उस की बात सुनते ही मां एकदम से अगियाबैताल हो गई, “हांहां, अब वह बड़े घर की मालकिन जो बन गई है न. उसे अब अपने भाइयों की याद क्यों आने लगी. हम ने उस की शादी के पीछे अपनी सारी धनदौलत लगा दी. अब वह हमें-तुम्हें क्यों पूछने लगी. अब तुम्हारे पापा भी तो नहीं रहे, जो उस का घर भरते. वो तो

पिछले ही साल इस कंबख्त कोरोना की भेंट चढ़ गए. वह तब नहीं आई, तो अब क्या आती इस रक्षाबंधन में.

“उस को इस तरह बनाने के पीछे तुम्हारे पापा ही थे, और क्या. मैं पहले ही मना कर रही थी कि बेटी जात को इतना सिर न चढ़ाओ. मगर मेरी सुनता कौन है.” सदा की तरह मां अपना कोप पापा पर प्रकट करने लगी थी, “सारी पूंजी उस की शादी में शाहखर्ची दिखाने में झोक दी. जरा भी न सोचा कि तीनतीन बेटे हैं, उन का क्या होगा. अब भुगतो सभी महारानी की बात. भाइयों को सहयोग करना तो दूर, देखने के लिए फुरसत तक नहीं. जब तक तुम्हारे पापा रहे, हर बार आआ कर नोंचखसोंट कर ले जाती रही. अब कुछ रहा नहीं, तो दो पैसे के धागे भिजवाना भी भारी पड़ने लगा. फोन पर कहती है, राखी भेजना भूल गई थी. वहीं खरीद बंधवा देना.”

“अब सुबहसुबह हुआ क्या जो इतनी शोर मचा रही हो,” बड़े भैया दिनेश परेशान स्वरों में पूछ बैठे, “किसी को चैन नहीं लेने देती.”

“तुम्हारी ही लाड़ली बहन की बात हो रही है,” मां उन पर चिल्लाई, “फोन कर बता रही थी महारानी कि राखी खरीद बंधवा देना.”

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...