रामेश्वर व शर्मिष्ठा ने अपनी ही लापरवाही के कारण अपना एकलौता बेटा खो दिया था. उस पर रिश्तेदार थे कि मातमपुरसी के नाम पर उन के जख्मों को और कुरेद रहे थे. ऐसे में जब रामेश्वर ने उन का विरोध करना चाहा तो… शर्मिष्ठा के साथ लौट कर जैसे ही मैं ने कार घर के सामने रोकी, भीड़ देख कर सन्न रह गया. भीड़ की सहानुभूति दर्शाती आंखों से घबरा कर मैं भीड़ को चीरता हुआ अपने घर की ओर दौड़ा. देखा कि मुख्य दरवाजा टूटा पड़ा है और ड्राइंगरूम में मेरे एकलौते कुलदीपक राहुल की लाश पड़ी है. उस के चारों तरफ आसपड़ोस की औरतों का जमघट लगा है. राहुल का चेहरा नीला पड़ा हुआ था.
उस की आंखें बाहर को निकली पड़ रही थीं और मुंह खुला था, मानो वह अब भी सहायता के लिए पुकार रहा हो. एक हाथ काला पड़ चुका था और हथेली जिस को फ्रिज से छुड़ाया गया था, वहां का मांस निकल चुका था. उस की यह हालत देख कर मैं एकाएक चकरा गया. पीछे से आते हुए माधवेशजी ने मु?ो संभाला और बोले, ‘‘भाईसाहब, आप लोग कहां चले गए थे? कब से फोन पर फोन मिला रहा हूं, न तो आप मिले और न ही भाभीजी.’’ ‘‘एक पार्टी से रेट निगोशिएशंस थे, सो लंच के बाद चला गया था. फिर इन्हें महीने का आवश्यक सामान भी लाना था, सो उधर निकल गया था.’’ ‘‘पुलिस लाश ले जाने को कब से पीछे पड़ी है पर आप के आने तक उसे रोके रखा है. इंस्पैक्टर मेरे घर पर बैठा है.’’
‘‘चलिए.’’ ‘‘अरे, आप लोग तो बहुत ही लापरवाह किस्म के आदमी हैं,’’ अंदर घुसते ही इंस्पैक्टर ने कमैंट कसा, ‘‘छोटे से अकेले एक बच्चे को घर में बंद कर जनाब बाहर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं. अरे, कम से कम एक नौकरानी ही रख लेते और अगर यह संभव नहीं था तो उसे होस्टल में छोड़ देते. थोड़ा बिगड़ जाता पर जिंदा तो रहता. क्या जमाना आ गया है. इंसान, बस, पैसे को ही सबकुछ मानने लगा है. उस के आगे सभी गौण हैं. आप की तो शायद यह एकलौती संतान थी. अब क्या करेंगे इस पैसे का? क्या यह आप को आप का बेटा दिलवा सकेगा.’’ ‘‘वह तो साहब, मैं कुछ सामान लाने बाजार निकला तो इन के घर के अंदर से ‘मम्मी, मम्मी…’ की चीख सुनाई दी. मैं ने फौरन ही दरवाजा खटखटाया, कोई उत्तर न मिलने पर आसपड़ोस के लोगों के साथ दरवाजा तुड़वाया. देखा तो राहुल फ्रिज का दरवाजा पकड़े लटका हुआ है.
पहले तो मैं ने मेनस्विच औफ किया, फिर राहुल का हाथ बहुत ही मुश्किल से फ्रिज से छुड़ाया और फर्स्ट एड दी पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. हरीशजी दौड़ कर डा. अशोक को बुला लाए थे. उन्होंने आ कर देखा, डैथ सर्टिफिकेट दे कर चले गए. हां, फीस लेना वे नहीं भूले, अपना बैग जरूर भूल गए हैं. उस के बाद पुलिस को फोन किया. उस ने सभी के बयान नोट कर लिए हैं,’’ माधवेशजी बोले थे. इंस्पैक्टर को ले कर जब घर पहुंचा तो पत्नी होशोहवास भूल कर दहाड़ें मार कर रो रही थी. मु?ो देखते ही उस ने मेरा कौलर पकड़ते हुए कहा, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, आप इस आदमी को गिरफ्तार कर लीजिए, यही मेरे एकलौते पुत्र की मौत का दोषी है. इसी लालची ने मेरे पुत्र का खून किया है. मैं तो राहुल के होते ही इस से नौकरी छोड़ने को कह रही थी पर यही मु?ो नौकरी नहीं छोड़ने देता था. कभी किसी खर्चे का बहाना तो कभी किसी का. कभी भाई की शादी का तो कभी बहन की,
कभी घर की किस्तें हैं तो कभी कार की और कुछ नहीं तो इनकम टैक्स के लिए बचत, कोई न कोई रोना ले कर मेरे हाथपांव बांध देता था. अब यह रखो अपना पैसा संभाल कर और मरने पर छाती से बांध कर ले जाना.’’ मैं भौचक सा देखता रहा. उस का यह रूप पहले कभी देखा जो न था. इंस्पैक्टर इस सब से उदासीन लाश के उठवाने के इंतजाम में लगा था, कागज आगे बढ़ाता हुआ बोला, ‘‘रामेश्वरजी, इन पेपर्स पर साइन कर दीजिए. लाश मैडिकल कालेज ले जा रहा हूं, वहीं पर पोस्टमार्टम के बाद मिलेगी.’’ ‘‘हम लोग भी साथ ही चल रहे हैं. कृपया यह काम जल्दी करवा दीजिएगा,’’ कहते हुए माधवेशजी ने 5 सौ रुपए का नोट उस के हाथ पर रखा तो जो कुछ वह थोड़ी देर पहले दौलत को सबकुछ सम?ाने की वृत्ति के लिए मु?ो कोस रहा था, नोट जेब के हवाले करता हुआ बोला, ‘‘अब हमारी तरफ से कोई देर नहीं है. आप मैडिकल कालेज में डाक्टर को सैट कर लीजिएगा वरना लाश कल ही मिल पाएगी,
वैसे ही काफी देर हो चुकी है.’’ ‘‘वह आप हम पर छोड़ दें. आप चलें,’’ कह कर माधवेशजी मु?ा से बोले, ‘‘भाईसाहब, आप चलिए, मैं एक फोन कर के आता हूं.’’ ‘‘अरे, उस के लिए कहीं जाने की क्या जरूरत है, यह लीजिए,’’ हरीशजी अपना मोबाइल बढ़ाते हुए बोले, ‘‘यह फिर किस दिन काम आएगा.’’ तब मोबाइल लेते हुए माधवेशजी बोले, ‘‘देखता हूं, हमारे दूर के एक संबंधी एमएलए हैं. उन की मैडिकल कालेज में बहुत जानपहचान है. अगर मिल गए तो टाइम भी बच जाएगा और पैसा भी. वरना देनेदिलाने में ही दोढाई हजार रुपए का चक्कर बैठेगा और टाइम लगेगा सो अलग.’’ इत्तफाकन उन महाशय से फोन पर बात हो गई. खास वृत्तांत सुन कर वे बोले कि मैं चीफ मिनिस्टर के यहां जा रहा हूं. वहां से ही फोन करवा दूंगा, आप चिंता न करें. करीब 3 घंटे में लाश मिली जिसे ले कर घर लौटा तो देखा सभी लोग आ चुके हैं. हम दोनों के औफिस के लोग तथा सभी नातेरिश्तेदार. लाश को ले कर सभी मरघट की ओर चल पड़े. वहां पहुंच कर मरघट के महाराज के दरबार में पेशी हुई. जैसा कि कर्मकांड के मुताबिक रिवाज है, बिना उस के आग दिए कोई चिता जलाई नहीं जा सकती. महाराज उस समय नशे में धुत थे, देखते ही बोले, ‘‘5 हजार रुपए दे दें.’’ तो माधवेशजी हाथ जोड़ कर बोले,
‘‘महाराज, हम विपदा में आप के पास आए हैं. वह हमारा एकलौता बेटा है.’’ ‘‘ठीक है, तो 3 हजार रुपए दे दो, हम इस से कम नहीं करेंगे,’’ महाराज ने दरबार बरखास्तगी का संकेत करते हुए कहा. इस से पहले कि माधवेशजी कुछ कहें, मैं बोला, ‘‘मैं इन कफनखसोटों को एक पाई भी नहीं दूंगा. चलिए, माधवेशजी, शव को विद्युत शवदाह गृह में ले चलिए.’’ ‘‘अरे, क्या करते हो जीजाजी, बिना इन की आग दिए लड़के की सद्गति नहीं होगी. वह प्रेत बना डोलेगा.’’ ‘‘आप चुप रहिए, चलिए, माधवेशजी.’’ ‘‘आप खुद पर काबू रखें भाईसाहब,’’ माधवेशजी बोले, ‘‘इस क्षेत्र में आने पर यहां बिना कुछ दिए निकलना सहज नहीं है. ये लोग कुछ भी कर सकते हैं, मर्डर भी और उन का कुछ नहीं होगा. सदियों से चली आ रही है यह प्रथा. पुलिस भी इन से डरती है. आप उधर चल कर बैठें, मैं सब संभाल लूंगा,’’ कह कर वे फिर महाराज के पैर पर 5 सौ रुपए रख कर बोले, ‘‘महाराज, हमारी बस, इतनी ही सामर्थ्य है.
आप तो देख ही रहे हैं, भैया का दिमाग खराब हो गया है. उन्हें खुद पर काबू नहीं है. उन्हें आप क्षमा कर दें तथा आग दे दें. ये बाहर के लोग हैं. इन्हें यहां का कानून मालूम नहीं है पर हम जानते हैं कि आप की आज्ञा के बिना यहां पर पत्ता भी नहीं हिल सकता. यह आज की बात नहीं हैं, यह तो राजा हरिश्चंद्र के समय से चली आ रही प्रथा है.’’ ‘‘अच्छा, ये बातें रहने दें,’’ कहते हुए महाराज ने दरबारी को पुकारा, ‘‘कलुआ, आग ले आओ,’’ और उठ कर उस ने एक हांडी पकड़ा दी जिस में धधकते हुए कोयले भरे थे. ‘‘महाराज की जय,’’ कह कर माधवेशजी आग ले कर आ गए, फिर उसे आगे रख कर विद्युत शवदाह गृह की ओर निकल लिए, यह हांडी उस क्षेत्र का लाइसैंस जो थी. ‘‘यह क्या किया माधवेशजी आप ने, अब मुरदों को फूंकने के लिए भी घूस देनी पड़ेगी?’’ ‘‘हुजूर, यह घूस नहीं, नजराना है. अब चलिए,’’ माधवेशजी बोले. विद्युत शवदाह गृह में 40 मिनट में सब काम निबटा कर लौटते समय बड़े साले साहब और ताऊजी ने सभी से हाथ जोड़ कर खाने की विनती की पर मैं ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया,
‘‘देखिए, अगर आप खिलाना चाहें तो बेशक खिलाएं पर मैं नहीं खिलाऊंगा. ऐसे ही मेरी छाती फट रही है और आप उस पर मु?ो दावत देने को कह रहे हैं, आप को शर्म नहीं आती.’’ ‘‘आती है, बेटा, आती है. तु?ो इस वंश का कहते हुए शर्म आती है जोकि धार्मिक रीतिरिवाज और मान्यताओं को तिलांजलि देने पर तुला है. ‘‘अरे, यह सब उसी का तो था, वह तो गया. यह पैसा क्या तू छाती पर रख कर ले जाएगा.’’ ‘‘नहीं ताऊजी, बुढ़ापा संवारूंगा. यह पैसा ही वृद्धावस्था का सहारा है.’’ ‘‘क्या हम मर गए?’’ ‘‘नहीं ताऊजी, मरे नहीं, जिंदा हैं और तब भी थे जब मेरे पापा मु?ा 15 वर्ष का अकेला छोड़ कर चले गए थे और मु?ो अकेले को अपनी पढ़ाई छोड़ कर दो जून की रोटी की जुगाड़ में जुट जाना पड़ा था.’’ ‘‘क्यों, घर में नहीं रखा था तु?ो?’’ ‘‘रखा था पर पापा का सारा हिस्सा हथिया कर.
क्या पापा का हिस्सा केवल वे ग्रामोफोन के चंद रिकौर्ड ही थे और कुछ नहीं? पारिवारिक संपत्ति में क्या उन का वही हक था?’’ ‘‘अरे, इस का तो दिमाग खराब हो गया है. इस से बहस का कोई फायदा नहीं. चलो, सब चलो,’’ कह कर ताऊजी खिसक लिए. घर लौटने पर पता चला कि दोनों सालियां सपरिवार अड्डा जमाए हैं और हमारे खानदान के भी कुछ लोग आ कर बैठे हैं. एकमात्र सगे भाई का फोन आया था कि उस की सदा बीमार रहने वाली पत्नी बीमार है और वह आ नहीं सकता. यह वही भाई है जिस की पत्नी ने सास को घर से निकालने के ?ागड़े में अपने पुत्र को आग लगा कर स्वयं को भी आग लगा ली थी. तब मैं नौकरी न होने के बावजूद दौड़ादौड़ा सूरत पहुंचा था और अपने परिवार की रोजीरोटी की चिंता न कर एक महीने तक उन सब की सेवा की थी. तब मैं कितनी परेशानी से घर पहुंचा था,
केवल 5 रुपए में. 3 दिन का सफर ही नहीं करना पड़ा था बल्कि पास के पैसे भाई ने धरा लिए कि बहुत कर्जा चुकाना है. और तो और, टिफिन बांध कर देने की भी किसी ने जरूरत नहीं सम?ा थी. मां ने भी नहीं. पत्नी को उस की बहनों ने व्यस्त कर दिया था. वह उन की ही सेवा में जुटी थी. मैं सीधा अपने पुत्र के कमरे में गया और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. उस की हर चीज से लिपट कर रो पड़ा. अब तक तो किसी तरह से खुद पर काबू किया था पर अंदर घुसते ही सब्र का बांध टूट गया और मैं बिलख उठा. लेकिन मेरी नियति में चैन कहां, अचानक ही दरवाजे पर जोरों की थाप पड़ी तो मैं हड़बड़ा कर उठा और दरवाजा खोला. देखा, सामने रौद्ररूपा पत्नी खड़ी थी. ‘‘तुम्हारा सोने का टाइम हो गया, सो पट बंद कर लिए? अब कोई जिए या मरे तुम्हारी बला से. यह भी सोचा है कि इस जाड़े की रात में इतने लोग सोएंगे कहां और कैसे? न लिहाफ है न गद्दे, न पलंग है न चारपाई.
पहले इन सब के सोने का इंतजाम करो, फिर रोते रहना, पूरी जिंदगी पड़ी है.’’ सामान लाने के लिए जैसे ही मैं घर से निकला कि माधवेशजी ट्रक से सामान उतरवाते नजर आए. देखते ही बोले, ‘‘भाईसाहब, आजकल कोई बिस्तर ले कर तो चलता नहीं है, चाहे शादीविवाह हो या मातमपुरसी, इसलिए मैं यह सामान उठवा लाया.’’ पैसे निकालने के साथ ही वे ‘‘राहुल क्या मेरा बेटा नहीं था,’’ कह कर बिलख उठे. राहुल तब 2 माह से बराबर उन के ही घर पर रहता था. आज ही उन्हें एक विवाह में जाना था जिस के कारण मु?ो उसे अकेले छोड़ कर जाना पड़ा था. मैं उन से सामान अंदर रखवाने को कह कर बाहर निकल गया. मेरा कलेजा मानो फटा जा रहा था और मैं चाह रहा था कि एकांत में बैठ कर जी भर रो लूं. कब तक पार्क में बैठा मैं बिलखता रहा, नहीं मालूम. अचानक ही कोई लिपट कर रो पड़ा तब तंद्रा टूटी, देखा, पत्नी मेरे पैरों पर पड़ी बुरी तरह रोते हुए कह रही थी, ‘‘मु?ो माफ कर दो. मैं तुम से न जाने क्याक्या बोल गई. मैं तुम्हें जाने कहांकहां ढूंढ़ आई और तुम यहां बैठे हो.
पता नहीं कैसेकैसे खयाल मेरे मन में आ रहे थे. चलो, घर चलो, कहीं ठंड लग गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे.’’ घर आ कर देखा तो सभी मेहमान आराम से बिस्तर, यहां तक कि एकएक मेहमान 2-2 गद्दे बिछाए सो रहा था. खाना आसपड़ोस से आ गया था, सो सभी खा कर तृप्त हो गए थे. घर का दरवाजा खुला था और सड़क के कुत्ते सूंघते हुए घूम रहे थे. मेरे लिए वहां पर न कोई बिस्तर था और न ही पलंग. खाने का तो सवाल ही नहीं उठता. मैं दरवाजा भेड़ कर निकला कि किसी होटल में जगह देखूं, मगर तभी माधवेशजी से सामना हो गया. देखते ही बोले, ‘‘आइए, मैं आप का ही इंतजार कर रहा था. आजकल इंसान में इंसानियत तो रह ही नहीं गई है. सब अपना ही स्वार्थ देखते हैं. ये लोग शादीविवाह में जाएं या मातमपुरसी में, सब से पहले अपने आराम की ही सोचेंगे. सामान उतरते न उतरते, सब ऐसे ?ापट पड़े मानो इन्हें यहां जिंदगीभर रहना है.
अगर चूक गए तो फिर जमीन पर ही सोना पड़ेगा. ‘‘बिस्तर रखते ही सब से पहले बड़ी बहनजी ने अपने पति व बच्चों के लिए पलंग हथिया लिए कि इन्हें गठिया का रोग है, ठंड लग जाएगी तो बहुत मुसीबत होगी तो छोटी के हसबैंड को अस्थमा की शिकायत थी. ताऊजी बुजुर्ग हैं, सो ताईजी उन के इंतजाम में लग गईं. बाकी लोगों ने भी देखादेखी अपने इंतजाम कर लिए. भाभीजी होश में नहीं थीं, सो आप का इंतजाम मैं ने अपने यहां करवा दिया है.’’ मैं ताला बंद करने गया तो देखा शर्मिष्ठा एक कोने में बैठी सिसक रही थी. उस की रोकी हुई सिसकियां उस का बदन ?ाक?ार रही थीं. मैं ने जैसे ही उस के सिर पर हाथ रखा, वह बिलख उठी. मैं बिस्तर पर आ कर सोचने लगा कि अगर यह दिखावे की जिंदगी न जीनी पड़ती तो आज यह दिन न देखना पड़ता. क्या करें, आज के युग की मांग है,
सुविधा की हर वस्तु संग्रह करने की, दिखावे की. 10,000 रुपए की आमदनी है पर रहनसहन ऐसा दिखाएंगे मानो 15,000 रुपए की आमदनी हो. यह हाल हर स्टेज पर है, चाहे वह कम कमाता हो या ज्यादा. भोग की संस्कृति के चक्कर में हर तरह की सुखसुविधा की चीजें उपलब्ध हैं. हर आदमी का प्रयास रहता है कि वह उन का अधिक से अधिक संग्रह करे. उस के लिए चाहिए धन और जब एक की कमाई से पूरा नहीं पड़ता तो दूसरे को भी उस क्षेत्र में उतरना पड़ता है. फिर शुरू हो जाती है अंधी दौड़, जिस में सब से ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं रिश्ते. इन के लिए आज के आदमी के पास समय नहीं है और जिस के पास है वह कहलाता है एक ‘इमोशनल फूल’ यानी भावुक मूर्ख. आज उसी अंधी दौड़ के परिणाम परिलक्षित हो रहे हैं. ननद, देवरदेवरानी, भतीजेभतीजियां सब पराए हो गए हैं. महानगर में तो मातापिता भी बाहरी लोग हैं. पति, पत्नी, बच्चे सब बाहरी और फालतू लोग हैं. बस, आदमी अकेला ही अपने सुख की खोज में इधर से उधर भटकता है. इसलिए देशकाल के हिसाब से खुद को छोड़ किसी और पर खर्च करना निरी भावुकतापूर्ण मूर्खता है जो मैं अब तक करता आ रहा हूं. चाहे वह मेरे घर के लोग, भाईबहन हों या ससुराल के सालीसाले. इन्हीं सब के कारण मेरे खर्चे बराबर बढ़ रहे हैं और मैं पत्नी के नौकरी छोड़ने के आग्रह को टालता रहा हूं. लेकिन बदले में मु?ो क्या मिला? पत्नी द्वारा लगाया गया बच्चे की हत्या करने का लांछन, जीवनभर कर्ज का बो?ा,
अवमानना तथा मुसीबत के क्षणों में अकेलापन. आज मैं खुद को कितना अकेला महसूस कर रहा हूं. सालेसालियां अपनी बहन का मन बहला रहे हैं. मेरे भाईबहन मु?ा से कन्नी काट गए हैं. मेरे इस संकट के क्षणों में कौन साथी है? साथी हैं ये मेरे पड़ोसी माधवेशजी, हरीशजी और मेरा विश्वास. बाकी सब लेने के ही साथी हैं, चाहे तीजत्योहार हो या शादीविवाह, इन का मुंह भरते रहो तो खुश, नहीं तो नाराज. वाह रे वाह, अब इस संकट की घड़ी में खिलाने से मना कर दिया तो कितना बौखला गए ताऊजी. अरे, आप सगे हैं तो कर डालिए खर्च, सो तो एकएक पाई तक मांग लेंगे. उन के यहां जाओ तो सैकड़ों हजम कर जाएंगे, देने का नाम भी न लेंगे. अब कल के कर्मकांड में हजारों का खर्च आने वाला है. मैं नहीं करूंगा एक पैसा भी खर्च. जिसे करना हो सो करे, जो नाराज हो तो हो. एक दृढ़निश्चय कर के मैं ने बिस्तर छोड़ दिया. सवेरे शर्मिष्ठा ने मु?ो सामान की लिस्ट थमाई तो मैं ने साफ मना कर दिया. वह भौचक सी मु?ो देखती रह गई. फिर थोड़ा संभल कर बोली, ‘‘आप का दिमाग तो खराब नहीं हो गया है
जो ऐसा कर रहे हैं. कोई ऐसे भी करता है. जब सामान ही नहीं लाएंगे तो काम कैसे होंगे? मौत कोई आप के घर में ही नहीं हुई है. क्या कोई ऐसे आपा खोता है? संभालिए खुद को. कभी सोचा है ये नातेरिश्तेदार, ये समाज के लोग क्या कहेंगे कि एकलौती संतान का ढंग से क्रियाकर्म तक नहीं किया.’’ ‘‘मु?ो इन सब की परवा नहीं है.’’ ‘‘अरे, आप का क्या, आप से तो कोई कुछ कहेगा नहीं, सुननी तो मु?ो पड़ेगी. अगर पैसे न हों तो मैं दे दूंगी. अब तुम बेकार का लफड़ा मत करो.’’ ‘‘लफड़ा… और मैं… और तुम कहां से पैसा दोगी?’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘तुम्हीं तो कह रही थीं कि तुम केवल मेरे लालच के चलते नौकरी कर रही हो.’’ ‘‘मैं ने ऐसा कब कहा. वह तो गुस्से की बात थी. उसी को ले कर बैठे हो.’’ ‘‘नहीं शर्मिष्ठा, मैं सोचसम?ा कर ही कह रहा हूं. अब जब कोई खर्च ही नहीं है तो तुम्हें नौकरी करने की भी कोई जरूरत नहीं है.’’ ‘‘इन का तो लगता है वाकई दिमाग खराब हो गया है,’’ मेरे साले साहब बोल पड़े. ‘‘अब तुम्हीं सम?ाओ न इन्हें भैया,’’ शर्मिष्ठा अपने भाई से बोली. ‘‘मु?ो कुछ भी सम?ाने की जरूरत नहीं है.
मैं सबकुछ सम?ा गया हूं, सम?ां.’’ ‘‘तो तुम क्या करोगे? यह घर क्या बिना शुद्धि के ऐसे ही पड़ा रहेगा?’’ ‘‘नहीं, कल शुद्धि करवा लेंगे, बस.’’ ‘‘और दसवीं, तेरहवीं, ब्राह्मण भोज, सामाजिक भोज वगैरह.’’ ‘‘इन की कोई आवश्यकता नहीं है. मेरे घर में मौत हुई है, कोई खुशी का अवसर नहीं कि सब को भोजन कराऊं. यह कहां का न्याय है कि बजाय मदद करने के, खानपान का यह खर्च और सिर पर लाद दिया जाए?’’ ‘‘बस, बस, रहने दे. थोड़ा पढ़लिख क्या गया कि रीतिरिवाजों पर तर्क करने लगा. सीधी तरह क्यों नहीं कहता कि अब तु?ो पैसा खर्च नहीं करना है जो तरहतरह के बहाने बना रहा है,’’ ताऊजी बोले. ‘‘तो बताएं कि मैं क्या गलत कह रहा हूं?’’ ‘‘मु?ो तुम से बहस नहीं करनी है. हां, एक बात कान खोल कर सुन लो, अगर तुम ने ढंग से विधिवत कर्मकांड नहीं कराए तो हम तुम्हारे घर का पानी भी नहीं पिएंगे.’’ ‘‘आप की मरजी है. आप को पानी पिलाने के लिए मैं अपना सर्वनाश नहीं कर सकता.’’
‘‘तो ठीक है, चमेली, संगीता, अनिता, अपना सामान बांधो और निकल चलो. इस का तो मुंह देखना भी…’’ ‘‘हां, हां चलो,’’ कहते हुए और दूसरे नातेरिश्तेदार भी उठ खड़े हुए. ‘‘देखेंगे, ये अकेले क्याक्या कर लेते हैं. समाज के बिना देखे कैसे जिएंगे,’’ बिफरते हुए बड़े साले साहब बोले. ‘‘मु?ो तुम और तुम्हारे जैसी स्वार्थी समाज की आवश्यकता नहीं है. तुम लोग चले जाओगे तो मु?ो कर्मकांड के लिए कर्ज नहीं लेना पड़ेगा, तुम्हारी आएदिन की फरमाइशें भी पूरी नहीं करनी पड़ेंगी. ‘‘रही बात समाज की, सो मेरे साथ मेरे ये पड़ोसी हैं जो आज पिछले 3 दिनों से अपने सारे काम छोड़ कर निस्वार्थ भाव से सारा काम संभाले हुए हैं. इन में संवेदनशीलता है और ये मेरा दर्द सम?ाते हैं.’’ ‘‘हां, हां, लगा ले इन्हें अपने कलेजे से. चलो,’’ कह कर ताऊजी सब को ले कर बाहर की ओर चल पड़े. मु?ो लगा युगोंयुगों से जकड़े बंधन एकएक कर टूट रहे हैं और हर कदम के साथ ये कडि़यां छमछम टूट कर गिर रही हैं. मैं एक चैन की सांस ले रहा हूं.