आज फिर अलमारी खोलते ही पूर्णिमा की नजर जब बनारसी साड़ी पर पड़ी तो वह उदास हो उठी. साड़ी को हाथ में उठा कर उसे सहलाते हुए वह सोचने लगी कि आज भी इस की सुंदरता में कोई फर्क नहीं पड़ा है और इस का रंग तो आज भी वैसे ही चटक है जैसे सालों पहले था.
याद है उसे, अपने ‘बहू भात’ रिसैप्शन पर जब उस ने यह साड़ी पहनी थी तब जाने कितनों की नजरें इस बनारसी साड़ी पर अटक गई थीं. अटकें भी क्यों न, यह बनारसी साड़ी थी ही इतनी खूबसूरत. केवल खास अवसरों पर ही पूर्णिमा इस बनारसी साड़ी को पहनती और फिर तुरंत उसे ड्रायवाश करवा कर अलमारी में रख दिया करती थी. अपनी शादी की सालगिरह पर भी जब वह इस बनारसी साड़ी को पहनती तो रजत, उस के पति, उसे अपलक देखते रह जाते थे, जैसे वह आज भी कोई नईनवेली दुलहन हो. लालहरे रंग की इस बनारसी साड़ी में पूर्णिमा का गोरा रंग और दमक उठता था.
‘‘मम्मा, पापा कब से आप को आवाज दे रहे हैं,’’ पीछे से जब अलीमा बोली तो पूर्णिमा ने वह बनारसी साड़ी ?ाट से अलमारी के एक कोने में लगभग ठूंस दी और कुछ यों ही ढूंढ़ने का नाटक करने लगी. ‘‘आप अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही हो, मम्मा?’’ अलीमा ने पूछा तो पूर्णिमा बोली कि नहीं तो, कुछ भी तो नहीं. लेकिन उसे लगा कि पूर्णिमा हाथ में कुछ पकड़े अपनेआप में बुदबुदा रही थी और जैसे ही उस की आवाज सुनाई पड़ी, ?ाट से उस ने वह चीज अलमारी में रख दी. लेकिन पता नहीं वह ?ाठ क्यों बोल रही है कि अलमारी में कुछ ढूंढ़ रही थी पर मिल नहीं रहा है. ‘‘आप बताओ, मैं ढूंढ़ देती हूं न,’’ अलीमा बोली तो अलमारी बंद कर पूर्णिमा कहने लगी कि नहींनहीं, कुछ खास जरूरी नहीं था. तुम रहने दो. ‘‘ठीक है मम्मा, लेकिन वो पापा आप को बुला रहे हैं, जल्दी आ जाओ.’’
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