कमरे के अंदर पापा दर्द से बेचैन हो रहे थे. बुखार था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैं एयरकंडीशनर चला कर कमरे को ठंडा करने की कोशिश कर रही थी और फिर गीली पट्टियों से बुखार को काबू करने की कोशिश में लगी हुई थी. बाहर फिर से मनहूस एंबुलेंस का सायरन बज रहा था. ना जाने कोविड नामक राक्षस किस के घर की खुशियों को लील कर गया है आज?

मेरी निराशा अपने चरम पर थी. इतना हताश, इतना बेबस शायद ही कभी मानव ने महसूस किया होगा. सब
अपने ही तो हैं, जो शहर के विभिन्न कोनों में हैं, पर साथ खड़े होने के लिए कोई तैयार नहीं था.

पापा न जाने तेज बुखार में क्या बड़बड़ा रहे थे? जितना सुनने या समझने की कोशिश करती, उतनी ही मेरी अपनी बेचैनी बढ़ रही थी. बारबार मैं घड़ी को
देख रही थी. किसी तरह से ये काली रात बीत जाए. पर पिछले हफ्ते से ना जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि
मानो इस रात की सुबह नहीं है.

पापा का शरीर भट्टी की तरह तप रहा था और औक्सिलेवेल 90 से नीचे जा रहा था. व्हाट्सएप पर बहुत सारे मैसेज थे, कुछ ज्ञानवर्धक तो कुछ हौसला देने वाले और कुछ बस यों ही. फिर खुद के शरीर को जबरदस्ती उठाया और पापा को एक बिसकुट खिलाया और फिर बुखार कम करने की टेबलेट दी.

मन में तरहतरह के बुरे खयाल आ रहे थे, चाह कर भी विश्वास का दीया नहीं जला पा रही थी. किस पर
भरोसा रखूं, इस मुश्किल घड़ी में? समाचार ना सुन कर भी पता था कि बाहर अस्पताल में घर से भी ज्यादा खतरा है. औक्सीजन क्या इतनी महंगी पड़ सकती है कभी, सोचा नहीं था. न गला खराब होता है और न ही
जुकाम पर कोविड वायरस का अंधकार आप के अंदर के इनसान को धीमीधीमे लील जाता है.

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