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‘बिलकुल मां, मुझे पूरा विश्वास है. आप सिर्फ लिखोगी नहीं बल्कि एक स्त्री का उस के स्वयं के वजूद से परिचय भी कराओगी. यह सब कैसे, कब होगा, मुझे नहीं मालूम. पर एक दिन होगा ज़रूर, मैं सिर्फ इतना जानती हूं,’ तृषा मुसकराते हुए बोली.

तृषा की बातों ने वंदना के मन में साहस का संचार कर दिया. बरसों पहले कुचले गए अपने आत्मसम्मान की गरिमामय उपस्थिति का आभास उसे एक बार फिर हो चला. शायद परिवर्तन का दौर आ चुका है. लेकिन वह अभी भी समझ नहीं पा रही थी कि यह सब कैसे कर पाएगी? बहरहाल, वंदना की सोच को एक दिशा मिल गई थी.

तकरीबन 6 महीने बाद तृषा ने मां को अपनी पसंद ऋतिक से मिलाते हुए उस से शादी की इच्छा ज़ाहिर की. तृषा की बातों से वंदना को पहले ही इस बात की सुगबुगाहट थी. उसे अपनी बेटी की पसंद पर पूरा भरोसा था लेकिन नियति एक बार फिर वंदना की परीक्षा लेने को आतुर थी. चूंकि लड़का ऋतिक छोटी जाति से था, सो इतिहास एक बार फिर अपनेआप को दोहराने की फ़िराक में था. क्योंकि प्रशांत को यह रिश्ता पूरी तरह से नामंजूर था.

वंदना को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. अकेले दम पर शादी जैसा फ़ैसला लेने की उस की हिम्मत न थी.

लेकिन इस बार सवाल बेटी के भविष्य का था, इसलिए वह हार मान कर बैठ भी नहीं सकती थी. पर आश्चर्य कि इस बार इस फ़ैसले में उस की मां उस के साथ खड़ी थीं जिन्होंने कभी जातिगत आधार पर स्वयं ही उस की खुशियों का गला घोंटा था. उन्होंने उसे अपने साथ का भरोसा दिया और तृषा की ख़ुशी चुनने की सलाह दी. सालों पहले अपनी बेटी के प्रति किए अन्याय के अपराधबोध से मुक्ति का यही रास्ता शायद उन्हें सब से कारगर लगा.

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