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विदाई के समय उस की मां की बनारसी साड़ी पूर्णिमा के हाथों में पकड़ाते हुए बाबूजी बोले थे कि यह उस की मां की आखिरी निशानी है जिसे वह उन का आशीर्वाद सम?ा कर रख ले. जबजब वह उस साड़ी को पहनेगी, लगेगा उस की मां उस के साथसाथ है. अपनी मां की बनारसी साड़ी सीने से लगाते हुए पूर्णिमा सिसक पड़ी थी.

यह बनारसी साड़ी पूर्णिमा के लिए सब से अजीज थी, क्योंकि इस साड़ी में उस की मां की यादें जो बसी थीं. जब भी वह इस साड़ी को पहनती, उस में से उसे अपनी मां की खुशबू आती थी. आज भी याद है उसे, जब भी उस की मां इस बनारसी साड़ी को पहनती थी, पूर्णिमा ?ांक?ांक कर उसे देखती और कहती, ‘मां, ई तो साड़ी बहुत सुंदर है. हम भी पहनें जरा.’ उस पर उस की मां हंसती हुई कहती कि अभी वह बच्ची है. नहीं संभलेगी उस से इतनी भारी साड़ी. लेकिन जब वह बड़ी हो जाएगी न, तब इस साड़ी को पहन सकती है.

इस बनारसी साड़ी में पूर्णिमा की मां बहुत सुंदर दिखती थी. वह पूर्णिमा को बताया करती थी कि यह बनारसी साड़ी उन की शादी के लिए खास काशी से मंगवाई गई थी. उस बनारसी साड़ी की सब से खास बात यह थी कि उस में सोनेचांदी के बारीक तार से तारकशी की गई थी. उन की शादी के सारे गहने भी बनारस से गढ़वाए गए थे. पूर्णिमा का नानी घर बिहार के भागलपुर जिला में पड़ता था. वहां उस के नाना बहुत बड़े जमींदार थे पहले. लेकिन अब न तो जमींदार रहे और न ही जमींदारी. उन के निकम्मे, नालायक, नकारा बेटों ने पिता की सारी जमीनजायदाद बेचबाच कर शराब-जुए में उड़ा डाला. वह कहते हैं न, ‘पूत सपूत तो क्यों धन संचय- पूत कपूत तो क्यों धन संचय.’ व्यर्थ ही उन्होंने तीनतेरह कर के इतना धन कमाया, सब बेकार ही गया न.

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