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जिंदगी ठीक गुजर रही थी. मैं ने खुद को रेहान के हिसाब से ढाल लिया था. एक दिन सासुमां को घबराहट होने लगी, बेचैनी भी थी. उन्हें अस्पताल ले गई. दिल का दौरा पड़ा था. 2 दिनों तक ही इलाज चला, तीसरे दिन वे दुनिया छोड़ गईं.

सासुमां ने हमेशा मेरा बेटी की तरह खयाल रखा. मेरे बच्चों को वे बेहद प्यार करती थीं.

रेहान को भी मां की मौत का बड़ा शौक लगा. काफी चुप से हो गए. हर गम वक्त के साथ भरने लगता है. हम लोग भी धीरेधीरे संभलने लगे. हालात बेहतर होने लगे कि मेरे पापामम्मी का अचानक एक कार ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. मैं रोतीबिलखती घर पहुंची. सारे रिश्तेदार जमा हुए. 10 दिन रह कर सब चले गए. रेहान की भी जौब थी, वे भी चले गए.

अब घर में मैं, बूआ और 15 साल की आबिया रह गए. कुछ समझ में नहीं आता था क्या करूं. रिश्ते के मेरे एक चाचा, जो पड़ोस में रहते थे, ने मुझे समझाया, ‘देखो बेटी, तुम जवान बहन को किसी के सहारे नहीं छोड़ सकतीं. तुम्हारी बूआ या मामा, किसी की भी आबिया की जिम्मेदारी लेने की मंशा नहीं है. उसे अकेले छोड़ा नहीं जा सकता, सो, तुम आबिया को अपने साथ ले जाओ. मैं तुम्हारा घर बेचने की कोशिश करता हूं. पैसे आधेआधे तुम दोनों के नाम पर जमा करा देंगे.’ मुझे उन की बात ठीक लगी. मैं ने रेहान को बताया और आबिया को ले कर घर आ गई. बूआ को एक अच्छा अमाउंट दिया, उन्होंने बहुत साथ दिया था.

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