लेखिका -कविता वर्मा
“सब संस्कारों की बात है.” कमरे में मोहन कुमार का गर्वभरा स्वर गूंज उठा जिस ने वहां उपस्थित आधे लोगों के चेहरे पर गर्वमिश्रित मुसकान फेर दी. उन्हीं में से कुछ की गरदन थोड़ी और तन गई और कुछ ने अपने संस्कार दर्शाने के लिए सिर पर रखे पल्लू को थोड़ा आगे खींच कर सीने पर कुछ और चढ़ा कर तिरछी मुसकान को कानों तक खींच लिया. वहीं. उसी कमरे में उपस्थित कुछ लोगों के चेहरे उन के संस्कार की छड़ी के प्रहार से उतर गए. होंठों पर चुप्पी के ताले जड़ गए, गरदन झुक गई, कुछ आंखों में इस प्रहार की तिलमिलाहट से आंसू तैर आए जिन्हें छिपाने के लिए उन्होंने गरदन और नीची कर के उन्हें धीरे से पोंछ लिया.
प्रिया अंदर कमरे में बैठी इस बात से तिलमिला गई. उस की मठ्ठियां भिंच गईं, जबड़े कस गए, आंखों में अंगार उभर आए. उस का मन हुआ कि वह जोर से चीखे, बाहर बैठ कर शब्दों के प्रहार करने वालों से चीखचीख कर कहे कि उस के संस्कारों में कोई खराबी नहीं है, उस ने कोई पाप नहीं किया है, उस ने सिर्फ प्यार किया है, प्यार पर विश्वास किया है और उस विश्वास ने भी उस से कोई छल नहीं किया. ‘क्या वाकई उस के साथ कोई छल नहीं हुआ या पहले नहीं हुआ था, अब हो रहा है…’ एकाएक वह सोच में पड़ गई.
बाहर चायनाश्ते की प्लेटप्यालियों की खनखनाहट शुरू हो गई थी, इस से बातचीत को कुछ विराम मिला. इसी ने प्रिया को फिर सभी बातें दोहराने का मौका दिया.
2 वर्षों से वह और मुनीश साथ हैं. एक ही बिल्डिंग में औफिस होने के कारण लिफ्ट कौरिडोर, कैंटीन में एकदूसरे के आमनेसामने पड़ते रहे. न जाने कितने दिनों, महीनों तक लिफ्ट में खड़ी भीड़ के हिस्से बने अजनबी ही बने रहे. यों तो मुंबई में कौन ध्यान देता है कि लिफ्ट में बगल में कौन खड़ा है या कौन किस फ्लोर पर चढ़उतर रहा है? लिफ्ट है तो लोग चढ़ेंगे भी और उतरेंगे भी. न कोई चढ़ने वालों के चेहरे देखता है और न उतरने वालों के फ्लोर. वहां तो बगल में कौन खड़ा है, यह भी कोई नहीं देखता. अपने कानों में मोबाइल की लीड लगाए नजरें मोबाइल में गड़ाए एक उचटती सी नजर दरवाजे के ऊपर डिस्प्ले होने वाले फ्लोर नंबर पर डाल कर फिर अपने मोबाइल में कैद हो जाते हैं. लेकिन न जाने किस आकर्षण से उन दोनों ने एकदूसरे पर ध्यान देना शुरू कर दिया था.
सुबह प्रिया लिफ्ट के पास पहुंचती तो देखती वह लंबा स्मार्ट लड़का लिफ्ट के बाहर खड़ा है जैसे किसी के आने का इंतजार कर रहा है. कभी वह दौड़ती आती कि लिफ्ट पकड़ ले लेकिन पकड़ नहीं पाती और देखती कि वह लड़का वहीं खड़ा है. पहले लगा कि शायद उसे भी देर हो गई, फिर समझ आया कि वह किसी का इंतज़ार कर रहा है. कुछ दिनों बाद प्रिया ने देखा कि अपने औफिस के 10वें फ्लोर पर उतरने के बजाय वह प्रिया के औफिस के 14वें फ्लोर तक साथ जा कर लिफ्ट से बाहर आता है. शुरूशुरू में तो सोचा शायद किसी से मिलने के लिए आया हो लेकिन जब उस ने मुनीश को उस के औफिस की ओर मुंह कर के खड़े मोबाइल में कुछ देखने का अभिनय करते चुपके से उसे देखते हुए पाया तो एक गुलाबी सी सिहरन उस के अंदर दौड़ गई.
वह 14वें फ्लोर पर लिफ्ट से बाहर आता, प्रिया को जाते हुए देखता और जब लिफ्ट 18वें फ्लोर से वापस नीचे आती तब उस से 10वें फ्लोर पर अपने औफिस जाता. कभीकभी लिफ्ट वापसी में इतनी भरी होती कि उसे जगह ही न मिलती लेकिन वह इत्मीनान से उस कौरिडोर को देखता जहां से हो कर प्रिया अभी गई है. जैसे प्रिया अभी भी वहीं है और वह उसे जाते हुए देख रहा है. उस की इठलाती चाल उस के सैंडल की ठकठक उस के परफ्यूम की खुशबू से बना उस का अक्स कौरिडोर में ठिठक सा गया है. धीरेधीरे मुसकानों के आदानप्रदान के साथ हेलोहाय से शुरू हुआ सफर साथ में कौफी पीने, लंच करने से ले कर मूवी व शौपिंग और घंटों की बातचीत तक पहुंच गया.
उस साल का हर दिन अनोखापन लिए नया होता था. दोनों एकदूसरे की अदाओं, आदतों और व्यवहार में हर दिन कुछ नया पाते, वह उनके मन को भाता और उन में यह विश्वास भरता कि एक अच्छे साथी में यही गुण होने चाहिए.
बाहर से प्लेटप्यालियों की खनक बंद हो गई थी. बातचीत फिर शुरू होना चाहती थी. “भाई साहब, दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं, एक ही शहर में एक ही बिल्डिंग में जौब करते हैं. सो यह संबंध दोनों के लिए अच्छा होगा और बच्चे जिस में खुश रहें उस में ही हमारी खुशी है,” यह प्रिया के पापा की आवाज थी. उन दोनों ने जब एकसाथ अपने भविष्य को देखना शुरू किया था तब यह भी सोचा था, साथसाथ घर से निकलेंगे एकसाथ लोकल से आएंगे, मुनीश उसे 14वें फ्लोर पर छोड़ेगा, फिर 10वें फ्लोर पर अपने औफिस जाएगा.
प्रिया पूछती, ‘शादी के बाद तुम मेरे फ्लोर तक आना बंद तो नहीं कर दोगे न?” मुनीश शरारत से उस की आंखों में झांकता और कहता, “मैं तो सोच रहा हूं कि तुम्हारे फ्लोर के औफिस में ही आ जाऊं.’
‘न बाबा, तुम अपने औफिस में ही ठीक हो, थोड़ी दूरी प्यार के लिए जरूरी होती है,’ प्रिया कहती. समय बीतने के साथ एकदूसरे से यह दूरी असहनीय होने लगी थी. दोनों में से किसी ने भी एकदूसरे से कुछ कहा नहीं, शायद, वे आश्वस्त थे कि वे एकदूसरे के दिल की बात जानते हैं.
मुनीश के कलीग्स ने न्यू ईयर पार्टी के लिए अलीबाग जाने का कार्यक्रम बनाया. यह कपल पार्टी थी, सिर्फ शादीशुदा जोड़े ही शामिल हो सकते थे. मुनीश के दोस्त इन दोनों की दोस्ती के बारे में जान गए थे. उन्होंने मुनीश को भी साथ चलने को कहा. मुनीश ने प्रिया से पूछा तो वह हिचकिचाई. मुंबई में रहते उसे 2 वर्षों से ज्यादा हो गए थे. लगभग एक साल से दोनों दोस्ती की राह पर आगे बढ़ चुके थे. लेकिन मन में कहीं कसबाई संस्कार, संकोच और मर्यादा की दीवारें खड़ी थीं. इस तरह शादी से पहले किसी के साथ एक कमरे में रात बिताना उस का मन स्वीकार नहीं कर रहा था. अभी तो उन लोगों ने एकदूसरे से ही खुल कर बात नहीं की, अपने घर वालों को भी कुछ नहीं बताया. अभी तो दोनों के सपने उन की पलकों में ही मुंदे थे जिन्हें खुद से खुल कर भी उन्होंने कभी नहीं कहा.