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‘कहां दर्द है?’ डाक्टर पूछते हैं.

‘छाती में,’ कराहता हुआ युवक बोलता है, ‘मुझे सांस लेने में कठिनाई हो रही है.’

‘नर्स, इसे पेथीडीन का इंजैक्शन लगवा दो,’ डाक्टर आदेश देते हैं.

‘जरा रुकिए, डाक्टर, पहले इस की छाती का एक्सरे करवा लीजिएगा,’ मेरे अंदर का विशेषज्ञ बोल उठता है.

‘ठीक है, अभी एक्सरे के लिए भेज देता हूं, इतने में कोई दर्दनिवारक दवा तो दे ही दूं.’

मेरे अंदर का विशेषज्ञ संतुष्ट नहीं हो पा रहा था. मैं उस दूसरे युवक को देखना चाहता हूं, उस का निरीक्षण कर के उस का निदान करना चाहता हूं. मन ही मन आशंकित हो रहा हूं. कहीं इस की पसली तो नहीं टूट गई है और उस टूटे हुए टुकड़े ने फेफड़े में छेद तो नहीं कर दिया है.

डा. विमल मेरी बात को अनसुना कर देते हैं.

‘‘डाक्टर साहब,’’ कोई मुझे झंझोड़ रहा था, ‘‘क्या किया जाए, यह अर्जुन की मां तो कुछ बोलती ही नहीं. इन के किसी रिश्तेदार को खबर कर दें, कोई यहीं रहता हो तो फोन कर दें, क्या करें? आप ही बताइए. कुछ समझ में नहीं आ रहा, हम क्या करें,’’ मैं फिर वर्तमान में लौटता हूं. मुझे पत्नी की बातें याद आती हैं, ‘अर्जुन की मां का कोईर् नहीं है इस संसार में. पर बड़ी खुद्दार औरत है. किसी के सामने हाथ फैलाना बिलकुल पसंद नहीं करती. मैं कभीकभी ऐसे ही उस की सहायता करना चाहती हूं पर वह कुछ नहीं लेती.’

‘‘इस का तो कोई नहीं है इस संसार में, न पीहर में और न ससुराल में. हमें ही सबकुछ करना है,’’ मुझे डर भी है. मैं स्वगत कहता हूं, ‘दिल्ली जैसे शहर के व्यस्त लोग कहीं अपनेअपने काम का बहाना कर के खिसक न जाएं, फिर मैं अकेला क्या करूंगा?’

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