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पिताजी रिटायर हो चले थे. सो, सुचेता को 3 लोगों का खर्च उठाने के लिए सोचना था, इसलिए उस ने कलम उठाई और लिखना शुरू किया, आर्टिकल्स, कहानियां प्रकाशित भी हुए, पर जितना पेमेंट मिला, उतना इस महंगाई के दौर में बहुत कम साबित हुआ और फिर बेटी के पालनपोषण का बोझ. सो, सुचेता एक कोचिंग सैंटर में जा कर पढ़ाने लगी. जब वहां से समय मिलता, तो घर जाजा कर ट्यूशन भी देती.

बेटी अमाया का स्कूल में दाखिले का समय आ गया था. उस का अच्छे स्कूल में दाखिला और उसके पालनपोषण की जिम्मेदारी बखूबी निभाए जा रही थी सुचेता.

अब सुचेता के जीवन में भयानक लहरें तो न थीं, पर उन में एक खामोशी थी. पर एक अज्ञात भय हमेशा बना ही रहता था और इस भय के साथ ही तो अब सुचेता को जीना था. वह भय एक दिन जीवंत रूप में फिर से सुचेता के सामने आ खड़ा होगा, यह उस ने नहीं सोचा था, वह कोई और नहीं, बल्कि एकलव्य ही था, जो सुचेता की सूनी मांग देख कर चकित रह गया था. बहुतकुछ कहना चाहा, पर कह न सका.

सुचेता का मन भी एकलव्य को देख कर पूरी तरह भीग गया था. मौल में कितनी गहमागहमी थी, पर वे दोनों भीड़ में भी एकदूसरे से मौन संवाद कर रहे थे और एकलव्य कब, कैसे, क्योंजैसे सवाल अपनेआप से ही किए जा रहा था.

“’वे एक रोड ऐक्सिडैंट में...’गला रुंध गया था सुचेता का. एकलव्य ने बेटी को पुचकारा. कुछ समझ न आता देख सुचेता मौल से बाहर जाने लगी, पर नन्ही अमाया अभी और घूमना चाहती थी. शायद एकलव्य भी यही चाह रहा था कि सुचेता से कुछ और बातें कर सके, पर सुचेता बाहर की ओर निकल गई.

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