फोन की घंटी की आवाज सुन कर धूल झाड़ते मेरे हाथ एकदम से रुक गए. लगता है मेरे शहर में वापस आने की सूचना परिचितों को मिल गई, यह सोचते हुए मैं ने मुसकरा कर फोन का चोंगा उठा लिया.
‘‘हैलो…’’
‘‘हैलो, स्नेहा.’’
‘‘हाय, मोहिनी, यार…’’
‘‘स्नेहा, तुम घर आ जाओ,’’ मेरी बात बीच में ही काट कर मोहिनी ने फोन रख दिया.
हाथ में फोन लिए मैं स्तब्ध खड़ी थी. मेरी स्तब्धता की वजह मोहिनी का स्वभाव था. घंटों गप मारना तो मोहिनी की फितरत है, फिर आज जब इतने सालों बाद उस का फोन आया तो न कोई बात, न गिला, न शिकवा. जरूर कोई खास बात है जो वह फोन पर नहीं कहना चाहती है. मोहिनी की इस हरकत ने मु झे चिंता में डाल दिया और मैं झट नहाधो कर उस के घर के लिए चल दी.
कार में बैठते ही एक अनाम डर मु झ पर छाने लगा. कहीं मोहिनी का डर सच तो नहीं हो गया? कहीं प्रकाश सचमुच उन लोगों को छोड़ कर चला तो नहीं गया? इसी उल झन में मेरा मन अनजाने ही अतीत की पगडंडी पर चलता हुआ 20 साल पीछे के समय में पहुंच गया.
मोहिनी की शादी को हुए 10 साल हो गए थे पर उस के आंगन का सूनापन बरकरार था. एक बच्चे की चाह में मोहिनी और नरेंद्र तड़प रहे थे. उन की अपनी संतान होने की उम्मीद अब समाप्त हो चुकी थी. नरेंद्र की इच्छा थी कि वे एक बच्चा गोद ले लें पर मोहिनी किसी दूसरे की औलाद को अपनाने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थी.
नरेंद्र ने इस काम में मु झ से मदद मांगी. उन का खयाल था कि बचपन की सहेली होने के कारण शायद मैं मोहिनी को सम झा सकूं. मैं ने मोहिनी से बात कर के यह महसूस किया कि उस के मन के किसी कोने में यह बात घर कर गई है कि पराया बच्चा पराया ही रहेगा. वह दूसरे की वंशबेल को अपने आंगन में रोपने को तैयार नहीं थी. उस का मानना था कि दूसरे का खून कब धोखा दे जाए, क्या पता. वह अपनी सूनी गोद और घर में फैले सूनेपन को नियति
का क्रूर प्रहार मान कर स्वीकार कर चुकी थी.
हम सब के सम झाने और नरेंद्र की इच्छा के आगे आखिरकार मोहिनी झुक गई. परिणामस्वरूप ओस की बूंद की तरह एक साल का मासूम प्रकाश उन के आंगन में आ गया और धीरेधीरे फैलता हुआ उन के सूखे आंगन को गीला करने लगा. अब उन के आंगन से मासूम प्रकाश की किलकारियों की आवाजें आने लगीं.
नरेंद्र ने उस मासूम का नाम प्रकाश इसीलिए रखा क्योंकि वह उन की अंधेरी दुनिया में खुशियों का प्रकाश ले कर आया था. मोहिनी नन्हे प्रकाश का हर काम बड़े जतन से करती और उस के सुखदुख का पूरा खयाल रखती पर जैसेजैसे प्रकाश बड़ा होता जा रहा था, मोहिनी का डर भी बढ़ता जा रहा था.
एक बार बहुत भावुक हो कर मोहिनी ने कहा था, ‘स्नेहा, प्रकाश मेरा बड़ा ही प्यारा खिलौना है. किंतु खिलौना कितना भी प्रिय क्यों न हो, सारी उम्र किसी के पास नहीं रहता, इसलिए देखो, यह कब मु झे छोड़ कर जाता है.’
मोहिनी को कुछ भी सम झ पाना बहुत मुश्किल था क्योंकि वह दिमाग से नहीं, दिल से सोचती थी.
उस दिन प्रकाश का इंटर का परीक्षाफल निकला था. वह प्रथम आया था. सभी बहुत प्रसन्न थे. मैं भी बधाई देने उस के घर गई थी. मु झे ले कर मोहिनी पीछे के बरामदे में आ गई और कबूतर के घोंसले को दिखा कर बोली, ‘इसे देख रही हो स्नेहा, इसे देख कर मु झे बहुत डर लगता है. कितने जतन से कबूतरकबूतरी एकएक तिनका जोड़ कर अपना घोंसला बनाते हैं, फिर 24 घंटे अपने अंडे की रक्षा करते हैं. एकएक दाना चुग कर बच्चों की नन्ही चोंच में डाल कर उन्हें पालते हैं और जब इन को उड़ना आ जाता है तब ये अपने पंख फैला कर सदा के लिए उड़ जाते हैं.
‘ऐसे ही एक दिन प्रकाश भी उड़ जाएगा और उस दिन से मैं बहुत डरती हूं क्योंकि नरेंद्र बिलकुल टूट जाएंगे. वे तो भूल ही गए हैं कि यह उन का बेटा नहीं है. आस लगाए बैठे हैं कि प्रकाश उन के बुढ़ापे का सहारा बनेगा. पर, पराया तो पराया ही होता है न?’
मैं आश्चर्य से मोहिनी को देख रही थी. उसे सम झने की कोशिश कर रही थी पर सब व्यर्थ. उस दिन मु झे सम झ में आया कि उस का डर कितना गहरा, कितना बड़ा है और मु झे विश्वास हो गया कि उस के मन से यह डर कभी कोई नहीं निकाल सकेगा. वह ताउम्र इसी भय के साथ जिएगी. आज अचानक इतने वर्षों बाद उस ने इस तरह फोन कर के बुलाया है. कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है.
अतीत की यादों में खोई मैं कब मोहिनी के घर पहुंच गई, जान ही नहीं पाई. ड्राइवर की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी. आशंकाभरे दिल के साथ मैं ने घर में प्रवेश किया. सामने मोहिनी बैठी थी. उस का कुशकाय शरीर देख मैं हैरान रह गई. कभी गोलमटोल, खिलीखिली रहने वाली मोहिनी मु झे इस हाल में मिलेगी, इस की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी.
मोहिनी का डर विशाल रूप ले कर मेरे सामने खड़ा हो गया था. किसी तरह खुद को संभाल कर मैं आगे बढ़ी. मेरे पास पहुंचते ही मोहिनी एकदम से खिल उठी. बीमार हालत में भी उस के चेहरे का तेज और आंखों की खुशी छलकीछलकी पड़ रही थी. मेरा हाथ पकड़ कर मोहिनी बोली, ‘‘स्नेहा, तु झे यह खुशखबरी देने के लिए बुलाया था कि तेरी मोहिनी की गोद भर गई.’’
मैं फटीफटी आंखों से मोहिनी को देख रही थी. बड़ी मुश्किल से बोल पाई, ‘‘इस उम्र में?’’
‘‘हां, इस उम्र में एक जवान बेटे से मेरी गोद भर गई.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘मतलब प्रकाश,’’ यह कहते समय उस की आंखों से एक मां का निश्चल प्यार छलक रहा था और मैं अपलक उसे निहार रही थी.
वह अपनी ही रौ में फिर बोलने लगी, ‘‘मेरे सब से बड़े डर की राजदार तुम हो पर आज मैं यह स्वीकार करती हूं कि मेरा डर बिलकुल बेबुनियाद था. नन्हा बच्चा तो बिलकुल मिट्टी की लोई होता है, उसे जैसा चाहो गढ़ लो, जैसा चाहो बना लो. वह अपनापराया जानता ही नहीं. वह तो पहचानता है सिर्फ प्यार.’’
‘‘अब प्रकाश को ही लो. आज के इस युग में जब बच्चों के लिए उन के अपने बूढ़े मांबाप बो झ बनते जा रहे हैं, वह सच्चे अर्थों में हमारे बुढ़ाने की लाठी बन कर खड़ा है. आज अगर हम दोनों जिंदा हैं तो सिर्फ प्रकाश की वजह से. पिछले साल नरेंद्र की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई थी. डाक्टर ने बताया कि उन की दोनों किडनियां खराब हो गई हैं. डर और चिंता से मैं ने भी चारपाई पकड़ ली पर प्रकाश दौड़भाग करता रहा और अंत में अपनी एक किडनी दे कर उस ने नरेंद्र को मौत के मुंह से वापस खींच लिया.
‘‘मेरी अपनी कोख से जन्मा बच्चा ऐसा ही करता, इस की क्या गारंटी है. सच है, प्यार के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं है. प्रकाश की दिनरात की सेवा का परिणाम है कि कल नरेंद्र अस्पताल से घर वापस आ गए हैं.’’
मेरी प्यारी सहेली की बरसों की साध पूरी हो गई थी. उस की खुशी से मेरी आंखें नम हो आई थीं. उस के आंगन में खिले इस फूल की महक से मैं भी अछूती नहीं रही. मेरे चेहरे पर संतोष की एक शीतल मुसकान तैर गई जो उसे गोद भरने की बधाई दे रही थी.