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सास को काटो तो खून नहीं. गुस्से और भय के मारे उसे कुछ सूझ नहीं रहा था. वह इरा के हाथपैर जोड़ने लगी, बोली, ‘‘बता किस का है? कहां गई थी?’’

‘‘मैं कहीं नहीं गई, आप ने ही भेजा था उसे...’’

‘‘मैं ने?’’ सास का सिर चक्करघिन्नी की तरह घूम गया, ‘‘किसे भेजा था मैं ने?’’ उन के सब्र का बांध पूरी बर्बरता से टूटा, वे जोर से चिल्लाईं, ‘‘कर्मेश? वह तो बच्चा है, पागल है...’’

‘‘पर, मैं तो पागल नहीं हूं.’’

बात फैलनी थी, फैल गई. सासससुर घर में कैद हो गए. इरा को न पहले ज्यादा फर्क पड़ता था न अब पड़ता. चाची के परिवार में सब इरा को कोसते, गालियां देते, पर उन्हें बदनामी का कोई डर नहीं था. ‘क्या मालूम किस ने किया है ऐसा काम, कर्मेश ने कुछ किया भी होगा तो उस में अपना ज्ञान तो है नहीं, जरूर उसी ने कुछ बदमाशी की होगी.’ उस घर में कमोबेश सब के जुमले ऐसे ही थे. बहुएं ‘छिछि’ कह नाक सिकोड़ रही थीं.

‘‘जो भी हो पार्वती,’’ पास बैठी पड़ोस की मीना ताई बोलीं, ‘‘विधवा के पेट में बेटा है, सालों का अनुभव झूठ नहीं बुलाता, भरोसा न हो तो 9 महीने बाद नतीजा देख लेना.’’ ताई बहुओं को करंट लगा गई थी.

‘‘हुंह, बेटा है, भूल गई होगी खुद की औकात कि विधवा है. न पहले कोई पूछता था, न अब पूछेगा.’’ ताई की बातों में कोई इशारा था जिसे चाची ताड़ तो गई थीं पर संस्कार और समाज का डर सचाई आंख चुराना चाह रहा था. पर ताई का सुझाया लालच मन में गड़ गया था. अचानक इरा उन्हें बेचारी लगने लगी और कर्मेश पूर्ण वयस्क. जो काम तंदुरुस्त भाइयों से नहीं हो पाया वह अपंग, लाचार ने कर दिया. अब तो चाची जबतब इरा का हालचाल पता करतीं. 9 महीने बीते. इरा ने बेटे को जन्म दिया. कर्मेश का हू-ब-हू दूसरा रूप, स्वस्थ और प्यारा बच्चा. इरा बेहद खुश थी, अब कुछ तो था जो उस का था. एक अंतहीन इंतजार अब खत्म हो चला था. खबर हर घर में पहुंची. चाचीसास के घर भी सब ने सुनी. देखने वालों ने बताया था, ‘‘कर्मेश जैसा दिखता है, बड़ा हो कर कर्मेश ही निकलेगा. कर्मेश के मांबाप ने भी सुना और न जाने कहां से ममता हिलोरे लेने लगी, कर्मेश जैसा दिखता है? सच, चलो, जरा देख आएं.’’ पोता पाने की उम्मीद दोनों बुजुर्गों ने छोड़ ही दी थी,

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