शोक के साथसाथ बदहवास था सुकेश का परिवार. सत्य क्या होगा मैं समझ सकता हूं. बुरा हो मेरी मां का, मेरी बहन का जिन्हें झूठ बोलने से जरा भी डर नहीं लगता. मरने वाले की मिट्टी का इस से बड़ा अपमान, इस से बड़ा मजाक क्या होगा जिस की आत्महत्या का रंग उस की निर्दोष बहन के चेहरे पर कालिख बन कर पुत गया.
ऐसा क्या किया सुकेश ने? आत्महत्या क्यों की? मारना ही था तो रज्जी को मार डालता. सुकेश का दाहसंस्कार हुआ और उसी चिता में मेरा, मेरी मां और बहन के साथ जन्मजात रिश्ता भी जल कर राख हो गया. अच्छा नहीं किया रज्जी ने. अपना घर तो जलाया, अपनी ननद का भविष्य भी पाताल में धकेल दिया. श्मशान भूमि में खड़ा मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कहां जाऊं? मेरा घर कहां है? क्या वह मेरा घर है जहां मेरी विधवा मां, विधवा बहन रहती है जिन के साथ हर किसी की सहानुभूति है या कहीं और जहां मैं अकेला रह कर चैन से जीना चाहता हूं?
सच्चा भय था मेरे पिता की आंख में जब उन की मृत्यु हुई थी. सच है, मैं इन दोनों के साथ नहीं जी सकता. नहीं रह पाऊंगा अब मैं इन दोनों के साथ. किसी के हंसतेखेलते परिवार से उन का जवान बेटा छीन कर उस के परिवार का तमाशा बना दिया, कौन सजा देगा इन दोनों को? किसी भी परिवार के अंदर की कहानी भला कानून कैसे जान सकता है जो इन्हें कोई सजा मिले. सजा तो मिलनी चाहिए इन्हें, किसी का सहारा छीना है न इन्होंने, अब इन का भी सहारा छिन जाए तो पता चले आग का लगना, घर का जलना किसे कहते हैं.
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