राइटर- जीतेन्द्र मोहन भटनागर
मेरी बड़ी बहन, किरन की शादी के 4 साल बाद, जब मां गांधारी को पता लगा कि उन के इकलौते बेटे आशीष का एक क्रिश्चयन लड़की मारिया के साथ कई महीनों से चक्कर चल रहा था और दोनों ने चर्च में शादी कर ली है, तो उन के दिल पर जबरदस्त आघात लगा.
इलाहाबाद के सगंम घाट के त्रिभुवन पंडा महाराज के यहां आज से 45 साल पहले जन्म ले कर, पांडित्य संस्कारों के साथ उम्र के हरेक पड़ाव को पार करते हुए जब 20 साल की गांधारी की शादी एक उच्च कुलीन ब्राह्मण घराने में हुई थी, तब तक उस का मस्तिष्क लकीर का फकीर हो चुका था. वाराणसी में ससुराल होने के कारण भी वह अपने भाग्य को हमेशा सराहा करती थी.
शादी के बाद अगले 7 सालों में ही किरन, आशीष और मैं सिमरन, गांधारी की कोख से जन्म ले कर इस पंडित परिवार का हिस्सा बन चुके थे. हम तीनों बच्चों को भी मां गांधारी अपने पुरातन विचारों के रंग मे रंग देना चाहती थीं, परंतु गांधारी का पति अर्थात मेरे पापा निशांत उपाध्याय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भारतीय कला और संस्कृति विभाग के प्रोफैसर होने के नाते और बदलते युग की आहट को पहचानते थे.
इसलिए बड़े होने के साथसाथ स्कूल और कालेज जा कर नई विचारधाराओं की आवश्यकता समझने वाले हम तीनों बच्चे जब मां का विरोध करते, तो पापा हमेशा हमारे पक्ष में ही खड़े हो जाते. मां जब कहती, तुम हमेशा गलत बात पर बच्चों को समझाने के बजाय मुझे ही समझाने लग जाते हो, तो पापा उन्हें समझाने लगते,