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उस के बाद न तो उस ने कोई फोन किया, न मैं ने. मैं भरे गले से वापस लखनऊ आ गई. घर वालों की अनदेखी ने मुझे बागी बना दिया था. बातबात पर मैं तुनक पड़ती. बस, समय यों ही घिसटता रहा.

और आज, अचानक ही अपने चिरपरिचित अंदाज में उस ने कहा था, ‘मैं नरेन, पहचाना मुझे?’

औडिटोरियम में तालियों की तेज गड़गड़ाहट से मैं भूत से वर्तमान में आ गिरी. वह सारी वाहवाही लूटे जा रहा था और मैं कोने में चेहरे पर बनावटी मुसकराहट लिए उसे देखे जा रही थी. अपने हाथ में ढेर सारी फूलमालाएं लादे वह मंच पर बैठा था. उस से नजरें मिलाने की हिम्मत मुझ में नहीं थी.

कुछ ही पलों में वह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए मेरे पास आ कर धीरे से बोला, ‘‘मैं कल सुबह वापस चला जाऊंगा. तुम चाहो तो अपने पिज्जा का उधार आज चुका सकती हो. याद है न तुम्हारे भैया के साथ...’’

मैं एकदम पिघल सी गई. बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई को छिपा लिया. इस से पहले कि वह मुझे रोता हुआ देख ले, मैं ने सिर झुकाया और पर्स में से अपना कार्ड उसे थमाते हुए कहा, ‘‘जब फुरसत हो, फोन कर लेना. मैं आ जाऊंगी.’’

कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘चलो, कौफीहोम में मिलते हैं आधे घंटे बाद. तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं, मेरा मतलब घर पर...’’

‘‘न...नहीं,’’ कह कर मैं वहां से चल दी.

मैं कौफी का कप ले कर उसी नीम के पेड़ के नीचे बैठ गई, जहां कभी हम उस के साथ बैठा करते, फिर हम रीगल सिनेमा में पिक्चर देखते और 8 बजे से पहले मैं होस्टल वापस आ जाती. अब न वह रीगल हौल रहा न वे दिन. मैं पुरानी यादों में खोई रही और इतना खो गई कि नरेन के आने का मुझे पता ही न चला.

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