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वह सुनीता ही थी पक्का. उस ने एक बार फिर देखा. हालांकि बीच बाजार में किसी महिला को यों घूरघूर कर देखना अशोभनीय लग रहा था. वैसे भी कानपुर का बाजार तो रौनक से भरपूर ही रहता है, दिन से ले कर देर रात तक यहां रौनक बनी रहती है. उस के परिचित भी तो बहुत हैं यहां... कोई देखेगा तो क्या सोचेगा... अभी तो वह नमाज पढ़ कर निकला है और यों बाजार में खड़े हो कर वह एक हिंदू औरत को घूरघूर कर देख रहा है. पर यदि वह देखेगा नहीं तो कैसे पहचान पाएगा कि वह सुनीता ही है. उसे यह पक्का कर लेना जरूरी था कि वह सुनीता है कि नहीं.

उस की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी इसलिए उस ने सारा कुछ अनदेखा करते हुए सुनीता को घूरना शुरू कर दिया था. सुनीता अनजान थी उस के घूरने से. वह बेफिक्र हो कर दुकान से सामान खरीद रही थी.

‘‘देखो, वह मोलभाव कर रही है. पक्का सुनीता ही होगी, वह ही तो ऐसा करती थी. 2 रुपए का सामान भी खरीदो तो उस का भी मोलभाव करती थी, ‘‘2 रुपए में इतना मंहगा... एक रुपए में दो.’’

दुकान वाला उसे अवाक सा देखते हुए बोला, ‘‘ले लो मैडम. जितने पैसे देने हों दे देना और न देना हो तो मत देना...’’

वह दूसरे ग्राहकों को सामान देने लगता है.

‘‘अरे, ऐसे कैसे... कोई फ्री में ले जाएंगे क्या... समझ क्या रखा है मुझे...’’ सुुनीता गुस्से से तुनक कर बोली.

‘‘2 रुपए की चीज में झंझट कर रही होे मैडम... आप तो ऐसे ही ले जाओ...’’ दुकानदार झुंझला पड़ता है.

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