न जाने क्यों मुझे कुंआरे रहने का अफसोस कभी नहीं हुआ. हां, कालेजकाल में एक लड़की से प्रेम जरूर हुआ, हम दोनों साथसाथ खूब घूमे, मजे किए और बात भी यहां तक पहुंची कि दोनों शादी भी करने वाले थे, मगर किस्मत को मंजूर नहीं था. पढ़ाई में स्कौलर होने के नाते वह डाक्टर बनने के लिए दिल्ली चली गई और मैं एमएससी तक ही पढ़ सका. कुछ महीने संपर्क रहा. दोनों ने मोबाइल फोन पर घंटोंभर रात में देरी तक बात की, मगर फिर संजोग यों हुए कि हमारा संपर्क टूटने लगा. अपनी पढ़ाई या फिर अपने सहपाठी के साथ रहने के कारण उस का मुझ से फोन पर मिलना भी बंद हो गया. हफ्ते में मिलने वाले महीनों में मिलने लगे, और फिर महीनों तक बातचीत न हो पाई और दोनों ने अपनीअपनी व्यस्तता और भाग्य को स्वीकृत करते हुए बिछड़ना ही ठीक समझा.
कुछ महीने तो मेरे बड़ी कठिनाई से गुजरे. रातदिन मेरी आंखों के सामने अपनी गर्लफ्रैंड का चहेरा ही घूमता रहता. ऐसा लगा जैसे जिंदगी में सबकुछ लुट चुका हो. फिर तब और आघात सा लगा, जब मेरा ही सहपाठी मनोज मिश्रा, जो अपनी क्लासमेट सीमा से प्रेम करता था, उन्होंने शादी रचा ली.
कुछ समय मैं ने अफसोस के साथ बिताया. अपनी प्रेमिका को भूलने की कोशिश करता रहा. मेरे जेहन में फिल्मस्टार देव आनंद साहब का वह गाना गूंजने लगा – “मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.“
अध्यापक बन मैं कालेज में बोटनी पढ़ाने लगा. शादी का खयाल न जाने क्यों फिर आया ही नहीं. और मैं वह उम्र भी पार कर गया. फिर मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मुझे शादी कर लेनी चाहिए. यहां तक कि अब तो मुझे अपने अविवाहित होने का एहसास भी नहीं होता. क्या शादीशुदा लोग हमेशा खुश रहते हैं? क्या अविवाहित लोग दुखी हो जाते हैं? उन्हें अकेलापन खलने लगता है? ऐसे कई सवाल मेरे दिल में कभीकभार उठते रहते थे. मैं स्वयं भी इस का उत्तर खोजने की चेष्टा कर रहा था, तभी मेरा वह सहपाठी मनोज मिश्रा मुझे अचानक बाजार में मिल गया. उसे देखते ही मैं हैरान रह गया और पहले तो उसे पहचान ही नहीं पाया. उस का फीका चेहरा देख यों लगा जैसे वह महीनों से बीमार हो और शरीर से भी वह काफी दुबलापतला लग रहा था.
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