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वंदना सोचती जा रही थी, कि कभी धर्म, कभी मानमर्यादा के नाम पर क्यों औरत से ही हर कुर्बानी की उम्मीद की जाती है. क्या नैतिकता, धर्मशीलता, उदारता का सारा ठेका स्त्रियों ने ही ले रखा है? क्यों एक स्त्री के आगे बढ़ने से पुरुषों का स्वाभिमान आहत होने लगता है. क्यों एक स्त्री से मिली हार को यह मर्द आसानी से पचा नहीं पाता और इस की मर्दानगी चोटिल हो जाती है?

विचारों के उग्र और तर्कयुक्त प्रवाह ने वंदना को सोने न दिया. आख़िरकार उस ने बड़े ही जतन से सहेज कर रखा हुआ कागजों का एक पुलिंदा अपनी अलमारी से निकाला. अभी वह इसे खोल ही रही थी कि कुछ परेशान तृषा ने कमरे में प्रवेश किया.

‘मां, आखिर प्रौब्लम क्या है आप की, सालों से ये सब क्यों सहती चली आ रही हो?’ मां से प्रश्न करते हुए उस की नज़र अचानक उन कागज़ों के पुलिंदे पर ठहर गई. ‘यह क्या है?’

‘ये...बस, ऐसे ही.’ तृषा को यों अचानक आया देख वंदना कुछ असहज हो गई. तृषा ने उस के हाथ से कागज़ों का वह पुलिंदा ले लिया. जैसेजैसे वह उसे पढ़ती गई, उस के चेहरे पर विस्मय के भाव आते चले गए.

‘सच बताओ मां, क्या है यह सब?’ तृषा हैरान थी.

‘ये मेरे जीवन की सचाई है बेटा, जिस में मेरी अब तक की सारी कहानी दर्ज़ है. अपने दर्द को पन्नों पर उतार कर मेरा मन हलका हो जाता था, अन्यथा यह सब सहते हुए मेरा जीना मुश्किल था.’ वंदना समझ गई कि तृषा से अब कुछ भी छिपाना गलत होगा.

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