बारिश तेज होने लगी. इरा तय नहीं कर पा रही थी कि क्या करे. उस ने जोर से आवाज लगा कर्मेश को पास बुलाने की कोशिश की. पर कुछ तो बारिश का शोर और कुछ कर्मेश की मस्ती, उस ने इरा की आवाज नहीं सुनी. बहुत पुकारने के बाद भी कर्मेश का ध्यान इरा की ओर नहीं गया. अब इरा को ही कर्मेश के पास जाना पड़ा. फिर कुछ खाने का और उस के साथ खेलने का लालच दे वह उसे अपने साथ ले, घर की ओर चल पड़ी. कर्मेश इरा से बातें किए जा रहा था. कभी अपने दोस्तों के बारे में उसे बताता तो कभी घर में पड़ने वाली डांट और मार के बारे में. इरा का मन न होते हुए भी उसे कर्मेश की बातों में दिलचस्पी लेनी पड़ रही थी. कर्मेश को बहुत अच्छा लग रहा था कोई इतने अपनेपन से और प्यार से उस से बातें कर रहा था, उसे इतना महत्त्व दे रहा था.
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इरा के भीगे कपड़े बारिश की बूंदों से भीग कुछ और चिपक रहे थे. कर्मेश दिमाग से भले ही बच्चा था पर था तो एक नौजवान लड़का. इरा अपनेआप में धंस रही थी. जैसेतैसे घर आया. कर्मेश को छोड़ वह आगे बढ़ने लगी, तभी कर्मेश ने उस का हाथ पकड़ कर खींचा और चिल्लाचिल्ला कर रोने लगा, ‘‘तुम कहां जा रही हो? तुम ने तो कहा था मेरे साथ खेलोगी. चलो, मेरे घर चलो. हम साथ में खेलेंगे.’’ इरा बुरी तरह घबरा गई. कहीं कोई देख ले तो क्या करेगी. उस ने बमुश्किल हाथ छुड़ाया और कहा, ‘‘देखो कर्मेश, अभी बारिश हो रही है. मैं भीगी हुई हूं. तुम जाओ. मैं बाद में आऊंगी.’’
‘‘नहीं, अभी चलो,’’ कर्मेश जिद करता हुआ बोला.
‘‘मैं बाद में आऊंगी. अगर तुम नहीं माने तो मैं गुस्सा हो जाऊंगी और कभी नहीं आऊंगी,’’ जान छुड़ाने की गरज से इरा ने पैंतरा चला जो काम आया.
‘‘पक्का, तुम आओगी बाद में?’’
‘‘हां, आऊंगी…’’ इरा चिढ़ कर गुस्से से बोली और घर की ओर भागी. कर्मेश खुश हो गया, उसे नया साथी मिल गया था. इरा डरतेछिपते घर में घुसी. राहत यह थी किकिसी ने देखा नहीं वरना फिर से दोचार तमगे उस के व्यक्तित्व से जड़ जाते. कपड़े बदल वह अपनी कोठरी में आ गई. नीचे चटाई पर नाश्ता रखा था. सुबह की रसोई सास ही बनाती थीं. इरा बस शाम का खाना पकाती और सब ढकबंद कर अपना भोजन ले अंदर आ जाती. बाद में सास रसोई में जा अपना और सुसर का खाना परोसतीं. इरा ने थाली उघाड़ कर देखी. खाना रात वाला ही था. पर कोई बात नहीं, इरा की पसंद का था.
2 दिन गुजर जाने के बाद वाली सुबह को न जाने क्यों उसे भूख नहीं लग रही थी. कर्मेश के हाथ की गरमी से शायद उस की भूख झुलस गई थी.‘छि…’ अपने मन को धिक्कारती वह एक बार फिर तालाब की ओर नहाने चल दी. उधर, कर्मेश का रोरो कर बुरा हाल था. 2 दिन हो गए थे और इरा अभी तक कर्मेश से मिलने नहीं आई थी. घर वाले बारबार उस से उस के रोने का कारण पूछते और वह रोरो कर इरा को बुलाने के लिए कहता. पहले तो सब ने खूब समझाया, बड़े वाले ने दो थप्पड़ भी जड़े, पर वह ठहरा हठधर्मी, नहीं माना सो नहीं माना. हार कर कर्मेश की मां ने कनक को सब समझाबुझा कर इरा को बुला लाने के लिए भेजा.
‘‘प्रणाम, बड़ी मां,’’ कनक ने इरा की सास का अभिवादन किया. वे हैरान हुईं पर कनक को सामने देख उन्हें अच्छा लगा. कई बार मन की खेती देखभाल के अभाव में सूख जाती है, पर भावनाओं की जरा सी फुहार बालियों में रस भर देती है. उन्होंने पूछा, ‘‘कैसी हो बिटिया? आज कैसे आना हुआ?’’
कनक ने बताया कि कैसे कर्मेश ने रोरो कर सब की नाक में दम कर दिया है और इसीलिए मां ने उसे इरा को बुला लाने के लिए भेजा है. इरा की सास को सुन कर थोड़ा अटपटा तो लगा पर कर्मेश की हालत वह जानती थी. कर्मेश की हरकतों और बातों की वजह से सभी गांव और परिवार उसे बच्चा ही समझते थे. सो, सास ने भी कुछ अन्यथा नहीं लिया और ‘बच्चा दो घड़ी बहल जाएगा,’ सोच कर इरा को भेज दिया.
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अब तो यह रोज की बात हुई. कनक रोज इरा को बुलाने आती. दोनों परिवारों के बीच खुद ही एक पुल बनता जा रहा था. कुछ गांठें खुल रही थीं, कुछ बंध रही थीं. दोनों में खूब छनती और कर्मेश भी खुश व शांत रहता. विधवा इरा को भी एक काम मिल गया. दूसरों को आसान लगने वाला यह काम इरा के लिए किसी तप से कम नहीं था. लोगों को न उस का कुढ़ताकुचलता मन दिखता न कुदरती निखरता तन. इरा से किसी को हमदर्दी न थी, न ही कोई उस की इज्जत करता. कर्मेश के बहाने वह आती और बड़े से घर का सारा काम करती. बहुओं को एक नौकरानी मिल गई थी. सब से बड़ी फुरसत तो कर्मेश की तरफ से मिली थी. अब किसी को कर्मेश का कोई काम नहीं करना पड़ता था. अब दोनों देवरानीजेठानी (इरा की सास और चचेरी सास) भी खूब बातें करतीं, दोनों का एकदूसरे के बिना मन न लगता था और इन सब की सूत्रधार निरीह, निरर्थक सी सब की जलीकटी और ताने उलाहने सुनती इरा इन दोनों यानी कनक और कर्मेश के साथ खुश रहती. ‘‘आज तो तीज का त्योहार है,’’ चचेरी सास की बहुएं चहक रही थीं. हर साल ही तो आती है तीज, इरा मन ही मन सोचती. सारी बहुएं सजधज कर तैयार हुईं. आज इरा को आने के लिए मना करवा दिया गया.
‘‘सुहागिनों का त्योहार है, उस का क्या, नजर ही न लगा दे कहीं…’’ बड़की ने बड़प्पन झाड़ा.
‘‘और क्या दीदी, कैसे घूरघूर कर देखती है हमें,’’ छुटकी भी इतराई.
‘‘पर बड़ी मां तो आएंगी न?’’ बड़की ने अपनी सास से पूछा.
‘‘हांहां, और क्या. कर्मेश को वहीं भेज देते हैं और भाभी को बुलवा लेते हैं. त्योहार अच्छे से मन जाएगा.’’ देवरानी ने संदेशा भेजा, जेठानी को पसंद आया. झटपट तैयार हो, इरा को सौ हिदायतें दे चल दी. चलतेचलते कहा, ‘‘कर्मेश को यहीं भेज देंगे, वरना रोरो कर सब गुड़गोबर कर देगा.’’ वक्त पंख लगा कर उड़ा जा रहा था, पर उन पंखों में रेत भरी थी शायद. इरा दिन ब दिन रहस्य की पोटली बनती जा रही थी. ‘इरा कुछ बदली सी दिखती है,’ सास सोचती और रोज उसे ऊपर से नीचे निहारती. धीरेधीरे उस के माथे की सिकुड़नें उस के बुढ़ापे को बढ़ाने लगीं. जो सोचा है सब गलत हो तो ठीक है. आज कुछ निर्णय कर वह इरा के पास पहुंची और जोर से उस की चोटी खींच, मुंह अपनी तरफ घुमाया और उस के पेट की ओर इशारा करते हुए पूछा, ‘‘यह क्या है?’’ इरा चुप.