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‘‘वह आप हम पर छोड़ दें. आप चलें,’’ कह कर माधवेशजी मु?ा से बोले, ‘‘भाईसाहब, आप चलिए, मैं एक फोन कर के आता हूं.’’ ‘‘अरे, उस के लिए कहीं जाने की क्या जरूरत है, यह लीजिए,’’ हरीशजी अपना मोबाइल बढ़ाते हुए बोले, ‘‘यह फिर किस दिन काम आएगा.’’ तब मोबाइल लेते हुए माधवेशजी बोले, ‘‘देखता हूं, हमारे दूर के एक संबंधी एमएलए हैं. उन की मैडिकल कालेज में बहुत जानपहचान है. अगर मिल गए तो टाइम भी बच जाएगा और पैसा भी. वरना देनेदिलाने में ही दोढाई हजार रुपए का चक्कर बैठेगा और टाइम लगेगा सो अलग.’’ इत्तफाकन उन महाशय से फोन पर बात हो गई. खास वृत्तांत सुन कर वे बोले कि मैं चीफ मिनिस्टर के यहां जा रहा हूं. वहां से ही फोन करवा दूंगा,

आप चिंता न करें. करीब 3 घंटे में लाश मिली जिसे ले कर घर लौटा तो देखा सभी लोग आ चुके हैं. हम दोनों के औफिस के लोग तथा सभी नातेरिश्तेदार. लाश को ले कर सभी मरघट की ओर चल पड़े. वहां पहुंच कर मरघट के महाराज के दरबार में पेशी हुई. जैसा कि कर्मकांड के मुताबिक रिवाज है, बिना उस के आग दिए कोई चिता जलाई नहीं जा सकती. महाराज उस समय नशे में धुत थे, देखते ही बोले, ‘‘5 हजार रुपए दे दें.’’ तो माधवेशजी हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘महाराज, हम विपदा में आप के पास आए हैं. वह हमारा एकलौता बेटा है.’’ ‘‘ठीक है, तो 3 हजार रुपए दे दो, हम इस से कम नहीं करेंगे,’’ महाराज ने दरबार बरखास्तगी का संकेत करते हुए कहा. इस से पहले कि माधवेशजी कुछ कहें, मैं बोला, ‘‘मैं इन कफनखसोटों को एक पाई भी नहीं दूंगा. चलिए, माधवेशजी, शव को विद्युत शवदाह गृह में ले चलिए.’’

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