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उन सब के आपसी प्रेम को देख कर मानसी को बड़ी खुशी हुई. रात को जब सब सोने चले गए, मानसी बगीचे में टहलने निकल गई. अब उस के पास कुछ ही दिन थे, फिर उसे वापस जाना होगा. वह विचारों में मग्न थी कि तभी किसी के वहां होने का एहसास हुआ. उस ने पलट कर देखा तो शीला खड़ी थी. दोनों में शुरू में इधरउधर की बातें होती रहीं...

‘‘जब पापा...’’ कहतेकहते रुक गई थी शीला, ‘‘तब उन के पास विभा ही थी.’’

मानसी ने उस की आंखों में वेदना को देखा.

‘‘फिर विभोर का इतना दूर होना, वापस आने पर...’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी.

मगर मानसी सम झ गई कि वह क्या कहना चाहती है.

‘‘अच्छा हुआ जो आप आ गईं. लंबे अरसे बाद मैं ने विभा का यह रूप देखा है.’’

शीला के इस कथन पर मानसी के अधरों पर स्वत: ही मुसकान खेल गई.

उसी रात मानसी और शीला ने निकट भविष्य के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय

ले लिए.

1 वर्ष बाद मानसी, मम्मीपापा के पास जा रही है. इस बार उस की यात्रा एकांत में नहीं है. कुछ माह में ही शीला ने देश की सर्वोच्च साहित्यिक संस्थान में अपनी जगह बना ली. अब वह देशभर में लिटरेरी इवेंट्स करवाती है. संभवत: शीघ्र ही वह इंटरनैशनल कम्युनिटी में भी इवेंट्स और्गेनाइज करे. गत वर्ष की घटनाएं मानसी के मन में उभरने लगी.

उस ने कितना सही फैसला लिया था शीला को और्गेनाइजर बनाने का. उस निर्णय का इतना प्रभावपूर्ण परिणाम निकलेगा इस की कल्पना तो उस ने भी नहीं की थी. जब विभा ने उसे सबकुछ बताया था तभी उस ने सोच लिया था कि वह शीला की जितनह बन पड़ेगी उतनी मदद करेगी. उस रात जब शीला उस से बात करने आई, उसे ऐसी अनुभूति हुई मानो यदि स्वयं मानसी ने कभी दबाव में आ कर आननफानन में विवाह कर लिया होता तो वह भी यों ही बिखर गई होती. तभी उस ने निश्चय कर लिया था कि वह शीला की हरसंभव सहायता करेगी. इसी उद्देश्य से वह उसे अपने साथ दिल्ली ले आई.

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