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पर अम्लान की बात अलग ही थी. सहजता से उस ने मानसी को ‘दीदी’ संबोधन दिया तो वह पुलक उठी. वह परिवार में सब से छोटी थी, दीदी कहने वाला कोई नहीं था. यही नहीं, अम्लान ने शीघ्र ही सुदीप से भी घनिष्ठता स्थापित कर ली. ऐसे में स्वाभाविक ही था कि जब मानसी दीदी थी तो सुदीप जीजा बन गया. धीरेधीरे अम्लान घर का ही सदस्य बन गया. वह घंटों सुदीप व मानसी से बातें करता रहता. अम्लान अकसर डिनर भी उन्हीं के साथ ले लेता. मानसी को उस के आत्मीय व्यवहार में कहीं भी कोई खोट कभी नजर न आई थी. वह  दिन आज भी मानसी की स्मृति में ज्यों का त्यों ताजा था, जब सुदीप इतराता व पुलकित होता घर लौटा था.

‘क्या हुआ, बहुत प्रसन्न नजर आ रहे हो?’ मानसी अपनी उत्सुकता दबा न सकी थी.

‘सुनोगी तो फड़क उठोगी. लगभग सौ लोगों में से विदेश में प्रशिक्षण के लिए मुझे चुना गया है,’ सुदीप अपनी ही प्रसन्नता में इस प्रकार डूबा था कि मानसी के चेहरे के बदलते रंग की ओर उस का ध्यान ही न गया.

‘कितनी अवधि के लिए जाना होगा?’ मानसी ने डूबते स्वर में प्रश्न किया. ‘1 वर्ष के लिए, क्या बात है, तुम्हें प्रसन्नता नहीं हुई?’ सुदीप ने मानो मानसी के मनोभावों को पढ़ लिया.

‘मैं इतने लंबे समय तक अकेली नहीं रह पाऊंगी,’ मानसी ने अपने मनोभाव प्रकट किए थे.

‘क्या गंवारोें जैसी बातें कर रही हो, अब तुम छोटे से कसबे से आई अबोध मानसी नहीं हो, अब तो तुम आत्मविश्वास से भरपूर आधुनिका हो, जो स्वयं अपने पैरों पर खड़ी है.’

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