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‘‘क्रोध से अकसर बनती बात बिगड़ जाती है. अगर आप अपने मातृत्व को जीवित रखना चाहती हैं तो अपने गुस्से को मारना सीखिए, क्षमा करना सीखिए. इसे टीचर का भाषण नहीं, मित्र की नसीहत समझ कर याद रखिएगा.’’

मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा थी. सच ही तो कह रही थी वह, मुझे गुस्से में बेकाबू हो कर अपने बच्चे को यों बेलन से नहीं मारना चाहिए था. मिहिर की पिंडली बेलन की मार से इस कदर सूज गई थी कि वह सही ढंग से चल भी नहीं पा रहा था.

‘मुझे क्षमा करना मेरे बच्चे. आज के बाद फिर कभी नहीं,’ मन ही मन निर्णय कर मैं सचमुच रो पड़ी.

और आज उसी की बदौलत मेरा बेटा न सिर्फ पढ़ाई में ही आगे है बल्कि क्रिकेट में भी खूब आगे निकल गया है. पहले अंकुर 12 फिर 14 और अब अंडर 19 के बैच में खेलता है. कई बार अखबार में उस की टीम के अच्छे प्रदर्शन के समाचार भी छपे हैं. मुझे अपने बेटे पर नाज है.

उस पल से ही हमारे बीच सच्ची मित्रता का सेतु बंध गया था. मैं हैरान थी उसे देख कर. सुंदरता, बुद्धिमत्ता और सहृदयता का संगम किसी एक ही शख्स में मिल पाना वह भी आज के दौर में किसी चमत्कार से कम नहीं लगा.

यह अनुभव सिर्फ मेरा ही नहीं, प्राय: उन सभी का है जो रश्मि को करीब से जानते हैं. पिछले 7 साल में उस ने न जाने कितने बच्चों पर ज्ञान का ‘कलश’ छलकाया होगा. वे सभी बच्चे और उन के मातापिता…सब के मुंह से, उस की सिर्फ प्रशंसा ही सुनी है, वह सब की प्रिय टीचर है.

वह है भी तो तारीफ के काबिल. वह अपनी कक्षा में पढ़ने वाले तकरीबन हर बच्चे की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानने का प्रयास करती है. जैसे ही उसे पता चलता है कि किसी के परिवार में कोई समस्या है, वह झट से उस का हल ढूंढ़ने को तत्पर हो जाती है, उन की मदद करने के लिए कुछ भी कर गुजरती है.

सभी बच्चों की अकसर एक ही तकलीफ होती, पैसों का अभाव. हर साल वह न जाने कितने विद्यार्थियों की फीस, किताबें, यूनिफार्म आदि का इंतजाम करती है, जिस का कोई हिसाब नहीं. नतीजतन, वह खुद हमेशा पैसों के अभाव में रहती है.

एक दिन उस की आंखों में झांकते हुए मैं ने पूछा, ‘‘रश्मि, सच बताना, तुम्हारा बैंक बैलेंस कितना है?’’

‘‘सिर्फ 876 रुपए,’’ वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘वर्षा दीदी, मेरा बैंक बैलेंस कम है तो क्या हुआ? इतने सारे लोगों के आशीर्वाद का बैलेंस मेरे जीवनखाते में इतना तगड़ा है, ये क्या कम है? मरते वक्त मैं अपना बैंक बैलेंस साथ ले कर जाऊंगी क्या? मैं तो इसी में खुश हूं. आप मेरी चिंता मत कीजिए.’’

‘‘नहीं रश्मि, तुम गलत सोचती हो. इस बात से मुझे इनकार नहीं कि मृत्यु के बाद इनसान सभी सांसारिक वस्तुओं को यहीं छोड़ जाता है, लेकिन यह बात भी इतनी ही सच है कि जब तक जिंदा होता है, मनुष्य को संसार के सारे व्यवहारों को भी निभाना पड़ता है और उन्हें निभाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है…यह बात तुम क्यों नहीं समझतीं?’’

‘‘मैं बखूबी समझती हूं पैसों का महत्त्व लेकिन दीदी, मैं ने हमेशा अनुभव किया है कि जब कभी भी मुझे पैसों की जरूरत होती है, कहीं न कहीं से मेरा काम बन ही जाता है. यकीन कीजिए, पैसों के अभाव में आज तक मेरा कोई भी काम, कभी भी अधूरा नहीं रहा.’’

मैं समझ गई कि इस नादान को समझाना और पत्थर से सिर टकराना एक ही बात थी. मेरे लाख समझाने के बावजूद वह मेरी सलाह को अनसुना कर पुन: अपने उसी स्वभाव में लौट आती है.

वह भोलीभाली नहीं जानती कि कभीकभी कुछ लोग उस की इस उदारता को मूर्खता में शामिल कर उसे धोखा भी देते हैं.

ऐसा ही एक किस्सा 6 साल पहले हुआ था. यश नाम का एक लड़का पहली कक्षा में पढ़ता था. उस की मां को किसी ने बताया होगा कि रश्मि टीचर सब की मदद करती हैं.

स्कूल छूटने का वक्त था. मैं रश्मि के इंतजार में खड़ी थी. मुझे देख कर जब वह मुझ से मिलने आई तब यश की मम्मी शांति भी अपने मुख पर बनावटी चिंता ओढ़ कर हमारे पास आ कर खड़ी हो गईं.

‘‘टीचर, यश के पापा का पिछले साल वड़ोदरा में अपैंडिक्स का आपरेशन हुआ था. वह किसी काम से वहां गए थे. अचानक दर्द बढ़ जाने पर आपरेशन करना जरूरी था, वरना उन की जान को खतरा था. आपरेशन का कुल खर्च सवा लाख रुपए हुआ था. मेरे मायके वालों ने कहीं से कर्ज ले कर किसी तरह वह बिल भर दिया था, पर उस में से 17 हजार रुपए भरने बाकी रह गए थे जोकि आजकल में ही मुझे भेजने हैं, क्या आप मेरी मदद करेंगी?’’ वे रो पड़ीं.

 

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