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सिनेमाघर से निकल कर अम्लान व मानसी थोड़ी दूर ही गए थे कि मानसी के पड़ोसी शीतल मिल गए. उन्हें देखते ही मानसी ने अभिवादन में हाथ जोड़ दिए. शीतल कुछ विचित्र भाव से मुसकराए.

‘‘कहिए, कैसी हैं, मानसीजी?’’

‘‘ठीक हूं.’’

‘‘कब आ रहे हैं, सुदीप बाबू?’’

‘‘अभी 4 माह शेष हैं.’’

‘‘ओह, लगता है आप अकेली काफी बोर हो रही हैं?’’ शीतल कुछ अजीब से अंदाज में बोले.

न जाने क्यों मानसी को अच्छा न लगा. वह सोचने लगी, ‘पता नहीं क्यों व्यंग्य सा कर रहे थे? सुदीप के सामने तो कभी इस तरह नहीं बोलते थे.’

‘‘क्या हुआ? पड़ोसी की बात का बुरा मान गईं क्या? इतना भी नहीं समझतीं मनु दीदी, जलते हैं. पड़ोसी हैं न, इसलिए तुम्हारी हर गतिविधि पर नजर रखना अपना कर्तव्य समझते हैं,’’ अम्लान मुसकराया.

‘‘भाड़ में जाएं ऐसे पड़ोसी,’’ मानसी तीखे स्वर में बोली.

‘‘चलो, कहीं बैठ कर कुछ खाते हैं, बहुत भूख लगी है,’’ अम्लान ने सामने से जाते आटोरिकशा को रोक लिया.

‘‘नहीं, घर चलो, वहीं कुछ खा लेंगे. रेस्तरां में जाने का मन नहीं है, सिर में दर्द है.’’

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ अम्लान ने आटोचालक से मानसी के घर की ओर चलने को कह दिया. घर पहुंचते ही सिर में बाम लगा कर मानसी ने सैंडविच व पकौड़े बनाए और फिर कौफी तैयार करने लगी.

‘‘लाओ, मैं कुछ मदद करता हूं,’’ तभी अम्लान ने रसोईघर में प्रवेश किया.

‘‘हां, अवश्य, ये प्लेटें खाने की मेज पर रखो और खाना प्रारंभ करो,’’ वह मुसकराई. पर दूसरे ही क्षण न जाने क्या हुआ कि अजीब सी नजरों से देखते हुए अम्लान आगे बढ़ा और उसे अपनी बांहों के घेरे में कस लिया.

‘‘यह क्या तमाशा है, छोड़ो मुझे,’’ मानसी ने स्वयं को मुक्त कराने का यत्न किया पर अम्लान की पकड़ कसती ही जा रही थी. अब मानसी सचमुच घबरा गई. पूरी शक्ति लगा कर अम्लान को धक्का देने के साथ ही उस ने अपने दांत उस के हाथ में गड़ा दिए. अम्लान एक झटके के साथ दूर जा गिरा. मानसी लड़खड़ाती हुई बैठक में जा बैठी. शीघ्र ही स्वयं को संभाल कर अम्लान भी बैठक में आ गया तनिक ऊंचे स्वर में बोला, ‘‘समझती क्या हो, तुम? घर आने का आमंत्रण दे कर इस तरह का व्यवहार?’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो? दीदी कहते हो, राखी बंधवाते हो मुझे से और ऐसा घटिया व्यवहार? अम्लान, मुझे  स्वप्न में भी तुम से ऐसी आशा न थी,’’ मानसी अब भी स्वयं को संभाल नहीं सकी थी.

‘‘हां, दीदी कहता हूं तुम्हें, मुंहबोली बहन हो तुम, क्योंकि किस भारतीय महिला में इतना साहस है कि किसी पुरुष को अपना मित्र कह कर लोगों को उस का परिचय दे सके? भाईबहन बनाने पर ही समाज स्त्रीपुरुष संबंधों को किसी तरह सह लेता है. याद है तुम ने अपने पति सुदीप तथा सभी पड़ोसियों से मेरा परिचय अपना मुंहबोला भाई कह कर करवाया था, मित्र कह कर नहीं,’’ अम्लान अब भी बहुत क्रोधित था.

‘‘मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे दिमाग में मुझे ले कर इतनी ऊलजलूल बातें भरी हैं. तुम ने यह भी नहीं सोचा कि मैं विवाहित हूं, सुदीप की अमानत हूं, जिसे ‘जीजाजी’ कहते तुम्हारी जबान थकती नहीं,’’ मानसी आंसुओं के बीच बोली.

‘‘विवाहिता? सुदीप की अमानत? उस से क्या अंतर पड़ता है? इसी से तो समाज में तुम्हें मनमानी करने की छूट मिल जाती है. मेरे मुंह से अपने रंगरूप की प्रशंसा सुन कर तुम कैसे पुलक हो उठती हो. अपनी प्रशंसा से प्रसन्न हो कर तुम्हारे चेहरे पर आने वाली लाली क्या मेरा भ्रममात्र थी, बोलो?’’

‘‘अम्लान, बहुत हो गया. तुम इसी समय मेरे घर से निकल जाओ. मैं भविष्य में तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती,’’ मानसी स्वयं पर नियंत्रण खो कर चीख उठी. एक क्षण को तो अम्लान भी बौखला गया, ‘‘हूं, बहुत देखी हैं तुम्हारी जैसी सतीसावित्री,’’

वह मुख्यद्वार को जोर से बंद करता हुआ बाहर निकल गया. मानसी को लगा, उस की टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची है कि वह खड़ी हो कर द्वार तक पहुंच कर उसे बंद कर सके. आंखों से अनवरत अश्रुधारा बहने लगी. धुंधलाई अश्रुपूरित आंखों में न जाने कितने चेहरे गड्डमड्ड होते जा रहे थे. मानसी एक छोटे से नगर में पलीबढ़ी थी, जहां लोग अब भी कसबाई मनोवृत्ति रखते थे. वहां विवाहिता या कुंआरी का किसी अन्य पुरुष के साथ घूमनाफिरना उस के चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगा देता था. पर सुदीप से विवाह के पश्चात वह हैदराबाद चली आई थी. उसे भली प्रकार याद है कि प्रारंभ में जब सुदीप का कोई मित्र आता था तो वह दौड़ कर अंदर के कक्ष में चली जाती थी. ‘यह क्या तमाशा है, कोई घर आए तो उस का स्वागत करने के बजाय तुम दौड़ कर भीतर चली जाती हो,’ एक दिन सुदीप क्रोधित स्वर में बोला.

‘वे सब आप के मित्र हैं, आप से मिलने आते हैं. मुझे उन के सामने बैठना अच्छा नहीं लगता,’ मानसी ने नजरें झुका लीं. ‘तुम्हारे कारण मेरे सभी मित्र मेरा उपहास उड़ाते हैं. तुम पढ़ीलिखी हो, गूंगीबहरी भी नहीं हो, फिर क्या कारण है कि इस प्रकार का व्यवहार करती हो?’ सुदीप ऐसे अवसर पर बुरी तरह झुंझला जाता था. पति का सहयोग मिलने के कारण मानसी को अपना कसबाई आवरण उतार फेंकने में अधिक समय न लगा. उस ने चित्रकला में स्नातक की उपाधि ली थी. सो, सुदीप के कहने पर उस ने विज्ञापन के क्षेत्र में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया. प्रशिक्षण समाप्त होने से पहले ही जब मानसी को एक विज्ञापन कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई तो सुदीप भी चकित रह गया. नई नौकरी ने कुछ ही माह में मानसी का कायापलट कर दिया. विवाहोपरांत मानसी का उपहास करने वाला सुदीप अब गर्वपूर्वक पत्नी की उपलब्धियों की चर्चा करता. अम्लान से मानसी की पहली भेंट विज्ञापन कंपनी के कार्यालय में हुई थी. न जाने अम्लान के व्यक्तित्व में कैसा आकर्षण था कि मानसी पहली ही भेंट में औपचारिकता भूल कर उस से घुलमिल गई. पहली बार मानसी को अपने व्यवहार पर आश्चर्य हुआ. मानसी का व्यक्तित्व बेहद अंतर्मुखी था. बचपन में उस के परिवार का वातावरण इतना रूढि़वादी था कि किसी भी परपुरुष से सहज भाव से मित्रता कर पाना उस के लिए संभव ही न था.

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