सगाई के एक महीने बाद ही शादी की डेट थी. शादी की लगभग सारी तैयारियां हो चुकी थीं. लेकिन यहां होनी को कुछ और ही मंजूर था. पूर्णिमा की शादी की ख़रीदारी कर के जब उस के मांबाबू जी वापस घर लौट रहे थे तब एक ट्रक के टक्कर से उन की गाड़ी खाई में जा गिरी, जिस से पूर्णिमा की मां की मौके पर ही मौत हो गई. मगर उस के बाबूजी बच गए थे.
चूंकि शादी की सारी तैयारी हो चुकी थी, इसलिए सब के विचारविमर्श से यह तय हुआ कि पूर्णिमा की शादी हो जानी चाहिए, क्योंकि लड़के वाले शायद न रुकें. और अगर उन्होंने अपने बेटे का रिश्ता कहीं और तय कर लिया, तो फिर क्या करेंगे हम? दिल पर पत्थर रख कर पूर्णिमा के बाबूजी ने कलपते हृदय से बेटी को विदा किया था.
विदाई के समय उस की मां की बनारसी साड़ी पूर्णिमा के हाथों में पकड़ाते हुए बाबू जी बोले थे कि यह उस की मां की आखिरी निशानी है जिसे वह उन का आशीर्वाद समझ कर रख ले. जबजब वह उस साड़ी को पहनेगी, लगेगा उस की मां उस के साथसाथ है. अपनी मां की बनारसी साड़ी सीने से लगाते हुए पूर्णिमा सिसक पड़ी थी.
यह बनारसी साड़ी पूर्णिमा के लिए सब से अजीज थी, क्योंकि इस साड़ी में उस की मां की यादें जो बसी थीं. जब भी वह इस साड़ी को पहनती, उस में से उसे अपनी मां की खुशबू आती थी. आज भी याद है उसे, जब भी उस की मां इस बनारसी साड़ी को पहनती थी, पूर्णिमा झांकझांक कर उसे देखती और कहती, ‘मां, ई तो साड़ी बहुत सुंदर है. हम भी पहनें जरा.’ उस पर उस की मां हंसती हुई कहती कि अभी वह बच्ची है. नहीं संभलेगी उस से इतनी भारी साड़ी. लेकिन जब वह बड़ी हो जाएगी न, तब इस साड़ी को पहन सकती है.