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‘‘रहीम, तुम्हें गाना तो गाना पड़ेगा आज…’’ शकीना की मां ने बोला. रहीम को तो वैसे भी गाने का बहुत शौक था, इसलिए शुरू हो गया,

‘‘चांद को क्या मालूम उसे देखे कोई चकोर… वो बेचारा…’’ मेरी नजरें सुनीता के चेहरे पर ही टिकी थीं. सुनीता अपने नजरें झुकाए चपचाप बैठी थी. हालांकि वह चोरीचोरीे रहीम को देख भी लेती. कई बार दोनों की नजरें आपस में टकरा चुकी थीं. शकीना मेरे भावों को समझ गई थी.

‘‘अब सुनीता गाना गाएगी…’’ शकीना ने उस का हाथ पकड़ा और उसे माइक के सामने ला खड़ा किया. सुनीता को इस की बिलकुल उम्मीद नहीं थी. उस के चेहरे पर लाज के भाव थे.

‘‘मेरा जीवन… कोरा कागज कोरा ही रह गया…’’

किसी को भी इतने सुरीले

गाने की उम्मीद नहीं थी. रहीम भी अवाक सा रह गया.

‘‘अच्छा हुआ शकीना, मेरा गाना पहले हो गया, वरना मैं तो बेसुरा साबित हो जाता…’’

सुनीता कनखियों से रहीम को ही देख रही थी.

‘‘वैसे आप तो मुझ से अच्छा गा लेते हैं…’’ उस की बातों में औपचारिकता नहीं थी.

‘‘चलो, आप को पसंद आया तो मैं धन्य हो गया…’’ रहीम ने नजर भर सुनीता को देखा.

खाना खाते समय हम साथ ही बैठे और सुनीता ने कुछ बात भी की.

सुनीता से संबंध अब बेहतर हो गए थे. वह बगैर झिझके बात कर लेती. हम लोग खाली पीरियड में कालेज ग्रांउड पर बैठे बातें करते रहते. यह दोस्ती बहुत जल्द ही प्यार में बदल गई.

‘‘रहीम, क्या वाकई हम एकदूजे के लिए ही बने हैं…” रहीम का सिर सुनीता की गोद में था और सुनीता उस के बालों को सहला रही थी

‘‘हम मिले तो इस के लिए ही हैं सुनीता…’’ उस के हाथों को जोर से दबाते हुए कहा.

‘‘मुझे छोड़ तो नहीं दोगे…’’ उस की आंखों में आंसू बह निकले थे.

‘‘पागल हो क्या… तुम को लगता है कि यह संभव है…’’

‘‘नहीं… मैं ऐसा होने नहीं दूूंगी… मैं तुम से कभी दूर रह ही नहीं सकती…’’

वह रोने लगी थी जोरजोर से.

हमारा प्रेम लोगों की नजरों में चढ़ चुका था. शकीना तो खुश थी, पर दूसरे साथियों को खटक रहा था. परीक्षा के बाद कालेज की छुट्टियां हो गई थीं. इन्हीं छुट्टियों में सुनीता की शादी भी हो गई. उस ने जो पत्र डाक से डाला था, वह रहीम को उस की शादी के बाद मिला. उस के सामने अंधेरा छा गया.

सुनीता के पिताजी को हम दोनों के रिश्तों के बारे में पता चल गया था और वे किसी भी हालत में इस रिश्ते को अपनाने के लिए तैयार नहीं थे.

‘‘यह संभव नहीं है… हमारा धर्म अलग है और रहीम का अलग,’’ कड़क स्वर में बोल दिया था सुनीता के पिताजी ने.

‘‘पर पापा, धर्म से क्या होता है… जरूरी तो यह है कि हम प्यार करते हैं… मैं ऐसे व्यक्ति के साथ ही तो खुश रह सकती हूं न, जिसे मैं अच्छी तरह जानती हो और जिस पर मुझे भरोसा हो.’’

वैसे तो सुनीता कभी अपने पिता से ऐसे बात नहीं करती थी, पर यहां तो उस के भविष्य का सवाल था तो उस ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रख दी, ‘‘वह कुछ भी हो… मैं ऐसा नहीं कर सकता… मुझे समाज के साथ रहना है, तुम्हारा क्या है, तुम तो शादी कर के चली जाओगी… मुझे तो यहां जीवनभर रहना है… नहीं…’’

‘‘पर पापा, मेरे भविष्य का फैसला मुझे ही लेने दो…”

‘‘नहीं… तुम्हारे भविष्य का फैसला मैं लूंगा… इस के बाद जो तुम्हारी मरजी वैसा कर लेना…’’

सुनीता की एक बात नहीं सुनी गई और उस की शादी करा दी गई. रहीम एक ही सांस में पत्र पढ़ता चला गया. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. उस ने दिल से सुनीता को प्यार किया था और भविष्य के सपने भी बुने थे. वे सारे सपने एक पत्र ने बिखेर दिए थे.

सुनीता से उस की मुलाकात फिर कभी नहीं हो पाई थी. वर्षों बाद आज उसे बाजार में सुनीता दिखाई दी थी और वह उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था. उसे तो यकीन हो गया था कि यह सुनीता ही है, पर बीच बाजार में उस से कैसे बात करूं…?

सुनीता बिलकुल उस के पास से हो कर गुजरी.

‘‘सुनीता…’’ यह सुन कर वह रुक गई. उस ने भौंचक हो कर रहीम की ओर देखा. वह रहीम को बिलकुल भी नहीं पहचान पाई थी.

‘‘हां, बताइए…’’

‘‘मैं रहीम…’’ वह हिचक रहा था अपना परिचय देने में.

‘‘रहीम… ओह… अरे, तुम तो बिलकुल बदल गए हो,’’ उस की आवाज में अपनत्व था.

सुनीता के चेहरे पर पहचाने जाने के भाव उभर आए थे.

‘‘अब तो तुम भी सयाने दिखाई देने लगे हो,’’ सुनीता की चिरपरिचत मुसकान होंठों पर फैल गई थी. उस ने एक बार फिर भरी नजरों से रहीम की ओर देखा. रहीम कुछ लजा सा गया.

‘‘साइड में हो जाओ अम्मां…’’ कहते हुए जिस साइकिल वाले ने आवाज लगाई थी, उस ने एक धक्का सुनीता को मार ही दिया था. रहीम हड़बड़ा गया, सुनीता गिरती इस के पहले उस ने सुनीता को अपनी बांहों में थाम लिया.

‘‘चलो, वहां चाय दुकान पर बैठते हैं,’’ रहीम को अभी भी लोगों की नजरें चुभती हुई दिखाई दे रहीं थीं.

‘‘नहीं, आज नहीं… आज करवाचौथ है… मेरा व्रत है…’’

‘‘फिर…’’ रहीम के चेहरे पर उदासी के भाव आ गए.

‘‘देखो रहीम, मुझे भी तुम से ढेर सारी बातें करनी हैं… पर देखो न, आज मेरे पास समय नहीं है,’’ उदासी भरी आवाज थी उस की भी.

‘‘आप अपना मोबाइल नंबर दे सकती हैं क्या…?’’ उसे संकोच हो रहा था.

‘‘ओह, हां… अब तो हम मोबाइल वाले युग में आ गए हैं. काश, हमारे जमाने में भी मोबाइल होता…’’ उस की उदासी गहरी हो गई. सुनीता ने अपना मोबाइल नंबर दे दिया.

‘‘फोन मैं ही लगांऊगी… पर, कब लगाऊं….?”

‘‘अमूमन, दोपहर में खाली रहता हूं…’’

“पर, कल नहीं परसों फोन करूंगी. ओके… रहीम आज बहुत अच्छा रहा कि तुम से मुलाकात हो गई…” कह कर सुनीता चली गई. रहीम बहुत देर तक उसे देखता रहा.

रहीम घर आ कर अपने कमरे में लेट गया था. वह केवल सुनीता के बारे में ही सोच रहा था. उस ने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उस की मुलाकात सुनीता से हो पाएगी.

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