कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

सुचेता को लेखन का शौक तो था और वह किताबों और समाचारपत्रों में आर्टिकल्स आदि लिखा भी करती थीपर उसे मूर्ति या चित्रकला में अधिक रुचि नहीं थी.

‘पता नहीं, अब इस पत्थर की मूर्ति में क्या अच्छा लगता है लोगों को? न तो इस का कहीं सिर है और न ही पैर. बस, लोग अपने को अलग और मौडर्न दिखाने को कुछ भी पसंद करते हैं. कागज पर किसी भी तरह के फैले हुए रंग को पेंटिंग कहने लगते हैं,’सुचेता ने कैंपस के बीचोंबीच एक मूर्ति को देखते हुए कहा, तो पीछे खड़ा हुआ एकलव्य हंस पड़ा था और हंस कर खुद ही मूर्तिकला की विशेषताएं सुचेता को बताने लगा था.

सुचेता एकलव्य के हावभाव को बड़े ही गौर से देख रही थी, कितनी लगन और सचाई दिख रही थी एकलव्य की बातों में, जैसे मूर्तिकला के बारे में सबकुछ उसे आज ही बता देना चाहता हो.

यह पहली मुलाकात थी उन दोनों की. सुचेता इंप्रैस हुए बिना नहीं रह सकी थी.

एक दिन सुचेता अपनी सहेलियों के साथ टैगोर लाइब्रेरी के बाहर वाले लौन में घास पर बैठी हुई नाश्ता कर रही थी कि अचानक से वहां पर एकलव्य पहुंच गया और बड़ी ही बेपरवाही से सुचेता के टिफिन से एक निवाला निकाल कर खाने लगा. यह देख कर सुचेता बुरी तरह चौंक गई, क्योंकि वह जाति से लोहार थी, जबकि एकलव्य ब्राह्मण था, पर एकलव्य को उस की जाति से कुछ लेनादेना नहीं था, क्योंकि वह तो सुचेता से सच्चा प्रेम कर बैठा था और सच्चा प्रेम कभी जातिधर्म नहीं देखता. यह सब देखने और जातियों के बाबत निर्णय देने के लिए समाज तो है ही.

एकलव्य के इसी अंदाज ने सुचेता को और भी आकर्षित कर लिया था. उन की इस पसंद को प्रेम में बदलते देर नहीं लगी और अन्य प्रेमियों की तरह एकलव्य और सुचेता को भी अपने प्रेम को विवाह में बदलने की शीघ्रता होने लगी. पर उन्हें पता था कि उन के बीच आर्थिक और जातीय मान्यताओं को मानने वाला रूढ़िवादी समाज का अभेद्य किला है, जिसे गिराना आसान नहीं होगा.

और इसी समाज की दुहाई एकलव्य के पिताजी ने उसे दी और दोनों परिवारों के बीच का आर्थिक अंतर भी समझाया. जाति की लोहार सुचेता से शादी करने को मना कर दिया.

एकलव्य के पिता का कपड़े का कारोबार था और एकलव्य अभी आर्थिक रूप से स्वतंत्र न था, इसलिए पिताजी का विरोध नहीं कर सका. अपने ही प्रेम का डैम तोड़ते हुए देखा था एकलव्य ने.

सुचेता के पिताजी रिटायर हो चुके थे और जल्द से जल्द बेटी की जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सुचेता पर शादी करने का दबाव डाला.

आज शायद सुचेता की मां जिंदा होती तो अपने मन का दुख वह उन से कह लेती, पर पिताजी से वह अपने प्रेम के बारे में क्या कहे?

सुचेता जान चुकी थी कि वह एक लोहार परिवार से होने के नाते ब्राह्मण परिवार की बहू तो नहीं बन सकती, इसलिए अनमने मन से ही सही, पर उस ने भी शादी के लिए हां कर दी.

आज एकलव्य और सुचेता ने आखिरी मुलाकात की.

“’जिसे सब से अधिक चाहा जाए, जब वह ही हासिल न हो तो जीने से क्या लाभ?’निराश थी सुचेता.

एकलव्य भी टूटा हुआ था, पर वह जानता था कि उसे कमजोर नहीं पड़ना है, नहीं तो सुचेता और भी टूट जाएगी, इसलिए उस ने सुचेता को समझाने का प्रयास किया और उस पर भले ही इमोशंस हावी थे, पर वह भी जीवन की सचाई जानती तो थी ही. सो, उन दोनों ने मुसकरा कर भारी मन से विदा ली.

जाते समय एकलव्य ने कहा कि चूंकि उस के पिता का बिजनैस इसी शहर में है, इसलिए जब भी वह मायके आए, तब उस से मुलाकात जरूर करे. पर सुचेता ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया.

‘“अब तुम मेरे हृदय की धड़कन बन चुके हो, जो हर पल हमारे शरीर में रहती है, पर धड़कन से प्रत्यक्ष मिलना नहीं हो पाता और वैसे भी मुझे भारतीय नारी के पतिव्रत धर्म का पालन भी तो करना है. सो, शादी के बाद तुम से मिलना ठीक नहीं होगा,’यह बात कठोर जरूर थी, पर सुचेता ने जानबूझ कर ऐसे नाटकीय अंदाज में कही कि माहौल हलकाफुलका हो गया.

सुचेता ने एकलव्य के सामने ही उस का मोबाइल नंबर भी डिलीट कर दिया.

सुचेता का विवाह हो गया. वह पिताजी को अकेला छोड़ आई. सुचेता अधीर हो रही थी, पर पिताजी की शिक्षाओं ने ही उसे धैर्य रखना सिखाया था.

सुचेता के पति अचल एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर थे और अच्छी सैलरी के चलते अच्छा लाइफस्टाइल था उन का.

प्रकृति स्त्रियों को सहज ही हर माहौल को स्वीकारने और उस में ढलने का स्वभाव देती है.

शादी के 2 साल बीत गए थे, पर इन 2 सालों में सुचेता एकलव्य को भूल नहीं पाई थी. भला धड़कन को ह्रदय से निकाल देने पर तो जो भी बचेगा, वह तो मृत ही होगा न. सुचेता भी धीरेधीरे ससुराल में खुश रहने का प्रयास कर रही थी. अचल भी सुचेता की हर बात का ध्यान रखते और समय मिलने पर ढेरों बातें करते और अचल की खुशी अपने चरम पर पहुंच गई थी, जब उसे यह पता चला कि सुचेता गर्भवती है.

‘मैं पढ़ाईलिखाई कर के भी सरकारी नौकरी नहीं पा सका, पर अपने होने वाले बच्चे को इस काबिल बनाऊंगा कि वह एक सरकारी नौकरी जरूर कर सके.”’

सुचेता ने एक बेटी को जन्म दिया. अचल और उस के मातापिता ने नन्ही बिटिया का खुले मन से स्वागत किया और परिवार में ढेरों खुशियां छा गईं.

जीवन का कोई फिक्स्ड पैटर्न नहीं होता. वह तो चलता है समुद्र की लहरों की तरह, कभी ऊपर तो कभी नीचे, कभी शांत हो कर तो कभी शोर मचाता हुआ और एक ऐसा ही भयानक शोर सुचेता के जीवन में तब आया, जब अचल की रोड दुर्घटना में मौत हो गई.

सुचेता के लिए इस से अधिक दुख की बात क्या हो सकती थी. उस के सामने अभी पूरा जीवन पड़ा हुआ था और 6 साल की नन्ही बेटी की सारी जिम्मेदारी थी.

अचल की तेरहवीं होते ही सुचेता के सासससुर का रंग ही बदल गया. वे सासससुर, जो अचल के जीवित रहते कितना ध्यान रखते थे सुचेता का, वे उस के जाते ही कठोर और निर्मम व्यवहार करने लगे और अचल की मौत का जिम्मेदार सुचेता व उस की बेटी को बताने लगे.

सुचेता ने जलीकटी बातों को सुना और सहा भी, पर अब सासससुर का जुल्म और बढ़ चला था, क्योंकि ताने सिर्फ सुचेता को ही नहीं, बल्कि उस की बेटी को भी दिए जा रहे थे और बेटी पर कोई भी आरोप सहन नहीं हुआ सुचेता को. उस ने अपने पापा से बात की और अपना सामान ले कर मायके चली आई.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...