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लेखिका -कविता वर्मा          

"सब संस्कारों की बात है." कमरे में मोहन कुमार का गर्वभरा स्वर गूंज उठा जिस ने वहां उपस्थित आधे लोगों के चेहरे पर गर्वमिश्रित मुसकान फेर दी. उन्हीं में से कुछ की गरदन थोड़ी और तन गई और कुछ ने अपने संस्कार दर्शाने के लिए सिर पर रखे पल्लू को थोड़ा आगे खींच कर सीने पर कुछ और चढ़ा कर तिरछी मुसकान को कानों तक खींच लिया. वहीं. उसी कमरे में उपस्थित कुछ लोगों के चेहरे उन के संस्कार की छड़ी के प्रहार से उतर गए. होंठों पर चुप्पी के ताले जड़ गए, गरदन झुक गई, कुछ आंखों में इस प्रहार की तिलमिलाहट से आंसू तैर आए जिन्हें छिपाने के लिए उन्होंने गरदन और नीची कर के उन्हें धीरे से पोंछ लिया.

प्रिया अंदर कमरे में बैठी इस बात से तिलमिला गई. उस की मठ्ठियां भिंच गईं, जबड़े कस गए, आंखों में अंगार उभर आए. उस का मन हुआ कि वह जोर से चीखे, बाहर बैठ कर शब्दों के प्रहार करने वालों से चीखचीख कर कहे कि उस के संस्कारों में कोई खराबी नहीं है, उस ने कोई पाप नहीं किया है, उस ने सिर्फ प्यार किया है, प्यार पर विश्वास किया है और उस विश्वास ने भी उस से कोई छल नहीं किया. 'क्या वाकई उस के साथ कोई छल नहीं हुआ या पहले नहीं हुआ था, अब हो रहा है...' एकाएक वह सोच में पड़ गई.

बाहर चायनाश्ते की प्लेटप्यालियों की खनखनाहट शुरू हो गई थी, इस से बातचीत को कुछ विराम मिला. इसी ने प्रिया को फिर सभी बातें दोहराने का मौका दिया.

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