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‘‘वाह, यह खूब रही, तुम से दुर्व्यवहार कर के भी अम्लान प्रतिदिन कार्यालय आता है, सब से सामान्य व्यवहार करता है. क्या पता तुम से अपने घनिष्ठ संबंधों की चर्चा वह अपने साथियों से भी करता हो. फिर तुम क्यों मुंह छिपाए घर में पड़ी हो? कल से कार्यालय और घर में सामान्य कामकाज प्रारंभ करो. सुदीप से छिपाने जैसा भी इस में कुछ नहीं है, बल्कि उसे तो गर्व ही होगा कि थोड़े से साहस से काम ले कर तुम एक दुर्घटना से बच गईं,’’ विभा ने मानसी को समझाया. कुछ जलपान कर के व मानसी को समझाबुझा कर विभा चली गई. जातेजाते यह भी कह गई कि उस के होते हुए उसे घबराने या चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. रातभर उधेड़बुन में खोए रहने के बाद मानसी ने निर्णय ले ही लिया कि निर्दोष होते हुए भी भला वह अपराधबोध को क्यों ढोए? उस ने तो अम्लान को केवल भाई समझा था. यदि वह एक भाई की गरिमा को नहीं समझ सका तो इस में उसी का दोष है. कार्यालय पहुंच कर एक क्षण को तो उसे ऐसा लगा, मानो सभी की निगाहें उसी पर टिकी हैं. पर शीघ्र ही सबकुछ सामान्य हो गया.

शाम को कार्यालय से छुट्टी होने के बाद वह बस स्टौप पर खड़ी थी कि अम्लान का स्कूटर आ कर रुका, ‘‘आइए मनु दीदी, मैं आप को छोड़ दूं,’’ वह बोला तो मानसी का मन हुआ उस का मुंह नोच ले

‘‘यह संबोधन तुम्हारे मुंह से शोभा नहीं देता. मैं तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहती,’’ मानसी तीखे स्वर में बोली.

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