मकान के पिछवाड़े बनी झोंपडि़यों में नौकर व बटाइदारों के परिवार रहते हैं. घर में मालिक लोगों के आने की खबर पा कर एक नौकर की बीवी अपने घर से ही दूध गरम कर लाई थी. वह बोली, ‘‘बीबीजी, दूध लाई हूं. पी लीजिए, बच्चे की खातिर आप के पेट में कुछ न कुछ जाना आवश्यक है.’’ वह दूघ का गिलास मेज पर रख कर कुछ दूर खड़ी हो कर बोली, ‘‘मालिक लोगों के आने में समय लगेगा. मैं यहीं हूं. आप को जो भी कुछ चाहिएगा, बतला दें. बाहर जानवरों का सारा काम हम ने कर दिया है. लाइट वगैरा भी हम जला देंगे. आप चिंता न करें. पानी की मोटर हम चालू कर देते हैं,’’ कह कर नौकरानी बरामदे के बिजली के स्विच की ओर बढ़ गई.
अपने घर का भी कुछ कामकाज निबटा कर नौकरानी फिर से हमारे मकान में आ गई. आवाज दे कर बोली, ‘‘बीबीजी, दूध पिया कि नहीं…?’’ दूध वैसे ही पड़ा देख कर दुखित मन से बोली, ‘‘बीबीजी, यह तो अच्छी बात नहीं. बच्चे को बचाने के लिए आप को कुछ न कुछ खानापीना तो होगा ही. बच्चा भूखा होगा.’’ उस ने जिद कर दूध का गिलास मुझे पकड़ा दिया. बोली, ‘‘बीबीजी, मालकिन को पता चलेगा कि हम ने आप को कुछ भी खानेपीने को नहीं दिया तो वे बहुत नाराज होंगी. हम क्या जवाब देंगे?’’ मैं ने ठंडा हो गया दूध पी लिया. वह ठीक ही कहती थी. बच्चे की खातिर मुझे कुछ न कुछ लेना ही था. वह पानी का जग और गिलास रख गई थी.
मैं तकिये को सीने में दबाए फिर लेट गई. मेरा ध्यान अस्पताल की ओर ही था. आशानिराशा के भंवर में मेरा मन डोल रहा था. कभीकभी ऐसा लगता जैसे आंधीतूफान के तेज झोंके में मेरी नौका बच न सकेगी, कईकई मीटर उछलती लहरों में सदा के लिए डूब जाएगी.
चिंतातुर मैं बारबार करवट बदल रही थी. मुझे किसी भी प्रकार से चैन नहीं आ रहा था. विचार बारबार मन में कौंध रहे थे कि कहीं वे नहीं बचे तो…मेरा जीवन… नहींनहीं, ऐसा नहीं होगा. कोई उन्हें बचा लो. मैं ने घुमड़ आए अपने आंसुओं को तकिये से पोंछा. जब मन कुछ हलका हुआ, स्मृतिपटल पर अतीत की सुखद यादें उभरने लगीं और कुछकुछ ऊहापोह में लिपटी भयभीत कर देने वाली यादें तड़प पैदा करने लगीं.
हमारा संगसाथ कालेज के दिनों से ही अठखेलियां खेलता चला आ रहा था. तब मैं इंटर फर्स्ट ईयर में थी और अतुल इंटर फाइनल में थे. हम पैदल ही कालेज आतेजाते थे. पर इधर कुछ महीनों से अनजाने में एकदूसरे का इंतजार करने लगे. सिलसिला चलता रहा. बोर्ड की परीक्षा आ गई. इंटर क्लास को फर्स्ट ईयर वालों ने विदाई दी. उस दिन हम दोनों ही उदास थे. हमें पता हीं नहीं चला कि हमें कब एकदूसरे से प्रेम हो गया. वे इंटर पास हो कर बड़े कालेज जाने लगे थे. रास्ता मेरे घर के पास से ही जाता था. मैं इंतजार करती, वे मुसकरा कर आगे बढ़ जाते थे. कहते हैं इश्क, मुश्क, खांसी और खुशी छिपाए नहीं छिपते. कभी न कभी उजागर हो ही जाते हैं. गांव के लड़केलड़कियों को कभी इस की भनक लग गई थी. पर ठाकुर दिंगबर से भी दुकान में किसी परिचित ने बात छेड़ दी. ठाकुर साहब को यकीन हुआ ही नहीं. बात टालते हुए सशंकित, भारी मन से वे घर लौट आए.
ठाकुर साहब बचपन से ही जातिवाद के कठोर हिमायती थे. उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों से कोई शिकायत नहीं थी. पर वे ब्राह्मणों से खार खाते थे. कभी किसी पंडित ने उन के सीधेसाधे पिता को ठगा था. एक पुरोहित ने शादी में दूसरे पक्ष के पुरोहित से मिल कर दोनों जजमानों की खूब लूटखसोट मचाई थी. ऐसी ही कई बातों के कारण उन के मन में ब्राह्मणों के प्रति नफरत भर गई. हर कोई इस बात को जानता था कि ठाकुर साहब ब्राह्मणों के नाम से नाकभौं सिकोड़ते हैं. पर जब दुकानों, महफिलों में ठाकुर साहब के लड़के अतुल और सुखदानंदजी की लड़की दिव्या के प्रेमप्रसंग का जिक्र आता तो वे लोग मुंह दबा कर हंसते.
शाम के वक्त घर पहुंच कर ठाकुर साहब ने बाहर से ही अतुल को आवाज दे कर बाहर बुलाया. वे गुस्से में थे, दहाड़ कर बोले, ‘क्यों रे अतुवा, यह मैं क्या सुन रहा हूं. तू क्या ब्राह्मण सुखदिया की लड़की के चक्कर में पड़ा है?’ अतुल इस अकस्मात आक्रमण से सन्न रह गया. उस के मुंह से आवाज नहीं निकली. ‘तुझे शरम नहीं आई एक ठाकुर हो कर ब्राह्मण की ही लड़की तुझे पसंद आई. कुछ तो शरम करता.’
अतुल अंदर अपने कमरे में चला गया. पापा की बात का कोई उत्तर नहीं दिया. अब वह यही कोशिश करता कि वह अपने पापा के सामने न आए.
कुछ समय बाद ठाकुर साहब ने उस का विवाह करने की सोची. दोएक जगहों से लड़कियों के फोटो भी उपलब्ध किए. अतुल की मां ने उसे फोटो दिखाते हुए शादी की बात की तो अतुल ने फोटो देखने से इनकार कर दिया. उस ने कह दिया, ‘मुझे शादी नहीं करनी है.’ इसी तरह समय निकलता गया. महीना व साल गुजर गया. अब हम दोनों का मिलनाजुलना तो कम हो गया पर दिल में आकर्षण बना रहा. मेरे पिताजी को भी मेरी शादी की चिंता सताने लगी. उन्हें भी पता हो गया था हम दोनों के प्रेमप्रसंग का. उन्होंने मुझे डांट लगाई थी कि मैं आइंदा अतुल से न मिलूं. वे जानते थे कि ठाकुर साहब कट्टर ठाकुरवादी हैं. सो, शादी के लिए तैयार नहीं होंगे. वे स्वयं तो सवर्ण में शादी करने के विरोधी नहीं थे. अपने बच्चों के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे.
मैं ने ही अपनी मां से कहा, ‘मांजी, अगर अतुल कहीं और शादी कर लेते हैं तो तब मुझे कहीं भी शादी करने से कोई एतराज नहीं होगा. पर अभी मेरी शादी तय नहीं करें तो अच्छा होगा.’