‘‘यदि आप हम दोनों को खुश देखना चाहती हैं तो आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने उन की आंखों में झांकते हुए दृढ़ता से कहा. उस दिन मेरी जिद के आगे मांजी को झुकना ही पड़ा. वे हमारे साथ मुंबई आ गईं. यहां आते ही सारे घर की जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली. वे हमारी छोटी से छोटी जरूरत का भी ध्यान रखतीं. जयंत और मैं सुबह साथसाथ ही निकलते. मेरा कालेज रास्ते में पड़ता था, सो जयंत मुझे कालेज छोड़ कर अपने दफ्तर चले जाते. मेरी कक्षाएं 3 बजे तक चलती थीं. साढ़े 3 बजे तक मैं घर लौट आती. जयंत को आतेआते 8 बज जाते. अब मेरा अधिकांश समय मांजी के साथ ही गुजरता. हमें एकदूसरे का साथ बहुत भाता. मैं ने महसूस किया कि हालांकि मांजी मेरी हर बात में दिलचस्पी लेती हैं, लेकिन वे उदास रहतीं. बातें करतेकरते न जाने कहां खो जातीं. उन की उदासी मुझे बहुत खलती. उन्हें खुश रखने का मैं भरसक प्रयत्न करती और वे भी ऊपर से खुश ही लगतीं लेकिन मैं समझती थी कि उन का खुश दिखना सिर्फ दिखावा है.
एक रात मैं ने जयंत से इस बात का जिक्र भी किया. वे व्यथित हो गए और कहने लगे, ‘‘मां को सभी दुख उसी इंसान ने दिए हैं, जिसे दुनिया मेरा बाप कहती है. मेरा बस चले तो मैं उस से इस दुनिया में रहने का अधिकार छीन लूं. नहीं जयति, नहीं, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकता. उस का नाम सुनते ही मेरा खून खौलने लगता है.’’ जयंत का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा. मैं अंदर तक कांप गई. क्योंकि मैं ने उन का यह रूप पहली बार देखा था.