मेरे मोबाइल फोन पर ईमेल सुविधा नहीं है, इसलिए मैं ने मित्र के कंप्यूटर पर ही अपना ईमेल अकाउंट सेट कर रखा है. मैसेज बड़ौदा से आया था. वहां मेरा छोटा भाई है. घर की देखभाल करते हुए वह वहीं पढ़ भी रहा है. कहीं उसे कुछ हुआ तो नहीं? 2 वर्ष पहले जब कोरोना फैला था शिक्षकों को कोचिंग क्लासों से निकाल दिया गया था, परिणामत: मैं अहमदाबाद चला आया और वहां छोटामोटा काम करने लगा. अहमदाबाद में मकानों की तंगी के कारण छोटे भाई को वहीं छोड़ आया.

पासवर्ड डाल कर मैसेज पढ़ा, शब्दों पर नजर पड़ते ही चेहरे का रंग पीला पड़ गया. बरबस ही होंठों पर मुसकान आ गई. संक्षिप्त सा मैसेज था, ‘‘भाभी आ गई हैं. जल्दी आ जाओ.’’

मैसेज पढ़ने के पहले चिंता के जो गहरे बादल चेहरे पर छा गए थे, वे हट गए. मैं सोच में पड़ गया. यह अभी कैसे आ गई? उसे गए अभी डेढ़ वर्ष ही तो हुआ है. हमेशा कहा करती थी, ‘देखना, अब की जाऊंगी तो कभी लौट कर नहीं आऊंगी. मैं अपने भाइयों के पास जिंदगी काट लूंगी.’

वैसे भी उस के जो मैसेज इधरउधर आते थे, उन से पता चलता था कि वह अभी एक वर्ष तक नहीं आएगी. मुझे तो उस ने ब्लौक कर रखा था. शायद उस के पास स्मार्टफोन था, पर मैं बिना इंटरनैट वाला फोन ही इस्तेमाल करता था. अब यह अचानक कैसे आ टपकी? सोचा, इतवार की छुट्टी में जाऊंगा. लेकिन वहां जाने पर सुख भी क्या मिलेगा? जब वह गई थी, शादी हुए 6 वर्ष हो गए थे. मैं ने उसे प्रसन्न रखने के लिए क्या नहीं किया? उस की ख्वाहिश का खयाल रखा. हर तरह से सुखी रखने का प्रयत्न किया, मगर बेगम साहिबा थीं कि बस गुमसुम, न हंसना, न बोलना. पर, इतना तो मानना पड़ेगा ही कि उस में एक प्रशंसनीय खूबी जरूर है. उस ने मेरे हर शारीरिक आराम का खयाल रखा. वक्त पर हर काम तैयार. मुझे कभी शिकायत का मौका ही नहीं दिया, लेकिन यह भी कोई जिंदगी है. बस मशीन की तरह काम किए जा रहे हैं. कई मर्तबा मैं ने उस को हंसाने का प्रयत्न किया. खुश रहना सिखाना चाहा. लेकिन हंसना तो दरकिनार, क्या मजाल कि होंठों पर मुसकराहट तो आ जाए. खुदा ने न जाने किस मिट्टी से बनाया है उस औरत को कि मुझे भी गंभीर मनोवृत्ति का बना कर रख दिया.

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