में औरों के होते हुये भी तन्हा थे जैसे कि श्रीमति वर्मा .
मुझे जाने क्यों लग रहा है कि कहानी में गैरज़रूरी और ज्यादा सस्पेंस पैदा करने की गरज से मैं उसे लंबा खींचे जा रहा हूँ . मुझे सीधे कह देना चाहिए कि श्रीमति वर्मा अपने सहकर्मी रोहित से प्यार करने लगीं थीं जो उम्र में उनसे दो चार नहीं बल्कि 12 साल छोटा था और काबिले गौर बात यह कि शादीशुदा था . रोहित की पत्नी का नाम मैं सहूलियत के लिए रश्मि रख लेता हूँ . ईमानदारी से कहूँ तो मुझे वाकई नहीं मालूम कि रोहित और रश्मि के बाल बच्चे हैं या नहीं लेकिन इतना जरूर मैं गारंटी से कह सकता हूँ कि शादी के 14 साल बाद भी दोनों में अच्छी ट्यूनिंग थी . ये लोग भी भोपाल के दूसरे पाश इलाके चूनाभट्टी में रहते हैं