लेखिका-सुषमा मुनींद्र
विदेह किशोरावस्था में पहुंच गया था, पर मांबाबूजी थे कि अभी भी बच्चा सम? उस की हर गतिविधि में अपना हस्तक्षेप रखते थे. जबकि विदेह अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व चाहता था. अपनी आजादी के लिए उस ने जो कदम उठाया, क्या वह ठीक था? कृपाशंकर स्कूल जाने के समय अपने 16 वर्षीय कुलदीपक एकलौते पुत्र विदेह को सजाते हुए कह रहे थे कि ‘‘टाई की नौट तिरछी क्यों है. इधर आओ... हां, अब ठीक है और ये बाल... उफ्फ, विदेह, तुम इन्हें माथे पर क्यों गिराए रहते हो. मैं तो तरस गया कि मेरे बाल तुम्हारे बालों की तरह ऊपर की ओर मुड़ें पर कितना भी ऊपर करता हूं ये माथे पर आ ही जाते हैं और तुम्हारे बाल ऊपर की ओर रहते हैं तो भी तुम उन्हें माथे पर छितराते रहते हो.
वही फिल्मी स्टाइल... अरे, पुरुषों का चौड़ा माथा प्रखर बुद्धि का प्रतीक माना जाता है,’’ यह कहते हुए पुत्र को हाथ से थाम कर कृपाशंकर उस के बालों में कंघी फेरने लगे. 2-1 स्थानों पर कंघी की उलटी तरफ से तनिक दबाव डाल कर उन्होंने बालों से लहरिया सी बनाई. कई कोणों से पुत्र का केशविन्यास देखा और संतुष्ट हुए. फिर बोले, ‘‘और शर्ट को पैंट के अंदर कर के पहनी है न, हां, अंदर कर के ही पहना करो. स्मार्ट लगते हो. खूब ठाट से रहो बरखुरदार. वैसे, तुम चाहो तो एक बार आईना देख लो, कोई कसर तो नहीं रह गई. कद में मु?ा से ऊंचे हो गए हो, ठीक से तुम्हारा सिर नहीं दिखता है.’’ इस दौरान कृपाशंकर ही बोलते रहे. पुत्र तकरीबन चुप ही रहा. वह खिन्न था क्योंकि परसों कृपाशंकर ने उसे मित्रों के साथ दशहरे का जुलूस देखने को नहीं जाने दिया.