कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

एक खूबसूरत रेस्तरां में कैंडल लाइट डिनर के बाद हम सुष्मिता के घर चले आए. सबकुछ एक सुंदर सपना सा लग रहा था, जिस सपने को सुष्मिता जैसी स्वप्नजयी ने साकार कर दिया था. इधरउधर की बातें करतेकरते मुझे झपकी सी आने लगी. सुष्मिता ने कहा, ‘‘हमारे यहां तो एक ही बैडरूम है सर, आप पलंग पर सो जाएं. मैं सोफे पर सो जाती हूं.’’

5 मिनट में कपड़े बदल कर सुष्मिता आ गई. मैं ने कहा, ‘‘सुष्मिता, तुम कितनी सुंदर लग रही हो. जी करता है तुम्हें बांहों में भर लूं.’’ सुष्मिता इस बात से मुसकरा दी. यौवन का एक तेज आवेग मेरे शरीर में भी जाग उठा और हम एकदूसरे की बांहों में खो गए. सुबह मेरी आंखें खुलीं तो सुष्मिता  अभी सो रही थी. एक मीठी सी  मुसकान उस के अधरों पर अठखेलियां कर रही थी मानो किसी सुखद सपनों में खोई हुई हो. सुबह के लगभग 8 बज चुके थे और दिल्ली की झीनी धूप खिड़की के परदों से छन कर आ रही थी. सुष्मिता नींद से जाग उठी थी.

मैं ने पूछा, ‘‘सुष्मिता, आज का तुम्हारा क्या प्रोग्राम है?’’

सुष्मिता ने बड़ी बेपरवाही के से अंदाज में कहा, ‘‘आज संडे है. आज कुतुबमीनार की सैर करेंगे.’’ मैं ने मजाकिया अंदाज में चुटकी ली, ‘‘और कुतुबमीनार पर चढ़ कर हाथों में हाथ लिए कूद कर आत्महत्या कर लेंगे.’’

सुष्मिता ने उसी शोख अल्हड़पन में जवाब दिया, ‘‘आत्महत्या करें हमारे दुश्मन. हम भला क्यों आत्महत्या करेंगे.’’ फिर हम दोनों इस हासपरिहास पर खिलखिला कर हंसते रहे. सुष्मिता ने कहा, ‘‘पहले मैं कुछ नाश्ता तैयार कर लेती हूं. नाश्ता करने के बाद तब निकलेंगे. आप तब तक फ्रैश हो जाइए. मैं बाथरूम की ओर बढ़ गया. बाथरूम भीनीभीनी सुगंध से सराबोर था. मैं ने मन में सोचा, ‘कितनी सुरुचिपूर्ण और कलात्मक हो गई वह नाजुक किशोरी और पूर्णयौवना बन कर और भी मादक हो गई है.’ मेरा भावुक मन इस नवयौवना के इस परिवर्तन के बारे में सबकुछ जान लेने को मचल रहा था. स्वादिष्ठ पकौड़े, आलू के परांठे, टोस्ट, औमलेट का नाश्ता किया. सुष्मिता के हाथों में मानो जादू था. बहुत थोड़े समय में इतना सारा बेहतरीन नाश्ता उस ने तैयार कर लिया था.

फिर सुष्मिता जीन्स और टीशर्ट में सज कर बिलकुल महानगर की आधुनिका बन कर आ गई. सुष्मिता की स्कूटी पर सवार हम लोग कुतुबमीनार की ओर चल पड़े. लगभग आधे घंटे में हम लोग कुतुबमीनार पहुंच गए. दूसरे माले के ऊपर जाने की इजाजत नहीं थी. इसलिए दूसरे माले पर चढ़ कर हम लोग नीचे उतर गए. घर लौटतेलौटते शाम घिर आई. सुष्मिता ने आज अपने हाथ से बनाया डिनर खिलाया. डिनर के बाद हवा के झोंकों का आनंद लेने हम लोग कुरसियां डाल कर बालकनी में बैठ गए. सुष्मिता ने स्वयं ही सबकुछ बताया. पटना के छोटे शहर से दिल्ली के महानगर की यह यात्रा भी उतनी ही रोमांचक थी जितनी सुष्मिता स्वयं थी. पटना विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान विषय में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो कर वहां के एक डिगरी कालेज में व्याख्याता बन गई. फिर दिल्ली के एक डिगरी कालेज में एक स्थान की रिक्ति निकली और वह सफलतापूर्वक चयनित हो कर यहां आ गई.

सुष्मिता से जब मैं ने उस के अध्यवसाय की कथायात्रा को कुछ विस्तार से बताने का आग्रह किया, तो उस ने जो कुछ बताया वह और भी रोमांचक व विस्मयकारी था. बोर्ड की परीक्षा में अपने जिले में प्रथम आने के कारण उसे आगे की पढ़ाई करने के लिए 2-2 वजीफे एकसाथ मिले, एक मेधावी वजीफा तथा दूसरा लोक शिक्षा निदेशक द्वारा प्रदत्त निर्धनतासहमेधावी वजीफा. व्याख्याता होने के बाद के 1-2 वर्षों में उस ने जो कुछ किया वह भी उस के संघर्षशील जीवन की अद्भुत मिसाल थी. प्रश्नोत्तरी के रूप में कालेज के छात्रछात्राओं के लिए सरल हिंदी में किताबें लिखीं. जिन के प्रकाशन से प्रकाशकों ने अच्छे पैसे बनाए, जिन की रौयल्टी के पैसों को मितव्ययिता से खर्च कर सुशी ने अपना आर्थिक आधार मजबूत किया. फ्रायड, एडलर आदि की मुख्य पुस्तकों को छात्रोपयोगी बना कर हिंदी में अनुवाद भी किया. एक पुरानी कहावत है कि प्रकृति भी उसी की सहायता करती है जो अपनी सहायता स्वयं करता है. बिहार के सारण जिले में एक कसबानुमा गांव है – शीतलपट्टी. उसी गांव में उस के पिता की थोड़ी सी पैतृक संपत्ति थी, जिसे उस के चाचा लोगों ने उस के पिता के सीधेपन और अनभिज्ञता का नाजायज फायदा उठा कर हथिया लिया था. सुष्मिता के पिता की मृत्यु हो जाने के बाद शायद उस के चाचा लोगों ने इन बहनों पर कुछ तरस की खातिर और शायद कुछ विवेक जागृत होने की खातिर उस के पिता के हिस्से की जमीन बेच कर तीनों बहनों में बांट देने का निश्चय किया. सुष्मिता की बहनों ने अपने हिस्से का पैसा भी सुष्मिता के नाम कर दिया था. इस प्रकार दिल्ली जैसे महानगर में आ

कर प्रतियोगिता परीक्षाओं में अपनी आजमाइश करने का एक सुदृढ़ आर्थिक आधार इसे मिल चुका था.

‘‘दिल्ली का चयन तुम ने क्यों किया,’’ यह पूछने पर सुष्मिता ने दूसरे रहस्य से परदा उठाया, ‘‘यहां रह कर मैं यूपीएससी की प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रही हूं. इस के लिए यहां की एक सर्वश्रेष्ठ कोचिंग इंस्ट्टियूट में दाखिला ले कर अपनी ड्यूटी के बाद कोचिंग क्लासेस अटैंड करती हूं.’’ सुष्मिता ने एक स्वर में कह कर मेरी उत्सुकता के सभी परदों को एकबारगी ही उठा दिया. मैं इस लड़की की उद्यमिता और प्रगतिशील विचारों का कायल हो चुका था.

सुष्मिता ने मेरी प्रशंसा के जो चंद शब्द कहे, वे चंद शब्द मेरे लिए सर्वथा अप्रत्याशित थे. उस ने कहा, ‘‘आप की कोचिंग ने मुझे मात्र अंगरेजी भाषा पर कमांड की टे्रनिंग ही नहीं दी, बीचबीच में प्रेरणा और प्रोत्साहन के जो शब्द और भारतीय नारियों व बालिकाओं की सच्ची कहानियां जो आप सुनाया करते थे, वे मेरी अब तक की प्रगति के संबल बने.’’ मैं उल्लसित हो उठा था. सुष्मिता ने अपनी कहानी को आगे  बढ़ाते हुए बताया कि उस की  पढ़ाई पूरी भी नहीं हो पाई थी कि उस के पिता का देहांत हो गया था और वह मानो दुनिया में सब से अकेली हो गई थी. अपने उद्यम और परिश्रम से उस ने जो हासिल किया था, वह काबिलेतारीफ तो था ही, प्रेरणादायक भी था.

रात गहरा गई तो सुष्मिता चुपके से छोटे बालक की तरह मेरी बांहों में समा गई. किंतु रात्रि की कालिमा में उस की उज्जवल चांदनी का सा यौवन जब उफान पर आया तो मुझे अपने आगोश में कुछ इस तरह ले लिया मानो उस का संपूर्ण नारीत्व, संपूर्ण यौवन मुझ में खो जाने को आतुर हो उठा हो. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सुष्मिता मुझ में समा चुकी थी और मैं सुष्मिता में. इस तरह 3 दिन कैसे पंख लगा कर बीत गए, उसे न मैं समझ पाया और न सुष्मिता. शाम की गाड़ी से मुझे वापस जाना था. सुष्मिता के चेहरे पर एक उदास मुसकान थी. आज सुष्मिता ने बिना बांहों का टीशर्ट और बरमूडा पहन रखा था. सुष्मिता ने सुबह का नाश्ता तैयार किया. किचन से एक मधुर स्वरलहरी मेरे कानों से टकराई तो मैं स्तंभित रह गया. सुष्मिता की आवाज मानो जानीपहचान थी, किंतु उस में कितनी कोमलता और माधुर्य की चाश्नी मिली हुई थी, वह काबिलेतारीफ थी. सुष्मिता हौलेहौले गा रही थी, ‘‘तुम मिले, दिल खिले और जीने को क्या चाहिए…’’ सुष्मिता ने कहा, ‘‘सर, आज कहीं नहीं चलेंगे. आज यहीं बैठ कर गप्पे लड़ाएंगे.’’

मैं ने हामी भरते हुए कहा, ‘‘सुष्मिता, तुम बारबार ‘सर’ कह कर मुझे शर्मिंदा कर रही हो. तुम मुझे सिर्फ ‘राकेश’ या राकेशजी कह सकती हो. सुष्मिता ने अपने संघर्ष की लंबीयात्रा की ढेर सारी बातें बताईं. सुष्मिता 3 बहनें थीं. एक जयपुर में और एक मुंबई में अपनीअपनी गृहस्थी में मग्न थीं. उन के पति भी समृद्ध और सुरुचिपूर्ण थे. एक बहन के पति बिजनैसमैन और दूसरे के पति एक राष्ट्रीयकृत बैंक में मैनेजर थे. सुष्मिता ने अगले पल कहा, ‘‘मैं आप को कभी अपनी बहनों से मिलवाऊंगी. वे आप से मिल कर काफी प्रसन्न होंगी. आप की ढेर सारी तारीफें मैं ने कर दी हैं.’’ मैं ने भी हामी भर दी. सुष्मिता अपनी बहनों में सब से छोटी थी. मुझे उसी दिन वापस लौटना था. सैमिनार समाप्त हो चुका था. मेरी गाड़ी शाम 7 बजे की थी. शाम को नई दिल्ली स्टेशन पर सुष्मिता मुझे छोड़ने आई. मुझे प्रथम श्रेणी के कोच में बिठा कर कुछ देर बड़ी प्यारी बातें करती रही.

 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...