‘‘मगर सब की ‘नहीं’ ने हमारे मुंह पर ताला डाल दिया. रामलालजी को तो कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती. वे चुस्ती से, मुस्तैदी से और स्वयं अपनी समझ से हमारी मदद कर रहे थे, जैसे सचमुच इन के छोटे भाई हों. अखिलेश के लाख कहने पर भी उन्होंने उसे एक भी दिन अस्पताल में नहीं रुकने दिया. वे कहते, ‘‘इस की परीक्षा है, बेकार पढ़ाई का नुकसान होगा.’’
एक रोज जब हमेशा की तरह वे इन के लिए फल वगैरह ले आए तब मैं ने उन से फलों के पैसों के बारे में पूछा. सुनते ही वे बिगड़ गए, ‘‘भाभीजी, मैं ने तो आप लोगों को कभी पराया नहीं समझा. आप इस तरह की बात कह कर मेरी भावना को चोट न पहुंचाएं.’’
उन की इस बात से स्वयं अपनी ही कही एक बात मुझे कचोटने लगी, ‘बड़ा चाचा बना फिरता है बच्चों का. इतनी बार हमारे यहां खाता है पर यह नहीं कि बच्चों के लिए ही कुछ लेता आए.’ आज वे जो कुछ हमारे लिए, बच्चों के लिए कर रहे थे, क्या किसी नजदीकी रिश्तेदार से कम था. आज के जमाने में तो रिश्तेदार तक मुंह फेर लेते हैं.
रामलालजी के जाने के बाद यह भावविभोर हो कर बोले, ‘‘कितना करता है हमारे लिए. यह नहीं होता तो न जाने हमारा क्या हाल होता. उस रोज तो शायद मैं अस्पताल भी नहीं पहुंच पाता.’’
मेरे पास तो रामलालजी के विषय में बात करने के लिए शब्द ही नहीं थे. मैं ने उन्हें क्या समझा था और क्या निकले वे. मुझे इस व्यक्ति से इस कदर नफरत हो गई थी कि अकसर ही इन से पूछती, ‘‘आप की कैसे इस निपट गंवार से दोस्ती हो गई?’’
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