लेखिका- डा. रंजना जायसवाल
सर्द गुलाबी सुबह... बगीचे में पड़ी लकड़ी की बेंच और उस पर नटखट सा लुकाछिपी खेलता धूप का एक टुकड़ा... मखमली हरी दूब में मोती सा चमकता, लरजता ओस का एक कतरा... ऐसा लगा मानो ओस को अपने माथे पे मुकुट सा सजाए वो दंभ से इठला रहा हो... पर, शायद वो यह नहीं जानता था कि उस का यह दंभ क्षणभर का है. धूप का वो टुकड़ा... जी हां, वो धूप का वही टुकड़ा, जो अब तक लकड़ी के बेंच पर अपने पांव पसार चुका था. अपने आगोश में धीरेधीरे उसे भर लेगा और वो धीरेधीरे पिघल कर धुआं बन कर अस्तित्वहीन हो जाएगा. जाड़े के दिन... इनसान हो या पंछी सब को कितना लालची बना देता है.. एक धूप का टुकड़ा.
गौरैया का एक जोड़ा बेंच के एक सिरे पर अपने पंख पसारे चहचहा रहा था. मनोज अपनी ठंड से ऐंठती लंबीलंबी उंगलियों को पूरी ताकत से हथेलियों के बीच रगड़ कर गरम करने की कोशिश कर रहे थे.
मनोज गुप्ता 58-60 साल की उम्र... सरकारी नौकरी करते थे. बालों में सफेद चांदनी मुंह चिढ़ाने लगी थी. नौकरी के दोचार साल ही रह गए थे. कैसा भी मौसम हो, पर मनोज पार्क आना नहीं भूलते... पार्क की नरमनरम घास, क्यारियों में लगे रंगबिरंगे फूल उन्हें हमेशा से आकर्षित करते थे. लता अकसर चुटकी लेती थी... टहलने ही जाते हैं न...???
और मनोज मुसकरा कर रह जाते. जैसेजैसे ठंड बढ़ती जा रही थी, पार्क में आने वालों खासकर बुजुर्गों की संख्या घटती जा रही थी.मनोज ने पार्क में 4 चक्कर लगाए और वहीं लकड़ी की एक बेंच पर आ कर बैठ गए. क्यारियों में लगे रजनीगंधा, गुलदाउदी और गेंदे के खिलेअधखिले फूल और उस धूप के टुकड़े के धीरेधीरे बढ़ते कदम को अपनी ओर आता महसूस कर खिलखिलाने लगे थे.
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