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‘‘मां, रामलाल चाचा आए हैं,’’ सुरभि ने दरवाजे से ही आवाज देते हुए कहा. फिर उस ने बैठक में ही टंगा रैकेट उठाया और बाहर खेलने भाग गई.

‘‘ओफ्फोह, बोर करने आ गए साहब,’’ अखिलेश झट कुरसी खींच कर बैठ गया और कोर्स की किताब में मुंह छिपा लिया. उन की बातें सुनने से अच्छा उसे पढ़ाई करना लगता था. यों तो वह किसी के कहनेसुनने से शायद ही कभी पढ़ने बैठता था. मेरे पति भी अभी दफ्तर से लौटे नहीं थे.

हालांकि मैं भी ब्रैडरोल का मसाला तैयार करने में व्यस्त थी. पर रसोईघर तक आने में उन्हें कोई संकोच थोड़े ही होता. अत: काम छोड़ कर चुपचाप सिंक में हाथ धोने लगी. अभी हाथ पोंछ ही रही थी कि जनाब सीधे चौके तक आ पहुंचे. सारा तामझाम देख कर, मसालों की चटकदार खुशबू नथुनों में भरते हुए बोले, ‘‘वाहवाह, लगता है आज ब्रैडरोल बनेंगे.’’

‘‘हां, बच्चों को भूख लग रही है, इसलिए बना रही हूं.’’

‘‘ठीक है, बच्चों के साथ हम भी खा लेंगे, उन में और हम में कोई फर्क है क्या?’’ वह इस तरह ठहाका लगा कर हंसे मानो अभीअभी चुटकुला सुनाया हो.

मैं ने हार कर कड़ाही चढ़ाई और ब्रैडरोल तलने लगी. तब तक वे अखिलेश के कमरे में जा चुके थे. ‘‘अच्छा, तो साहबजादे पढ़ाई कर रहे हैं. कीजिएकीजिए, हम बिलकुल बाधा नहीं डालेंगे,’’ कहते हुए वे बाहर निकल आए और जोरजोर से कोई लोकगीत की धुन दोहराने लगे.

अखिलेश का उन की बातों से बचने का यह आजमाया हुआ सफल नुस्खा था. इस बार भी वह कामयाब रहा. मैं ने ब्रैडरोल की प्लेट उन्हें पकड़ाई और उन की बातें सुनने के लिए अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार कर लिया. अपने गांव, खेतखलिहान, पगडंडियां, वही घिसापिटा रिकौर्ड, अखिलेश तो सुनसुन कर तंग आ चुका था.

‘‘इतनी याद आती है अपने गांव की तो यहां क्यों नौकरी कर रहे हैं? जाते क्यों नहीं अपने गांव?’’ वह अकसर खीज कर कहता.

‘‘मजबूरियां थीं, बेटे. खेत, घर कुछ रहा नहीं, सो यहां आ गए. आगे बढ़ने की लगन थी, दिमाग भी ठीकठाक था सो छात्रवृत्ति के बल पर इंजीनियर बन गए.’’

‘‘दिमाग अच्छा था, यह बताना पड़ रहा है…’’ अखिलेश जबतब उन का मजाक उड़ाता.

उन की बातें अकेले सुनते हुए मुझे अखिलेश की टिप्पणियां याद कर के बेहद हंसी आ रही थी और वे शायद अपने पिता की मृत्यु का 10 बार सुनाया हुआ प्रसंग फिर सुना रहे थे. उन्हें मेरी बेवक्त की हंसी बेहद खली.

मुझे इस बात का ध्यान आया तो मैं ने फौरन होंठ सिकोड़ लिए.

‘‘भाभीजी, भैया तो आए नहीं. मैं सोच रहा था, उन के साथ बैठ कर चाय पीएंगे,’’ उन्होंने चायपान की भूमिका बांधी. अत: मैं चुपचाप जा कर चाय चढ़ा आई.

एकडेढ़ घंटा दिमाग चाट कर जब वे गए, सिर बुरी तरह चकरा रहा था. अखिलेश के कमरे में जा कर देखा था, हथेली पर होंठ टिकाए बैठा था.

‘‘मां, रामलाल चाचा के घर आने का एक फायदा तो है,’’ वह दार्शनिक मुद्रा बना कर बोला, ‘‘मेरा एक कठिन पाठ आज पूरा हो गया.’’

मेरा दिमाग उन की बातों से इतना बोझिल हो चुका था कि उस की इस बात पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने की भी क्षमता मुझ में नहीं बची थी.

जब पति विवेक घर आए तो मेरे क्रोध का ज्वालामुखी फूट पड़ा, ‘‘कैसेकैसे लोगों के साथ दोस्ती कर रखी है आप ने. पूरी कालोनी में जिसे कोई पूछता तक नहीं था, यहां आएदिन मुंह उठाए चला आता है.’’

‘‘रामलाल आया था क्या?’’ वे कुछ अपराधी स्वर में बोले.

‘‘और नहीं तो क्या. डेढ़ घंटे से बैठे थे. यह नहीं कि आप घर पर नहीं हैं तो चलते बनें. चायनाश्ता जब हुआ, तब गए.’’

‘‘कुछ दिनों की बात है, उस के बीवीबच्चे आ जाएंगे तो अपनेआप आनाजाना कम हो जाएगा. अकेला आदमी है, कर भी लिया चायनाश्ता तो कौन सा आसमान टूट पड़ा,’’ इन्होंने लापरवाही से कहा.

‘हुंह, खुद झेलते तो पता चलता,’ मैं ने बड़बड़ाते हुए गैस चालू की.

‘‘चाचा चले गए?’’ सुरभि ने बाहर से आते ही पूछा, ‘‘मैं तो घबरा ही गई थी कि मेरे घर लौटने तक टलते भी हैं या नहीं. सचमुच बड़े ‘बोर’ हैं.’’

11 साल की सुरभि के शब्दकोश में जब से यह शब्द आया था, वह जबतब इस का प्रयोग करती. रामलालजी वाकई इस शब्द के साथ न्याय भी करते थे. 4-6 दिनों में एक चक्कर तो जरूर लगता था उन का. भोपाल से स्थानांतरित हो कर नएनए आए थे, तब अखिलेश और सुरभि भी उन के पास बैठ जाते. लेकिन जल्दी ही उन की घिसीपिटी बातों से ऊब गए. उन का परिवार अभी भोपाल में ही था और शैक्षणिक सत्र पूरा होने पर ही वे लोग आने वाले थे. तब तक ये महाशय हमारे ही जिम्मे थे.

मेरी पड़ोसी मधुलिका का भी जवाब नहीं. जब भी आएगी, बड़ी मासूमियत से पूछेगी, ‘‘क्या सुजाता, आज रामलालजी नहीं आए?’’ जैसे कि रोज आते हों.

फिर कहेगी, ‘‘आप भी खूब हैं. न जाने कैसे सह लेती हैं ऐसेवैसे लोगों को. निपट देहाती लगते हैं और विवेक साहब को ‘भैया’ कहते हैं. सुन कर ही हमें तो बड़ा अटपटा लगता है.’’

एक रोज रामलालजी आए. आते ही उन्होंने फिर चायपान की भूमिका बांधी, ‘‘भाभीजी, ठंड बहुत है.’’

‘‘हां, सो तो है,’’ मैं ने उन की बात सुन कर शुष्क स्वर में कहा.

‘‘जरा एक कप चाय पिलाइए.’’

मैं ने लाचारी दिखाते हुए कहा, ‘‘भाई साहब, दूध तो खत्म हो चुका है.’’

‘‘अरे,’’ वह आननफानन रसोई तक पहुंच गए, ‘‘दूध तो है भाभीजी. लगता है, आप को ध्यान नहीं रहा.’’

लेकिन आज मैं भी जिद पर अड़ी थी, ‘‘दूध तो है पर अभी बच्चों ने नहीं पीया.’’

‘‘बच्चों ने नहीं पीया?’’

‘‘तब तो हम चाय नहीं पीएंगे. बच्चों को दूध पिलाना पहले जरूरी है. हमें ही लीजिए, बचपन में तो खूब दूध पीया, बाद में कुछ रहा नहीं…’’ वे अपनी रौ में बहने लगे.

‘‘भाई साहब, मुझे काम से बाहर जाना है,’’ मैं ने ताला हाथ में उठाते हुए कहा.

‘‘अच्छी बात,’’ उन का मुंह उतर आया और वह चल पड़े.

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