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मुझे पता था. ऐसी स्थिति में मां को समझाने में पापा अकेले ही सक्षम थे. उस दिन सवेरे चायनाश्ता और खाना मैं ने ही बनाया.  मम्मी की हालत स्थिर देख पापा ने मुझे पास बुलाया और पूछा, "यूनिवर्सिटी में कितने बजे से क्लासेज हैं तुम्हारे."

“आजकल फाइनल एग्जाम प्रिपरेशन स्टडी चल रही है. थोड़ी देर से जाऊंगी. कोई जरूरत हो तो न जाऊं.”  नहीं, तुम्हें जब भी जाना हो चली जाना. मैं बैंक जाना चाह रहा था.”“तो हो आइए न आप. पास में ही तो है बैंक की ब्रांच. मैं तब तक मां की देखभाल कर लूंगी.”

पापा बैंक चले गए. जब लौटे तो मैं ऊपर भैया वाले कमरे के अटैच बाथरूम में नहाईधोई, फिर गाउन पहन कर निकली. यूनिवर्सिटी जाने वाले कपड़े पहन कर तैयार हुई. वहीं से मैं ने रितेश को फोन लगा कर पूछा, “आज तो  यूनिवर्सिटी आ रहे हो ना?”

“हां.” उस दिन मैं ने रितेश की पसंद वाली ब्लू कलर की जींस और फालसाई कलर का टौप पहना था. अपने को ड्रेसिंग टेबल के लंबे आईने में कई एंगल से निहार कर खुले लेकिन सेट किए बालों पर एक बार और कंघी फेरती हुई, पैरों में नई बैली पहन कर घर से बाहर निकलने से पहले मैं मां के पास गई और पूछा, “कैसा महसूस कर रही हो मां?”

“मैं अब अच्छा महसूस कर ही नहीं सकती. आशीष मुझ को ऐसा धोखा देगा, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था... अब मैं अपनी सहेली सुजाता को कौन सा मुंह दिखाऊंगी.”

मैं ने कुछ भी बोलना उचित ना समझा. मैं वहां चुपचाप खड़ी रही. लेकिन मां बड़बड़ाती रही, “वो ईसाई लड़की इतनी अपनी हो गई कि मां को छोड़ कर चला गया. अब वो उसे ले कर आया भी तो मैं उसे घर में घुसने नहीं दूंगी. रहे उसी के साथ कहीं भी.”       मुझे लगा कि मैं जितनी देर भी मां के सामने रहूंगी, वे इसी तरह की बातें करती रहेंगी, इसलिए मां के पास से उठ गई.

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