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‘अभी जो गए वे डीपी मेहता लौ फर्म में अकाउंट्स का काम देखते हैं. संयोग से ये भी मेहता ही हैं.’’

हंसी आने लगी मुझे विजय की बुद्धि पर. हमें कंजूस कहने के लिए बेचारे ने अकाउटैंट को मालिक बना दिया था. सिर्फ यही समझाने के लिए कि देखिए, दिलदार आदमी क्या होता है, 50 जेब में और खर्चा 500 का करता है.’’

‘‘पिछले दिनों इन के बेटे ने भाग कर चुपचाप मंदिर में शादी कर ली. तो क्या करते मेहता साहब? कैसे बताते सब को कि बेटे ने शादी कर ली है. सब को मिठाई बांट दी और औफिस में सब को खिलापिला दिया. इन की जेब में तो कभी पैसे रहते ही नहीं. सदा किसी न किसी की उधारी ही चलती है. इन की तुलना हमारे परिवार से करने की क्या तुक?’’

क्रोध आने लगा था, सौम्या को, ‘‘पीठ पीछे आप गाली भी इसी आदमी को देते हैं कि जब देखो उधार ही मांगता रहता है फिर जीजाजी के सामने उसी को बढ़ाचढ़ा कर बताने का क्या मतलब? मेहताजी खर्च ही कर पाते तो इज्जत से अपने दोनों बच्चों की शादी न कर लेते. बेटी ने भी लड़का पसंद कर रखा था और बेटे ने भी लड़की कब से समझबूझ रखी थी. मातापिता क्या अंधे थे जो कुछ नजर नहीं आता था. वे तो चाहते ही थे बच्चे अपनेआप ही कुछ कर लें. जब दोनों बच्चों ने भाग कर शादी कर ली तो बस बांट दी मिठाई. क्या इज्जत है उन के परिवार की? पीठ पीछे तो सब गाली देते हैं कि पैसे मांगमांग कर जान खा जाता है यह आदमी. उन का उदाहरण हमें क्यों दे रहे हो तुम, विजय?

‘‘मेरा मायका लुटाता नहीं है और न ही किसी को लूटता है. अगर अपनी मेहनत से कुछ बचाता है तो उस में आप को तकलीफ क्यों होती है. आप के पास तो कोई मांगने नहीं न आता. आप ले आओ न, 1000 रुपए किलो वाली मिठाई, किस ने रोका है?’’

बगलें झांकने लगा था विजय. सौम्या का क्रोध जायज था मगर वहां मेरा रुकना मुझे अब भारी लगने लगा था. सदा ऐसा ही होता है जब भी मैं यहां आता हूं. शायद साल के बाद हर दीवाली पर ही आता हूं और हर बार विजय की जबान से यही रस फूटता है. इस बीच हमारी कभी बात ही नहीं होती क्योंकि हमारे दिल कभी मिले ही नहीं. सौम्या ही कभीकभी आ कर मिल जाती है. मेरे सासससुर की एक दुर्घटना में मृत्यु के बाद सौम्या हमारे पास ही रही थी. मेरी पत्नी से 10 साल छोटी है यह बच्ची और मुझ से 16 साल. अपनी बच्ची ही लगती है मुझे, सौम्या. विजय में यही देखता हूं कि वह दामाद है. तो वह कुछ भी कह सकता है, कर सकता है. 10 साल हो चुके हैं सौम्या की शादी को लेकिन हमारे साथ विजय का रिश्ता ऐसा ही है, फीका और रसहीन.

‘‘तुम मेरे दामाद नहीं हो, विजय. मेरे सामने हर बार बेतुकी अकड़ दिखाने का भला क्या फायदा होता है तुम्हें, जरा सोचो. जो सासससुर मेरे थे वही तुम्हारे भी थे. तुम्हारामेरा रिश्ता बराबरी का है. मुझे जलीकटी सुनाना बनता ही नहीं तुम्हारा क्योंकि मैं भी दामाद हूं उन्हीं का जिन के तुम हो. हम दोनों का तो मीठी जबान का रिश्ता है. मैं ने कहा न तुम मेरे दामाद नहीं हो जो तुम्हारी बातें सहन करूं मैं. इज्जत दोगे, इज्जत मिलेगी. प्यार करोगे प्यार मिलेगा. सौम्या हमारी बेटी जैसी है इसलिए इसे तो हम छोड़ नहीं सकते. बेहतर होगा तुम भी हमारे बन जाओ.

‘‘बेकार तानों में अपना दिमाग खराब मत किया करो. दामाद होने की धौंस भी छोड़ दो क्योंकि जिन को दिखाना चाहते हो वे तो हमारे बीच हैं नहीं. मैं सहूंगा नहीं क्योंकि तुम मेरे दामाद हो ही नहीं. निशाना सही रखो, तभी फायदा होगा. सौम्या और इस की दीदी 2 ही तो बहनें हैं. कभीकभार प्यार से मिल लेने में तुम्हारा क्या जाता है, मेरी तो समझ में ही नहीं आता. 10 साल हो गए तुम आज भी उस रेत की तरह हो जिस पर चाहे कितना सावन बरस जाए, वह सूखी की सूखी रहती है. हमारी कंजूसी से तुम्हें क्या लेनादेना. अपनी चादर में रह कर जीना तो समझदारी है. हम लोगों से कट कर रहोगे तो नुकसान तुम्हारा ही होगा क्योंकि अब हमारे बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. कल को वे वही पाएंगे जो आज परोसोगे. अपनी इज्जत अपने हाथ में होती है. आज तुम्हें हम से नाराजगी है कल हमारे बच्चों से भी होगी. अपना व्यवहार देखो विजय. उस का आकलन करो. तुम किसी के लिए क्या कर रहे हो, जरा सोचो.’’

उठ पड़ा मैं. सौम्या की आंखें भर आई थीं.

‘‘यह बच्ची मेरे लिए रो पड़ी है क्योंकि मैं ने इस रिश्ते में कुछ निवेश किया है. खून का रिश्ता नहीं है हमारा लेकिन मुझे पता है, अगर जरूरत पड़ी तो मेरे बच्चों से पहले यह मेरे काम आएगी.

‘‘क्या तुम ने भी अपने ससुराल में ऐसा कोई रिश्ता बनाया है जो कोई नंगे पैर दौड़ कर तुम्हारे लिए चला आए? छोड़ो 1 हजार रुपए किलो मिठाई का रोना. जो अमूल्य है क्या वह है तुम्हारे पास? कोई ऐसा इंसान है जिस की आंख में तुम्हारे लिए पानी आ जाए? सोचना, जरा ठंडे दिमाग से,’’ मैं ने आतेआते सौम्या का माथा चूमा.

‘‘अच्छा बेटा, मन मैला मत करना, खुश रहो.’’

चला आया मैं. हर साल इसी तरह चला जाता हूं. सौम्या से मोह है. उस का कौन है हमारे परिवार के सिवा. सोचता हूं मैं बड़ा हूं. बड़ों को कभीकभी ज्यादा सहना पड़ता है मगर अब बीमार होने लगा हूं. विजय का व्यवहार चुभता है, रातभर सोने नहीं देता. हम ने क्या बिगाड़ा है जो विजय हम से ऐसा व्यवहार करता है. हमारी बेटी उस घर ब्याही है मात्र इसी बात की धौंस. अफसोस होता है कभीकभी कि क्यों कुछ लोग प्यार और स्नेह के सागर के किनारे खड़े रह कर भी मात्र खडे़ ही रह जाते हैं, क्यों नहीं जरा सी डुबकी लगा लेते? क्यों नहीं प्यार का प्रतिकार प्यार और अपनेपन से देते? अफसोस होता है मुझे, सच में बुरा लगता जब विजय जैसे लोग रीते के रीते ही रह जाते हैं.

4 दिन बाद ही दीवाली थी. मैं और मेरा परिवार अपना छोटा सा घर सजाने में व्यस्त थे. पता नहीं कहां से मौसम बिना बरसात की तरह विजय हमारे घर चला आया. साथ में 4 मित्र भी थे. स्वागत किया हम ने और आवभगत भी की.

‘‘किसी को फ्लैट खरीदना था इसी तरह का. ज्यादा खर्चा नहीं करना चाहते. मैं ने सोचा आप का दिखा देता हूं.’’

अवाक् थे हम. विजय की जबान का रस यहां भी चला आया टपकने. क्या उत्तर दें हम. कुछ लोग बहुत ही बेशर्म होते हैं.’’

‘‘सजावट भी अपनेआप ही कर रहे हो. 2-3 हजार खर्च करते, अच्छी सजावट हो जाती. खैर, आप को तो सब अपने ही हाथ से करने की आदत है न.’’

अपने मित्रों के सामने विजय क्या प्रमाणित करना चाहता था, हम समझ नहीं पा रहे थे. मेरे दोनों बेटे भी बारीबारी से कभी उन का और कभी हमारा मुंह देख रहे थे. बड़ा वाला तो चुप भी नहीं रह पाया, ‘‘मौसी को साथ नहीं लाए?’’

‘‘नहीं, वह घर सजा रही है.’’

‘‘क्या आप ने 2-3 हजार रुपए खर्च नहीं किए? घर सजाने वालों को बुला लेते? कम से कम मौसी तो साथ आ जातीं. जहां जाते हैं आप अकेले ही जाते हैं. आप के यही दोस्त सदा साथ होते हैं. क्या खर्चा करने से डर लगता है जो मौसी को साथ नहीं ले जाते. बहुत ज्यादा पैसे खर्च कराती हैं क्या मौसी?’’

इस बार विजय जरा सा अवाक् लगा.

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