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गीले शरीर पर पतली सी धोती लपेटे, मर्दों के सैलूनों में झांकती चलती इरा, दहलीज पर खड़ी हो, वहीं बाईं ओर पड़े तांबे के लोटे में से थोड़ा जल उंगलियों पर डाल खुद पर छिड़कती. यह शुद्धीकरण रास्ते की गंदगी से भी होता और अपने मन की अशुद्धि से भी. मन की अशुद्धि क्या थी, यह इरा नहीं जानती थी, पर लोग जानते थे. कहते थे, विधवा है फिर भी तालाब पर नहाने जाती है, इधरउधर झांकती है, जवान है, विधवा है, घर पर रहे. पति फौज में था, देशसेवा में जान दे दी, पर इस से इतना भी नहीं होता कि गांवसमाज के संस्कारों की लाज रखे.

इरा सब सुनती और मन ही मन हंसती, रो भी सकती थी पर उस से क्या हो जाता. लोगों को वह दयनीय लगती थी पर खुद को नहीं. इरा का परिवार शहर में रहता था. इरा भी परिवार के साथ ही रहती थी. शहरी परिवेश में पलीबढ़ी इरा ने स्नातक तक की पढ़ाई कर ली थी. आगे पढ़ना चाहती थी पर ऐसा हो नहीं पाया. इरा के पिता का पूरा परिवार गांव में रहता था. न जमीन की कमी थी न रुपएपैसों की. इरा के दादा ने इरा के पिता पर दबाव डाल कर उसे गांव में ही ब्याह लिया. उन का कहना था, लड़का अच्छा है, घरपरिवार अच्छा है, किसी चीज की कोई कमी नहीं है. संस्कारों में दबे मांबाप चाह कर भी मना नहीं कर पाए. यही संस्कार इरा के आड़े आ गए. सो, वह एक फौजी की पत्नी बन गांव आ गई.

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इरा पहले भी गांव आतीजाती रही थी, पर अब यहीं उस की जिंदगी थी और यहीं उसे जीना था. पति का प्यार शायद उसे गांव के रीतिरिवाजों में ढाल भी लेता पर वह तो गोलियों का शिकार हो इरा को जल्दी ही अकेला छोड़ गया. ससुराल वालों ने इरा को शहर लौटने नहीं दिया. इरा घिर चुकी थी. कभीकभी उसे लगता जैसे वह एक चक्रव्यूह में जी रही है और इस से निकलने का एक भी रास्ता वह नहीं जानती. इरा के पास करने के लिए कुछ भी नहीं था. बेमन से सारा दिन पूजापाठ का ढोंग करती और कभी प्रसाद तो कभी कुछ रसोई से चुरा कर खा लेती. वह विधवा थी, इसलिए उसे सादा खाना दिया जाता, दालरोटी या दलियाखिचड़ी. कहते हैं इस से भावनाएं जोर नहीं मारतीं. मीठाचटपटा खाने से पथभ्रष्ट होने का भय रहता है. इरा सब सुनती और हंसती. जैसेतैसे 2 साल बीते, तीजत्योहार, शादीब्याह आते और जाते, पर इरा का जीवन तो थम चुका था.

घर में सासससुर और इरा बस 3 जने थे. सासससुर को कुछ तो जवान बेटे के न रहने का गम था और कुछ इरा के व्यवहार की नाराजगी. वे चुप ही रहते और थोड़े खिन्न भी. इरा अपनी मुक्ति के मार्ग ढूंढ़ रही थी. कटी पतंगों को भी इधर से उधर फुदकतेउड़ते देखती तो उन से ईर्ष्या करती. काश, वह भी जानवर होती. इंसान हो कर भी क्या हो रहा था. क्यों जी रही थी वह, आगे क्या होना है, क्या करना है कुछ पता नहीं था या कुछ और था ही नहीं. होने के लिए था तो बस एक अंतहीन इंतजार, वह भी किस चीज का, पता नहीं.

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पड़ोस में 4 मकान छोड़ कर इरा के ससुर के चचेरे भाई का परिवार रहता था. दोनों परिवारों का आपस में कोई मेलमिलाप नहीं था पर कोई बैर भी नहीं था. चचेरे भाई के 4 बेटे और 1 बेटी का परिवार था. बेटी सब से छोटी थी. 3 भाइयों का ब्याह हो चुका था, और सब की 3-3 लड़कियां थीं. किसी के भी अब तक बेटा पैदा नहीं हुआ था. सो इस परिवार में भी मुर्दनी छाई रहती. चौथा बेटा दिमाग से अपंग था. वह 20 वर्ष के ऊपर था पर उस का दिमाग नहीं पनप पाया था अब तक. कर्मेश दिमाग से 5 साल का बच्चा ही था मानो. यह दुख परिवार वालों को कम नहीं था. 5वीं संतान कनक 14 साल की थी. सुंदर भी हो रही थी और जवान भी. 8वीं तक की पढ़ाई कर चुकी थी और अब भाभियों से घरगृहस्थी सीख रही थी. 1-2 साल बाद उसे ब्याहना भी तो था. बरसात के मौसम में गांव की कच्ची सड़कों व गलियों में कीचड़ कुछ ज्यादा ही होता है. ऐसी ही एक बरसाती सुबह को इरा तालाब से नहा, घर की ओर जा रही थी. हलकी रिमझिम इरा को अच्छी लग रही थी. तेजतेज चलती इरा अचानक ठिठकी. उस ने देखा, तालाब के किनारे कीचड़ में कर्मेश लोटपोट हो, खेल रहा था. पिछली रात घनघोर बारिश थी, जिस से तालाब का पानी काफी चढ़ गया था, और कर्मेश वहीें लोट रहा था. चिकनी मिट्टी से फिसल वह कभी भी भरे तालाब में गिर सकता था. आसपास कोई नहीं था. खोजती नजरों से इरा ने चारों तरफ देखा पर कोई नजर नहीं आया.

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