विहान होने को था. मैं ने खिड़की से बाहर झांका, कालिमा से ढकी शहर की इमारतें उभरने लगी थीं. पंछियों की चहचहाहट भोर का संदेश पढ़ रही थी, तभी फोन भी उन के साथ संगीत देने लगा. बिस्तर छोड़ कर फोन उठाया. मां का फोन था. बिना किसी खास प्रयोजन के मां ने कभी इतनी सुबह फोन नहीं किया. कुछ बात जरूर है, मन में अंदेशा हुआ. तब सुबह के 6 बज रहे थे.
‘‘जय गुरुदेव मां, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.
‘‘जय गुरुदेव. यहां सब ठीक है, निधि कैसी है?’’
‘‘अच्छी है, आजकल उसे पेंटिंग बनाने का शौक लगा है.’’
‘‘यह तो अच्छी बात है. अब एक बात ध्यान से सुनो, बेटा. तुम्हें 2 लाख रुपयों की व्यवस्था करनी है. इसे गुरु महाराज का आदेश ही समझना,’’ मां सीधे काम की बात पर आ गईं.
मुझे काटो तो खून नहीं. कैसे अपनी विवशता बताऊं. एक उलझन पहेली बन कर मुझ से प्रश्न करने लगी.
‘‘मां, इस वक्त मैं ऐसी स्थिति में नहीं कि रुपए भेज सकूं,’’ मैं ने कहा.
‘‘इतने साल हो गए नौकरी लगे. कहां जा रहा है पैसा? बीवी के पल्लू से बंधा रहेगा तो कंगाल ही रहेगा,’’ मां अपना लहजा जरा सख्त करते हुए बोलीं.
मां द्वारा बारबार पैसों की मांग. बारबार मकान बदलना. औफिस जाने-आने का खर्च और ऊपर से गृहस्थी चलाना. किस तरह बचत होगी, मैं ने सोचा.
मां कहती चली गईं, ‘‘तेरे बाद ही कन्नू का जौब लगा है. वह 3 लाख रुपए आश्रम को दे रहा है.’’
सुबहसुबह सारा मूड खराब हो गया. मां से बहस करना व्यर्थ था. मैं चुप रह गया.