कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

निशा ऑफिस के बाद निधि को लेने स्कूल पहुंची. उसे देखते ही दौड़ कर उस के पास आने वाली निधि ठीक से चल भी नहीं पा रही थी.

निशा को देखते ही अटैंडैंट ने दवा देते हुए कहा, ‘‘मैम, आज निधि दर्द की शिकायत कर रही थी. डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने यह दवा दी है. आप इस दवा को दिन में 2 बार तो इस दवा को दिन में 3 बार देना.’’

‘‘मुझे फोन कर दिया होता?’’

‘‘हो सकता है न मिला हो, इसलिए डाक्टर को बुला कर दिखाया हो.’’

‘‘ओके, डाक्टर का परचा?’’

‘‘डाक्टर ने परचा नहीं दिया, सिर्फ यह दवा दी है.’’

निशा ने सोचा शायद इस से परचा कहीं खो गया होगा. अत: झूठ बोल रही है... फिर उस ने मन ही मन स्कूल प्रशासन को धन्यवाद दिया. नाम के अनुरूप काम भी है, सोच कर संतुष्टि की सांस ली. निधि को किस कर गोद में उठा कर कार तक ले गई. निधि कार में बैठते ही सो गई. कैसी भागदौड़ वाली जिंदगी है उस की... वह अपनी बेटी को भी समय नहीं दे पा रही है. स्कूल तो ढाई बजे ही बंद हो जाता है पर घर में किसी के न होने के कारण उसे निधि को स्कूल के क्रैच में ही छोड़ना पड़ता है. कभीकभी लगता है कि एक छोटी सी बच्ची पर कहीं जरूरत से ज्यादा शारीरिक और मानसिक बोझ तो नहीं पड़ रहा है. पर करे भी तो क्या करे? अपनेअपने कार्यक्षेत्र में व्यस्त होने के कारण न तो उस के और न ही दीपक के मातापिता का लगातार उन के साथ रहना संभव है. बस एक ही उपाय है कि वह नौकरी छोड़ दे, पर उसे लगता है कि अगर नौकरी छोड़ देगी तो फिर पता नहीं ऐसी नौकरी मिले या न मिले.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...