सांचे में ढला तन, अंगअंग से झलकते अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य से भरी उस नवयौवना ने जब झुक कर बडे़ अदब से दोनों हाथ जोड़ कर मुझे प्रणाम किया तो मैं स्तंभित रह गया. एक कशिशभरी आवाज में जब उस ने होठों पर मुसकान ला कर, पूछा, ‘‘आप ने मुझे पहचाना, सर?’’ मैं ने अपने दिमाग पर थोड़ा जोर दिया और फिर अचानक बोल पड़ा, ‘‘तुम, सुष्मिता हो न?’’
उस नवयुवती ने अदब से मगर उसी प्यारभरे अंदाज में कहा, ‘‘हां सर, मैं सुष्मिता ही हूं.’’
‘‘पर तुम यहां क्या कर रही हो?’’ सुष्मिता ने दिल्ली के कनाट प्लेस की भीड़ में मुझ से धीरे से कहा, ‘‘सर, चलिए कहीं रेस्तरां में कौफी पीते हैं. वहीं आप से ढेर सारी बातें करनी हैं.’’ मैं ने स्वीकृति में सिर हिला दिया तो उस ने अपनी स्कूटी पर पीछे बैठने का इशारा किया. मैं एक आज्ञाकारी बालक की तरह स्कूटी की पिछली सीट पर बैठ गया. स्कूटी को तेज रफ्तार से भगाती सुष्मिता के लंबे, घने बाल हवा में लहरा रहे थे और बारबार एक भीनी खुशबू से मुझे भावविभोर कर रहे थे. मैं अतीत के भंवर में खो गया था और पिछले 5 वर्षों का अंतराल किसी सिनेमा के फ्लैशबैक की तरह मेरी आंखों के सामने घूम गया...
सुष्मिता एक छात्रा की तरह आई थी उस कोचिंग क्लास में (जिस में मैं अधिकारवंचित, साधनविहीन छात्रछात्राओं को निशुल्क, शौकिया तौर पर प्रशिक्षण देता था) अंगरेजी पढ़ने. एक जहीन बालिका जिस के नयनों में एक अजीब सी चमक थी कुछ जानने, कुछ सीखने की जिज्ञासा. मेरे क्लास में कई लड़कियां थीं जिन में अंगरेजी भाषा सीखने और समझने की अदम्य लालसा थी. मुझे उन्हें पढ़ाने में काफी दिलचस्पी थी. वे सभी साधनविहीन सामाजिक वर्ग अंडर प्रिविलेज्ड की बालिकाएं थीं जिन में समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की उत्कट प्यास थी. मैं अपनी कक्षा में 10 मिनट, 15 मिनट तक सभी छात्राओं से विभिन्न विषयों पर बोलने का अभ्यास भी कराता था. सुष्मिता कई मानों में सब से अच्छी छात्रा थी. यों तो सभी छात्राओं में प्रशिक्षण के प्रति जागरूकता थी और आगे जा कर अपनी एक पहचान बनाने की अदम्य लालसा थी पर सुष्मिता अद्वितीय थी, बेमिसाल थी. उस दिन मैं सचमुच अचंभित रह गया जब अच्छेअच्छे विद्वानों और विदुषियों की सभा में उसे बालिकाओं की शिक्षा और नारी सशक्तीकरण विषय पर अंगरेजी में व्याख्यान देने का मौका मिला. सभी श्रोताओं ने सुष्मिता की वाककला और विषय पर उस की समझबूझ की भूरिभूरि प्रशंसा की.