लेखक :  महावीर राजी

पीयूषजी ने स्कूटर कंपाउंड में पार्क करते हुए घड़ी की ओर देखा. 7 बज रहे थे. उफ, आज फिर देर हो गई. ट्रैफिक जाम की वजह से हमेशा देर हो जाती है. ऊपर से हर दस कदम पर सिग्नल की फटकार. रैड सिग्नल पर फंसे तो समझिए कि सिग्नल के ग्रीन होने में जितना समय लगेगा उतने में आप आराम से एक कप कौफ़ी सुड़क सकते हैं. मेन रोड के जाम से पिंड छुड़ाने के लिए आसपास की गलियों-उपगलियों को भी आजमाया. वहां समस्याएं अजब तरह की मिलीं. रास्ते के बीचोंबीच गाय, भैंस और सांड जैसे मवेशी बेखौफ हांडते दिखे, मानो गलियां संसद का गलियारा हों जहां नेतागण छुट्टे मटरगश्ती करते रहते हैं.

किसी मवेशी को जरा छू भी गई गाड़ी कि बवाल शुरू. एक महीने पहले तक पीयूषजी को शाम को घर लौटने की इतनी हड़बड़ी नहीं रहती थी. औफिस समय के बाद भी साथियों से गपशप चलती रहती. औफिस से दस कदम पर तिवाड़ी की चाय की गुमटी थी, जायके वाली स्पैशल चाय के लिए मशहूर. चाय के बहाने मिलनेजुलने का शानदार अड्डा. औफिस से निकल कर खास साथियों के साथ वहां चाय के साथ ठहाके चलते.

पीयूषजी पीडब्लूडी में जौब करते हैं. काम का अधिक दबाब नहीं. पुरानी बस्ती में घर है. पति,पत्नी और 6 साल का बेटा आयुष. छोटा परिवार. पत्नी तीखे नाकनक्श और छरहरे बदन की सुंदर युवती. शांत और संतुष्ट प्रकृति की घरेलू जीव. दोनों के बीच अच्छी कैमिस्ट्री थी. शाम को घर लौटने पर पीयूष जी के ठहाकों से घर खिल उठता. पत्नी के इर्दगिर्द बने रहने और उस से चुहल करने के ढेरों बहाने जेहन में उपजते रहते.

पत्नी चौके में व्यस्त रहती, वे बैठक से आवाज लगाते, ‘उर्मि, एक मिनट के लिए आओ,जरूरी काम है.’  पत्नी का जवाब आता, ‘अभी टाइम नहीं. सब्जी बना रही हूं.’  वे तुर्की बतुर्की हुंकारते, ‘ठीक है, मैं ही वहां आ जाता हूं. दोनों मिल कर रागभैरवी में गाते हुए सब्जी बनाएंगे.’ फिर लपकते हुए चौके में आते और उर्मि को बांहों में समेट लेते. उर्मि पति के प्रेमिल जनून पर निहाल हो उठती. टीवी देखते, बंटी के साथ खेलतेबतियाते और उस का होमवर्क करातेकराते समय कब बीत जाता, पता ही न चलता. सुबह उठते और स्वयं बाजार जा कर घर का सौदासुलफ के अलावा दूर सब्जीमंडी से ताजा सब्जी भी लाते, शौक से बिना ऊबे.

सबकुछ ठीक चल रहा था कि एक महीने पहले ऐसा क्या हो गया कि उन की सारी दिनचर्या ही उलटपुलट गई. पीयूषजी की शिक्षादीक्षा कसबे में हुई थी. कसबाई संस्कार से अभी तक मुक्त नहीं हो पाए थे. शहर के लटकेझटके से पूरे अभ्यस्त भी नहीं. सोशल मीडिया का नाम सुना था. यह होता क्या है, बिलकुल नहीं जानते थे. सहकर्मियों के बीच आपसी बातचीत में फेसबुक, व्हाट्सऐप जैसे जुमले उड़ते हुए कानों में पड़ते जरूर पर उन्होंने इन सब पर कभी ध्यान देने की कोशिश नहीं की. उन के पास मोबाइल छोटा वाला था.

औफिस में मिश्रा से उन की ज्यादा पटती. एक दिन शाम को औफिस से निकलते हुए उन्होंने मिश्रा से कहा, ‘आज पुचका खाने का मन कर रहा. चलो, पुचका खाते हैं. अहा हा हा, इमली के खट्टेमीठे पानी की याद आते ही मुंह मे पानी भर आया.’

मिश्रा हिनहिनाते हुए हंसा, ‘सौरी सर, फिर कभी. आज जरूरी काम है.’

ऐसा क्या जरूरी काम आ गया कि दस मिनट भी स्पेयर नहीं कर सकते?’

‘सुगंधा को चैटिंग का टाइम दिया हुआ है 6 बजे का,’ मिश्रा खींसे निपोरा.

‘सुगंधा…?’

‘फेसबुकिया फ्रैंड… कल विस्तार से समझाऊंगा सोशल मीडिया के बारे में, ठीक?’  मिश्रा बाइक पर बैठ कर फुर्र हो गया.

दूसरे दिन औफिस औवर के बाद तिवाड़ी की गुमटी में एक भांड चाय की गुरुदक्षिणा के एवज में मिश्रा ने पीयूषजी को फेसबुक, व्हाट्सऐप, मैसेंजर, ट्विटर आदि सोशल मीडिया की विस्तार से दीक्षा दी तो पीयूषजी के ज्ञानचक्षु खुल गए.

‘देश के हर कोने से दोस्त मिलेंगे. मित्र भी और मित्राणियां भी,’  मिश्रा खिलखिलाया, परिवार के सीमित दायरे के कुएं को हिंद महासागर का विस्तार मिलेगा. यथार्थ से परे किंतु उस के समानांतर एक और विलक्षण दुनिया, जिस की बात ही निराली है. उस में एक बार प्रवेश करें, तभी जान सकेंगे, सर.’

पीयूषजी को एहसास हुआ, मिश्रा के सामने सामान्य ज्ञान के स्तर पर कैसे तो अबोध बच्चे जैसे हैं वे. इलैक्ट्रौनिक तकनीक कितनी उन्नत हो गई, उन्हें पता ही नहीं. लोग घरबैठे

विराट दुनिया का भ्रमण कर रहे हैं, वे अभी भी कुंए के मेढ़क रहे.

दूसरे दिन ही मिश्रा के संग जा कर बढ़िया मौडल का एंड्रौयड फोन खरीद लाए. फोन क्या,

जादुई चिराग ही था जैसे. बटन दबाते ही कहांकहां के तरहतरह के लोगों से संपर्क होते निमिष मात्र लगता. चिराग के व्यापक परिचालन की ट्रेनिंग भी बाकायदा मिश्रा ने उन्हें दे दी.

सोशल मीडिया से जुड़ते ही पीयूषजी की जिंदगी में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया. फेसबुक पर मित्रों की संख्या देखते ही देखते हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ने लगी. विभिन्न रुचि व क्षेत्र के मित्र बने. कई ललनाओं ने ललक कर उन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया जिन्हें बड़ी नजाकत से उन्होंने थाम लिया. कइयों से खुद अपनी पहल पर दोस्ती गांठी.

फेसबुक के न्यूज़फीड को ऊपर खिसकाते घंटों बीत जाते. न मन भरता और न पोस्ट का ही अंत होता. ऊपर ठेलते रहो, नीचे से पोस्ट द्रौपदी के चीर की तरह निकलते रहते. व्हाट्सऐप और मैसेंजर पर चैट का सिलसिला भी खूब जमने लगा.

कुछ ही समय मे आलम यह हो गया कि हर समय  खुले  मोड में मोबाइल उन के हाथ में रहने लगा. राह में चल रहे हैं, नजरें मोबाइल पर. खाना खा रहे हैं, नजरें मोबाइल पर. किसी से बात कर रहें हैं, नजरें मोबाइल पर. न सूचनाओं का अंत होता न चैट पर विराम. हर दो मिनट पर न्यूजफीड को देर तक ऊपर सरकाने और हर तीसरे मिनट  नोटिफिकेशन चैक करने की लत लग गई. पता नहीं किस मित्र का कब और कैसा मैसेज या कमैंट आ गया हो. अपडेट रहना जरूरी है.

दोपहर ढलते ही नजरें बेसब्री से बारबार घड़ी की ओर उठ जातीं. औफिस समय खत्म होने का इंतजार रहता. लगता, जैसे किसी षड्यंत्र के तहत घड़ी के कांटे जानबूझ कर धीमी चाल से चल रहे हैं. कोफ्त से मन फनफना उठता. औफिस से निकल कर सीधे घर की ओर दौड़ते.

घर आ कर हड़बड़ करते, फ्रैश होते और मोबाइल लिए सोफे पर जो ढहते तो शाम के चायनाश्ता से ले कर रात के डिनर तक का सारा काम वहीं लेटेबैठे होता. पत्नी से संवाद सिर्फ हां-हूं तक सिमट गया. ठहाके और चुहल तो पता नहीं कहां अंतर्ध्यान हो गए थे.

पीयूषजी के पास अब घर के कामकाज के लिए समय नहीं रहा. पहले वे शाम को औफिस स लौट कर चाय पीते, टीवी देखते, आयुष का होमवर्क करा देते थे. होमवर्क कराते हुए उर्मि के साथ चुहल भी चलती रहती. अब उर्मि से साफ कह दिया कि 3 लोगों का खाना बनाने में ऐसा थोड़े ही है कि शाम का सारा समय खप जाए. उन्हें डिस्टर्ब न करें और आयुष का होमवर्क खुद करा दें. सब्जी बाजार व मेन मार्केट घर से दूर पड़ता था. पहले वे स्वयं स्कूटर से जा कर ताजा सब्जी तथा अन्य सामान ले आते थे. अब उन का सारा ध्यान सोशल मीडिया की ऐप्स पर रहता और यह काम भी उर्मि के जिम्मे आ गया.

बैड पर भी मोबाइल उन की  कंगारू-गोद  में दुबका रहता. उर्मि चौके का काम समेट कर और बेटे को सुला कर पास आ लेटती और इंतजार करती कि हुजूर को इधर नजरें इनायत करने की फुरसत मिले तो दोचार प्यार की बातें हों. पर बहुधा ऐसा नहीं हो पाता. उस समय पीयूषजी कुछ खास ललनाओं से चैट में मशगूल रहते. सूखे इंतजार के बाद आखिर उर्मि की आंखें ढलक जातीं.

कई बार ऐसा होता कि रात के 11 बजे किसी मित्र से वीडियो चैट कर रहे होते. उधर से मित्र गरम कौफ़ी की चुस्कियां लेता दिखता. कौफ़ी से उड़ती भाप आभासी होने बावजूद नथुनों में घुस कर खलबली मचाने लगती. वह खलबली कैसे शांत होती. आभासी कौफ़ी हवा से निकल कर तो नमूदार होने से रही. बगल में थकीहारी लेटी उर्मि को जगाते और कौफ़ी बना लाने का आदेश फनफना देते. पतिपरायण उर्मि को मन मार कर उठना ही पड़ता.

घड़ी की ओर नजर गई, साढ़े छह बजे थे. तेजी से कंपाउंड में स्कूटर खड़ा किया और पांच मिनट में फ्रैश हो कर सोफे पर चले आए. उर्मि चायनाश्ते की तैयारी में लग गई. पीयूषजी ने मोबाइल औन कर के पहले फेसबुक पर क्लिक किया. स्क्रीन पर गोलगोल घूमता छोटा वृत्त उभर आया. वृत्त एक लय में घूम रहा था…और घूमे जा रहा था, निर्बाध. ओह, ऐप खुलने में इतनी देर. उन्होंने मोबाइल को बंद कर के फिर औन किया.  प्रकट भये कृपाला  की तर्ज पर फिर वही वृत्त. खीझ कर औफऔन की क्रिया को कई बार दुहरा दिया. वृत्त नृत्य बरकरार रहा. इस्स… झटके से फेसबुक बंद कर के व्हाट्सऐप पर उंगली दबाई. मन में सोचा, फेसबुक बाद में देखेंगे. व्हाट्सऐप पर भी पहले जैसा वृत्त अवतरित हो आया. यह क्या हो रहा है आज. उत्तेजना में एकएक कर के मैसेंजर और ट्विटर से भी नूराकुश्ती की. पर हाय… लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल. हर जगह मुंह चिढ़ाता वही चक्र मौजूद.

उन का ध्यान इंटरनैट चैक कर लेने की ओर गया. धत्त तेरी… नैट तो सींग-पूंछ समेट करकुंभकर्णी नींद में सोया पड़ा है. बिना नैट के कोई भी ऐप खुले, तो कैसे. लेकिन नैट गायब क्यों हो सकता है. पिछले हफ्ते ही 3 महीने का पैक भराया था. कोई तकनीकी अड़चन है शायद. बचपन के दिनों की याद हो आई जब घर में ट्रांजिस्टर हुआ करता था. अकसर ट्रांजिस्टर अड़ियल घोड़ी की तरह स्टार्ट होने से इनकार कर देता. तब पिताजी उस पर दाएंबांए दोचार थाप लगाते तो वह बज उठता. पीयूषजी ने उत्तेजना से भरकर मोबाइल के बटनों को बेतरतीब टीपा, कि शायद नैट जुड़ जाए. पर सब बेकार.

उन्होंने आग्नेय नेत्रों से मोबाइल को घूरा. 15 हजार रुपए का नया सैट. इतनी जल्दी फुस्स. हंह… फनफना कर मिश्रा को फोन लगाया, ‘कैसा मोबाइल दिलाए मिश्राजी, नैट नहीं पकड़ रहा?’

‘मोबाइल चंगा है, सर. नैट कहां से पकड़ेगा, पूरे शहर की इंटरनैट सर्विस 3 दिनों के लिए बंद कर दी है सरकार ने.’

‘अरे,’  पीयूषजी घोर आश्चर्य से भर गए.

‘जामा मसजिद के पास दंगा हो गया. रैफ बुलानी पड़ी.’

जामा मसजिद तो शहर के धुर उत्तरी छोर पर है.’

हां सर, खबर है कि एक समुदाय विशेष के 2 गुटों में आपसी रंजिश से मामूली मारपीट हुई.

दंगा की आशंका से सरकार बहादुर का कलेजा कांप उठा. बस, आव देखा न ताव, ब्रह्मास्त्र

चला कर नैट सस्पैंड.’

इंटरनेट बंद, यानी डेटा बंद. डेटा बंद तो मोबाइल कोमा में जाना ही है क्योंकि इस की जान

तो डेटा नाम के अबूझ से जीव में बसती है न.

अब..?

‘अब’  सलीब की तरह जेहन में टंग गया. समय देखा, सिर्फ 6:45. 11 बजने से पहले नहीं सोते. कैसे कटेगा समय? सामने टेबल पर कछुए सा सींगपूंछ समेटे पड़ा था सैट.

पीयूषजी की आह निकल गई, ‘हाय, तुम न जाने किस जहां में खो गए, हम भरी दुनिया में

तनहा हो गए…’ आभासी दुनिया में विचरण करतेकरते समय कब बीत जाता, पता ही न चलता था. यथार्थ में क्या है…वही घरगृहस्थी, वही पत्नीबच्चे, वही चिंतातनाव. सबकुछ बासी व बेस्वाद. मन सूखे कुएं सा सायंसायं करने लगा. कुछ पल शून्य में देखते हुए निश्च्छल निश्चल बैठे रहे. फिर बुझे मन से उठे. पूरे घर का बेवजह चक्कर लगा कर वापस सोफे पर आ बैठे. रिमोट दबाकर टीवी औन किया. जल्दीजल्दी न्यूज़ व शो के पांचसात चैनल बदल डाले. मन नहीं रमा. चारपांच ऐप्स के सिवा मोबाइल के अन्य उपयोग की न तो जानकारी थी, न ही उन में रुचि. दिमाग बेचैन और जी उदास हो गया. उदासी पलकों तक चली आयी तो दबाव से कुछ पल के लिए पलकें ढलक गईं. वे अबूझ चिंतन में चले गए.

तभी उर्मि नाश्ता ले आई. बेसन के चिल्ले, साथ में गर्मागर्म चाय.

 

कहां खो गए जनाब? नाश्ता हाजिर है,’  उर्मि चहकी. उस की चहक से तंद्रा टूटी तो पलकों की यवनिका धीरे से ऊपर उठ गई. सामने उर्मि खड़ी थी. खिलखिलाने से मुंह की फांक खुली तो भीतर करीने से दुबके मुक्ता दाने चिलक उठे. मुक्ता दानों के संग कदमताल मिलाती हिरणी सी आंखें भी भरतनाट्यम कर रही थीं.

उन्होनें गहरी नजरों से पत्नी को निहारा. निहार में घोर आश्चर्य घुला था. सांचे में ढला गोरा बदन और खिलाखिला चेहरा. देर तक टिकी रहीं नजरें चेहरे पर. फिर मांग और बिंदी को छू कर अधरों से टपकती गले के नीचे की उपत्यका पर ठहर गईं. पीयूषजी पत्नी की रूपराशि देख कर चमत्कृत थे. उर्मि ही है या कोई मायावी यक्षिणी…

‘ऐसे क्या देख रहे हैं, जैसे पहले कभी देखा नहीं,’  उर्मि खिलखिलाई तो जैसे नूपुर की नन्ही घंटियां बज उठी हों. घंटियों की आवाज पीयूषजी के दिल में झंकार भर गई.

सचमुच यार, यह रूप, यह हंसी. पहली बार ही देख रहा हूं. कहां छिपाया हुआ था इस खजाने को,’  पीयूषजी की आवाज खुशी से थरथरा रही थी. रोज ही तो देखते हैं पत्नी को, आज उस का सौंदर्य इतना नया, इतना जादुई क्यों लग रहा है.

उर्मि अवाक थी. यह कैसा परिवर्तन आया जनाब में. सुखद और रोमांचक. सबकुछ सामने ही था, पर आप को दिखाई न दे तो मैं क्या करती?  शोख हंसी में लिपटे लफ्ज. दिखाई देता तो कैसे, जब से मोबाइल लिया है, आंखें ही नहीं बल्कि पूरी बौडी लैंग्वेज में रोबोट की तासीर घुल गई. आप के भीतर से आप के खुद को बेदखल कर के एक रोबोट आ बैठा और आप को पता भी नहीं. भाव और स्पंदनहीन रोबोट.

पीयूषजी एक पल के लिए ठगे से रह गए. नजरें उर्मि के चेहरे से हट ही नहीं रही थीं.

भावावेश में उसे बांहों में खींच लिया. देहस्पर्श बिलकुल नया लगा.. पहली रात का पहली छुवन जैसा. अद्भुत. पति के अप्रत्याशित आलिंगन से उर्मि रोमांच से भर गई. ऐसे उत्तप्त आलिंगन के लिए किस कदर तरस गई थी इन दिनों वह. आलिंगन ही क्यों, बैड पर के आंतरिक क्षणों की सारी क्रियाएं भी तो जिन में पहले एक उत्तेजित नशा घुला रहता था,

कितनी यांत्रिक व बेरस हो गई थी. आंखें खुशी से छलकीं तो हंसी में नमी घुल आई.

पीयूषजी ने थरथराते होंठ उस आर्द्र हंसी पर धर दिए. मन रुई सा हलका हो गया.‘वाह, चिल्ले… एक अरसे बाद बना मेरा फ़ेवरिट स्नैक,’   पीयूषजी बच्चों से चहके.

‘परसों ही तो बनाई थी,’  उर्मि तुनक कर बोली. पीयूषजी एक बार फिर चौंके, ‘अरे, परसों खाया था तो याद क्यों नहीं आ रहा?

‘याद नहीं आ रहा कमबख्त,’ पीयूषजी खीझ से भर गए. ऐसा स्मृति लोप पहले तो कभी नहीं होता था. इन सारे बदलावों के पीछे मोबाइल में दुबके आभासी दुनिया का तिलिस्म तो नहीं? वे सहम से गए. चाय पीते हुए हुलस कर उर्मि से हंसीमजाक करने लगे. तभी उन काध्यान उर्मि के टौप पर गया. गुलाबी पृष्ठभूमि पर गहरे हरे रंगों के बेलबूटे, गौर वर्ण पर खूब खिल रहे थे.

‘यह टौप तुम पर खूब फब रहा है. कब खरीदा?’  पीयूष जी प्रशंसात्मक भाव से बुदबुदाए.‘पिछले 2 महीने से यूज कर रही हूं. कितनी बार तो इस में देखा, फिर भी?’ उर्मि खिलखलाती हुई गंभीर हो गई, ‘टौप को ध्यान से देखते भी तो कैसे? नया मोबाइल लेने के बाद सारा ध्यान और सारी चेतना मोबाइल ऍप्स के ब्लैकहोल में समा गई है. घरपरिवार से कट कर आभासी दुनिया में विचरने वाले रोबोट जैसे हो गए हैं, आप. कई बार टोकने का मन किया, पर…’

कुछ पलों का मौन छाया रहा दोनों के बीच. उर्मि सामने के सोफे पर जा बैठी. पीयूषजी अपराधबोध से भर गए. उर्मि के उलाहने में कड़वा सच नहीं था क्या? सोशल मीडिया और आभासी दुनिया के पीछे विक्षिप्त दीवाने की तरह ही दौड़ रहे हैं. इस अंधी बेलगाम दौड़ ने संवेदना और सोच को छीज कर उन्हें घरपरिवार के इमोशन्स से किस कदर रिक्त कर दिया, उफ्फ. आज नैट बंद रहने से वे उस के सम्मोहन से मुक्त हैं तो सबकुछ कितना नया औरआकर्षक लग रहा है.

आहिस्ते से उठे और उर्मि की बगल में आ गए. उस की हथेली को दोनों हथेलियों में भर कर सहलाते हुए फुसफुसाए, ‘तुम ने ठीक कहा, डार्लिंग. आभासी दुनिया के छद्म सम्मोहन के पीछे की अंधी दौड़ में ढेर सारे नायाब सुख और तरल एहसास छूटते चले गए. ये सुख, एहसास, प्रेम पगे पल भले छोटे दिखते हैं, जिंदगी में कितनी ऊर्जा, कितना रस और संजीवनी भरते हैं, आज पता चला. मन कितना खाली, कितना तनहा हो गया था इन के बिना. पर अब नहीं. अब एकएक कर के इन सारे छूटे हुए एहसासों को जीभर कर जिऊंगा.

उर्मि की नजरें उठीं और पीयूषजी की नजरों से गूंथ गईं. अवगुंठन में प्यार लबलबा रहा था.‘अब यह मत कहना कि नाक की यह लौंग भी पुरानी है. मानो चांद की नन्ही सी कणिका छिटक कर ठिठौना सी आ चिपकी हो चेहरे पर. नाक की लौंग में नन्हा सफेद एडी जड़ा था

जो चेहरे को अद्भुत चमक दे रहा था. लौंग को मुग्धभाव से देखते हुए पीयूषजी हंसे तो उर्मि इठलाई, ‘पुराना है और पिछले 6 महीने से पहनी हुई हूं, जनाब.’

‘अरे, इतने दिनों से नथुने में है, फिर भी नजर नहीं गई इस पर. कमाल है. हमारा बेटा कहां

 

है, यार? बहुत दिनों से देखा नहीं उसे,’  रूम में चारों ओर देखते हुए ललक कर पूछा.

‘बेटे को देखा नहीं, बहुत दिनों से? क्या कह रहे हैं? रोज ही तो सामने बैठा होमवर्क करता रहता है, जी,’  उर्मि विस्मय से बोली.

‘आभासी दुनिया की तंद्रा में दृष्टि ससुरी यंत्रीकृत सी हो गई थी. तुम, वो, ये सारा परिवेश

सामने होते हुए भी आंखों से ओझल रहते. आज तंद्रा टूटी तो तुम्हें देखा. आज ही उसे देखूंगा. उस का होमवर्क मैं कराऊंगा, ठीक.’

‘पड़ोस में खेलने गया है, आता होगा. अब किचेन में चलती हूं, बहुत काम है,’  उर्मि उठती हुई बोली तो पीयूषजी मनुहार कर उठे, ‘प्लीज, कुछ देर रुको न, जी नहीं भरा देखने से.

खूबसूरती को भासी दुनिया में लाख विचर ले कोई, लौटना तो आखिरकार यथार्थ पर ही होता है, खाली हाथ. कितना मूर्खतापूर्ण गुजरा वह समय. जेहन में महादेवी वर्मा की पंक्तियां कौंध गईं.. विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना. परिचय इतना, इतिहास यही… महादेवीजी ने ये पंक्तियां उन जैसों के लिए लिखी होंगीं शायद.

अब छोड़िए भी. रात के खाने की तैयारी करनी है,’  उर्मि उन की बांहों से छूटने का प्रयास करती बोली, ‘देर हो जाएगी, बहुत काम है,  मेरी हंसी   देखने के लिए ढेर समय मिलेगा मिस्टर अग्रवाल.’

पर पीयूषजी के भीतर का प्रेमी आज वियोग सहने को तैयार न था. उर्मि के साथ के एकएक पल को जी लेने को मचल रहा था उन का मन. ‘तो ऐसा करते हैं कि मैं भी किचेन में चलता हूं. तुम सब्जी बनाना, मैं आटा गूंथ दूंगा.’

पीयूषजी ने भोलेपन से कहा. उर्मि पति की अदा पर फिदा हो गई. पहले वाले दिन याद हो आए जब पीयूषजी उस के इर्दगिर्द बने रहने और चुहल करने का कोई बहाना नहीं छोड़ते थे.

‘आप का मन नहीं लगेगा इन कामों में,’   उर्मि ने आंखें नचाते हुए व्यंग्य किया.

‘लगेगा और खूब लगेगा. उस पिशाच को कंधे से उतार कर पेड़ पर उलटा लटका दिया है,’ पीयूषजी की आवाज आत्मविश्वास से लबरेज थी.

फिर परात में आटा, आटे में पानी, पानी मे थोड़ी चुहल और थोड़े ठहाके. फेंटते हुए देर तक

मनोयोग से आटा गूंथते रहे. ऐसा मजा जीवन में पहले कभी नहीं आया.

इसी बीच आयुष पड़ोस से खेल कर आ गया. पीयूषजी ने लपक कर उसे गोद में उठा लिया मानो अरसे बाद गोद मे लिया हो. वात्सल्य के विलक्षण फुहार से भीग गया उन का मन. बेटा भी थिरक कर चूजे की तरह चिपक गया उन से. फिर होमवर्क कराते हुए उस की मासूम बातों व हरकतों में खूब आनंद मिला.

डिनर के बाद उर्मि को ले कर छत पे चले आए. काफी दिनों बाद छत पर आए थे. सबकुछ नयानया लग रहा था. आंगन, डोली, पिछवाड़े खड़ा अमरूद का छतनार पेड़. विभिन्न किस्मों के फूलों और शो पत्तों के छोटेबड़े बीसेक गमले. कलैक्शन उन्हीं का तो किया हुआ था, चाव से. देखरेख के अभाव में कुछ अधखिले थे तो कुछ मरणासन्न. जैसे उन्हें उलाहना दे रहे हों कि नन्हें दोस्तों को भूल क्यों गए, सर?  ग्लानि से भर गया मन. कल से तुम्हारी सेवा में हाजिर रहूंगा, दोस्तों. आकाश में इस छोर से उस छोर तक विशाल स्याह चंदोबा तना था. चंदोबे पर एक ओर न्यून कोण में टिका चतुर्दशी का चांद. दोनों की नजरें उस पर टिक गईं.

चौदहवीं का चांद  उर्मि क्लिक कर बोली, ‘कितना प्यारा लग रहा न?’ ‘हां, एक अंतराल के बाद देख रहा हूं. उस चांद को भी और इस चांद को भी. आभासी दुनिया की सनकभरी दौड़ में ऐसे रोमांचकारी अनुभूतियों से रूबरू नहीं हो सका कभी,’   पीयूषजी उर्मि की बांह थाम कर थरथराती आवाज में बोले, ‘बेशक, आज के युग में सोशल मीडिया से दूर रहना संभव नहीं पर मेरे लिए वह  कीप  की तरह होगी. सिर्फ कुछ देर का लाड़, बस. उसे ड्रैकुला की तरह अनुभूतियों व इमोशन्स का खून नहीं चूसने दूंगा. उस दुनिया की सैर के दौरान भी तुम सब को, तुम को, आयुष को, घरपरिवार को और सारे सैंटीमैंट्स को साथ लिए रखूंगा.’

सुबह यथासमय नींद खुल गई. पहले नींद खुलते ही बेताल जेहन में प्रकट हो जाता और हाथ मोबाइल ढूंढने लगते. आज दिल और दिमाग शांत थे. चाय पी कर छत पर चढ़ गए.खुरपी, संडासी, ट्रिमर, वाटर केन आदि निकाला. 2 घंटे की बेसुध सेवा. एकएक पौधे को सहलाया. सहलाते हुए मन रोमांच से सराबोर होता रहा. ऐसे अनिवर्चनीय सुख से क्यों कर विमुख रहे अब तक. गमलों का काम कर के सब्जी बाजार गए. सारा परिवेष नया सा लग रहा था. रामखेलावन, मंगरु साव और पिंटू के पुराने ग्राहक थे. सभी लोग उलाहना देते हुए चहक उठे, ‘भले ही कुच्छो न खरीदो साहेब, पर दुचार दिनन पर आ कर मिल लो, तो दिल जुड़ा जात है.’

इन अनजान लोगों के मूर्त अपनापन के आगे आभासी मित्रों के छद्म, सहानुभति कितनी खोखली है. पीयूषजी उन लोगों के स्नेह से भीतर तक भीग गए.

औफिस में इंटरनैट बंद होने से सभी के चेहरे क्षुब्ध थे मानो कोई नायाब खजाना लुट गया हो. सभी पानी पीपी कर सरकार को कोस रहे थे. यह भी कोई बात हुई कि शहर के किसी ओनेकोने में जरा सा फसाद हुआ नहीं कि इंटरनैट बंद. नैट के बिना जनता की जान हलक में आ जाती है, यह नहीं सोचती वह.

कल के ढेर सारे नायाब अनुभवों से गुजरने के बाद पीयूषजी का मन शांत था. उन की टिप्पणियों को सुन कर मजा आ रहा था. देखतेदेखते 2 दिन बीत गए. 2 दिनों में  सदियों को जी लिया हो जैसे. शाम को औफिस से लौट कर घर में प्रवेश करते ही मिश्रा का फोन आ गया, ‘नैट चालू हो गया, सर. 6 बजे गूगल मीट में जुड़ना है.’

‘कीप…हंह,’ उन की हंसी छूट गई.

चाय पीते हुए पीयूषजी ने पत्नी से हुलस कर कहा, ‘तैयार हो जाओ. घूमने निकलेंगे. पहलेमल्टीप्लैक्स में फ़िल्म, फिर किसी बढ़िया रैस्तरां में शानदार डिनर. तुम सब को वापस हासिल कर लेने का सैलिब्रेशन, ओके.’

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